Monday 6 February 2023

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दिनांक 2 फरवरी को बजट पर समाचार पत्रों के कलात्मक स्वरूप पर लिखी गई टिप्पणी



क्या आज का अखबार आपने देखा? नहीं तो जरूर देखिए! हर पृष्ठ उलट-पलटकर देखिए! आपको कुछ नया- नया सा लगेगा! नया इसलिए क्योंकि आज के समाचार पत्र में हजारों मीडिया कर्मियों की मेहनत छिपी है। जिनमें संपादक से लेकर संवाददाता, डेस्क पर काम करने वाले सहायकों के साथ-साथ #मीडिया कलाकारों की दिन रात की मेहनत है। मीडिया कलाकार अर्थात जिनमें लेआउट आर्टिस्ट, ग्राफिक डिजाइनर, #कार्टूनिस्ट, इलस्ट्रेटर व पेज मेकर्स आदि शामिल होते हैं। यह वह टीम होती है जो आप तक बजट को बेहतरीन और रोचक ढंग से पहुंचाती है।

 

आपने #बजट के रंग में रंगे अखबार आज सुबह देखे-पढ़े ही होंगे। क्या आपको महसूस हुआ कि आज की बात कुछ अलग है? जरूर हुआ होगा क्योंकि मेहनत कभी छिपती नहीं। प्रशंसा मिले या न मिले वो पूरे मनोयोग से दमकती है। जैसे सूरज का उदय। आप उसे उठकर देखें या न देखें वह अपनी उपस्थिति महसूस करा ही देता है। आज के अखबार उसी मेहनत का प्रतिफल हैं।

यह बात मैं आज इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैंने अपने जीवन के लगभग तीन दशक इसी दुनियां, इसी माहौल में खपाए हैं। एक साधारण कार्टूनिस्ट से लेकर कला प्रमुख तक। सारी भूमिकाएं मैंने निभाई है। पत्रकारिता में कला की प्रत्येक विधा में फिर वह चाहे लेआउट हो या इंफोग्राफिक्स, इलस्ट्रेशन हो या कार्टूनिंग मैंने कार्य किया है। जरूरत पड़ने पर कुछ लेख व विशेष परिशिष्ठ भी लिखें हैं। इसलिए आज भी बजट का अखबार देखते ही मन विहल हो उठता है। लगता है कि मुझे इस विषय पर कुछ कहना चाहिए। चूंकी यह एक सोशल मीडिया पर लिखी गई पोस्ट है इसलिए मैं आज उनकी कमियों की चर्चा नहीं करूंगा किन्तु इतना जरूर कहूंगा कि अखबारों में उसके कलात्मक्ता को लेकर अभी बहुत कुछ अच्छा किया जा सकता है। मैंने हमेशा समाचार पत्र के पन्नों को एक विशाल कैनवास की तरह ही देखा है। खैर!
आज सलाम कीजिए पत्रकारिता के उन हजारों हजार मेहनतकश लोगों को जिनके लिए ‘बजट’ का दिन किसी उत्सव, किसी प्रतियोगिता से कम नहीं होता। यह अपने आप को प्रमाणित करने वाले सुनहरे पल की तरह होता है। यह पत्रकारिता का वह 'अंतिम पग' होता है जिसे पार किए बिना आप पत्रकारिता में अपनी धाक, अपनी जगह नहीं बना सकते। विशेषकर मीडिया में कार्य कर रहे कला विभाग के लिए।
बजट का यह महाकुंभ कई मायनों में विशेष होता है। जहां हमें किसी दूसरे अखबार या संस्थान की सोच, उनकी मेहनत को समझने का मौका मिलता है। हम अपने समकक्ष काम कर रहे कलाकारों से कला के माध्यम से दो-दो हाथ कर रहे होते हैं। यह बॉक्सिंग की तरह ‘बिग फाइट’ का मौका होता है। जब आप अपना काम बड़े संस्थानों को बिना सी वी/बायोडाटा दिए पहुंचा सकते हैं। यह एक ऐसा कला संगम होता है जहां हर अखबार का आर्टिस्ट अपना जौहर दिखाता है। फिर चाहे ‘ग्राफिक्स’ हो या ‘लेआउट’, एक से एक चित्र और मज़ेदार कार्टून्स। कोई पीछे नहीं रहना चाहता। संपादक भी दिल खोलकर इस पर्व पर इन कलाकारों को मौका देते हैं। वे भी जानते हैं कि केवल ख़बर पेलने से आज कुछ नहीं होने वाला। सही मायनों में आज की लाज इन्ही मीडिया चित्रकारों के हाथों में होती है।
बजट प्रकाशित होने के बाद ही पता चलता है की कौन कितना पानी में है। कौन से अखबार का डिस्प्ले पिटा और कौन हिट रहा। अखबार का बिकना अलग विषय है लेकिन किसका स्वरूप ज्यादा असरदार रहा, इसकी चर्चा का दिन होता है आज का दिन।


आप ज़रा उस माहौल में कुछ पल जी कर देखिए, आपको मजा आ जाएगा। बजट का अखबार छापना किसी मोर्चे को फतह करने से कम नहीं होता। युद्ध सा माहौल होता है मीडिया संस्थानों में। एक तरफ खबरों की सुनामी चलती रहती है तो दूसरी तरफ उन्हें यथा स्थान चस्पा करने की जद्दोजहद। संवाददाता एक के बाद एक अपनी फील्ड की खबरें भेजते रहते हैं। संपादकीय मंडल उन्हें कांट छांटकर आगे बढ़ाता है। और फिर हर पृष्ठ का इंचार्ज उन खबरों को बेहतर डिस्प्ले देने के लिए डिजाइनरों से मिन्नतें करता फिरता है। किस पर ग्राफिक लगेगा, किस पर कार्टून ये संपादकी मंडल तय करता है। जिसको लेकर संपादकीय व कला विभाग में तलवारें खिंची रहती हैं।
अंग्रेजी अखबारों में व्यवस्था कुछ हद तक तो बनी रहती है किन्तु हिंदी में स्थिति थोड़ी भिन्न होती है। जो जितना भौकाल मचाता है उसकी उतनी चलती है। चूंकि मैंने हिंदी, अंग्रेजी व मराठी तीनों भाषाओं में काम किया है इसलिए मैं स्थिति को बेहतर समझ पाया हूं। उसमें भी मेरा सौभाग्य यह रहा कि मेरे संपादकों ने मेरे काम पर पूरा विश्वास रखा व काम करने की पूरी छूट दी। हर बड़े मौके पर वे भी मेरी उपयोगिता समझते रहे। फिर बजट हो या होली या फिर कोई बड़ा इवेंट। जब एक ही टेबल पर उन्हें इलस्ट्रेशन, इंफोग्राफिक, कार्टून, लेआउट मिल रहा हो तो वे इधर उधर क्यों भागते? सचमुच, मैं आज उनका ऋणी हूं! जिन्होंने मेरा जमकर दोहन किया। मुझे लगता है मैंने जो कुछ भी हासिल किया वह उन्हीं संपादकों की वजह से। फिर उस समय उनकी मंशा भले ही कुछ भी रही हो।
मुझे यहां पर राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री अधिक गहलोत की कही बात याद आती है। यही कि “जब तक रगड़ाई न हो तब तक अकल आती नहीं।” मुझे लगता है उसी रगड़ाई से हासिल की हुई अकल और आनंद को आज मैं आपसे साझा कर रहा हूं।
सोचिए एक तरफ पूरा सरकारी अमला बजट की तैयारियों में लगा रहता है और दूसरी ओर उन्हीं तैयारियों पर टकटकी बांधे, कयास लगाते मीडिया कर्मी। जैसे ही बजट का बम फटा नहीं कि सारे के सारे पिल पड़ते हैं उसके गुण दोषों का निरूपण करने के लिए। एक-एक पहलुओं को बारीकी से उधेड़-बून करते हैं। बजट कैसा है, कैसा नहीं? इस पर अपनी-अपनी राय साझा करते हैं। तब कहीं जाकर निचोड़ निकलता है कि आज का बजट कैसा है। यहां फैसला हुआ नहीं की वहां संपादक मालिक से वन टू वन करने चल पड़ते हैं और बाकी की टीम अपने अपने बंकरों, संगरों की ओर भागती है।
तीन दशक पहले जब कंप्यूटर का चलन अखबारों में नया-नया था तब तो सबकी सांसे फूल जाती थी इस बजट को निकालते-निकालते। मज़ा तो तब आता था जब आखिरी वक्त पर प्रिंटर दगा दे जाता या मशीन हैंग कर जाती थी। खैर! अब इस मामले में फिलहाल इससे ज्यादा कहना नहीं चाहता। विस्तार से फिर कभी लिखूंगा। किंतु उन लोगों का विशेष रूप से धन्यवाद करना चाहता हूं जिनके साथ मैंने काम किया तथा जिन्हें मैंने बारीकी से देखा। उनमें सम्पादक से लेकर रिपोर्टर व क्रिएटिव हेड से लेकर अधिनस्थ तक सब शामिल हैं। वे पहले भी थे और आज भी हैं।

अतः आज बजट आने के बाद अखबारों के दफ्तरों में युद्ध के बाद का सन्नाटा होगा। थके हारे सैनिकों की तरह सब अपने-अपने डेस्क पर निढ़ाल पड़े होंगे। मीमांसा कर रहे होंगे आज के अखबार की। इस आशा के साथ की अगले वर्ष फिर बजट आएगा और हम पुनः उसी जी जान से उसे नया रूप देने के लिए कमर कसेंगे।
मैं वैसे तो अब पत्रकारिता की मुख्य धारा में मात्र एक फ्रीलांस कार्टूनिस्ट के तौर पर ही कार्य करता हूं। किन्तु मै भी जब अखबार की नियमित नौकरी छोड़ कर इलेक्ट्रानिक मीडिया में गया, तब मेरी आंखों में भी रवीश कुमार की तरह आंसू थे और विचारों में खालीपन था कि अब ‘मैं बजट पर क्या करूंगा?’


मुझे आज भी बजट पर अखबारों के वे पन्ने बहुत याद आते हैं। सम्भवतः इसलिए ही आज की यह बजट कृतियां आपसे साझा कर रहा हूं। ये आज के अखबार हैं मेरे डिज़ाइन किए पन्ने नहीं।
आपका वित्तीय वर्ष यूं ही रंगीन, व्यवस्थित व मंगलमय हो!

Sunday 28 October 2018

एक पिता की जन्मकथा


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