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हमें चाहिए ऑड सवालों के ईवन जवाब

कोई मुझे यह तो बताये कि सरकार किसे कहते हैं? उसे जो अपने राज्य के अधिकारों के प्रति सजग हो या फिर उसे, जो पड़ोसी राज्य के जुल्मो-सितम को भी सिर झुकाकर स्वीकार कर ले। क्या उस संवैधानिक ढांचे को सरकार कहलाने का हक है जो अपने ही नागरिकों के अधिकारों की रक्षा न कर सके। शायद नहीं। लेकिन ऑड-ईवन पर दिल्ली के पड़ोसी राज्यों की सरकारों का यही हाल है। वे आंख मूंद कर बैठी है। उन्हें अपने नागरिक अधिकारों की कोई चिंता नहीं। वे तो कुंभकर्णी नींद में है। उनका पड़ोसी मुख्यमंत्री एक के बाद एक तुगलकी फरमान जारी कर रहा है और वे उसे सिर झुका कर स्वीकार कर रहीं हैं। और सारा दोष राजा को ही क्यों दोष दें? राज्य की जनता भी उतनी ही दोषी है। वैसे भी जिस राज्य की जनता उदासीन हो वहां की सरकारों से क्या अपेक्षा की सकती है। जिन राज्यों में हर रोज़ चोरी-डकैती आम बात हो वहां पड़ोसी राज्य का मुख्यमंत्री उनकी पॉकेटसे कुछ पैसे मार ले तो उन्हें क्या फर्क पड़ेगा। फर्क तो तब पड़े जब उन्हें अपने अधिकारों की चिंता हो। यथा राजा तथा प्रजा
दिल्ली में ऑड-ईवन 15 अप्रैल से दोबारा लागू है। लागू करने के लिए लाखों रुपये पानी की तरह विज्ञापनों में बहा दिए गए। वह भी दिल्ली की ऑड सरकार को ईवन दिखाने के लिए। अपना चेहरा चमकाने के लिए। माननीय केजरीवाल जी जरा ये तो बताइये कि बड़े-बड़े विज्ञापनों में आपकी लंबी मुस्कुराहटों का राज़ क्या है। विज्ञापनों में तो आप कहते हैं कि जो ऑड-ईवन फॉलो न करे उसे प्यार से समझाइये।उससे लड़िए मत। झगड़िए मत। उसे फूल देकर कहिए कि शायद आज आप गलत नंबर की गाड़ी लेकर आए हैं। यदि यह दया और करुणा का भाव असली है तो फिर गलती करने वालों के चालान क्यों काटे जा रहे है। आप प्यार से समझाते रहिए और ऑड-ईवन चलाते रहिए। आपको कौन रोकता है। आप खुद ही बताइये दिल्ली में प्रदूषण चालान से रुकेगा या जागरूकता से। आश्चर्य तो तब होता है जब आप जैसा समझदार व्यक्ति इस तरह का काम करें। कहां तो आप दिल्ली पुलिस को दिन-रात कोसने में लगे रहते हैं। दिल्ली का कोई पुलिस कर्मी आपको फूटी आंख नहीं सुहाता। क्योंकि वह आपके अधीन नहीं है। क्या आप जानते हैं कि जिस दिल्ली पुलिस को आप ठुल्ला कहते हैं उनकी जेबें आपके ही आदेश से गरम हो रही हैं। आप इधर ऑड-ईवन लागू कर अपनी कॉलर टाइट करने में लगे हैं, वहीं दूसरी ओर चालान के नाम पर दिल्ली पुलिस लाखों रुपये कमा रही है। यह भी एक नई कहावत हो गई। करे कोई, कमाए कोई। छोड़िये भी! अब ज़रा हम इस आलेख के मूल मुद्दे की ओर चलते हैं।
क्या देश की संप्रभुता इसे ही कहते हैं। जिसमें एक राज्य अपनी मनमानी करता रहे और बाकी तमाशा देखते रहें। क्या आपको इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं कि आपके आदेश से अन्य राज्यों के नागरिकों के अधिकारों का अवहेलना हो रही है। जिस वाहन ने अग्रिम आजीवन रोड़ टैक्स भरा हो उसे आप सड़क पर चलने से कैसे रोक सकते हैं? ‘मोटर ह्वीकल्स एक्ट टैक्स जमा करने पर वाहन चालक को 24 घण्टे 366 दिन वाहन को सड़क पर चलाने की अनुमति देता है। फिर आप उस पर रोक कैसे लगा सकते हैं। रोक लगाना ही चाहते हैं तो आप दिल्ली में पंजीकृत वाहनों पर रोक लगाइये। वह आपके अधिकार क्षेत्र में आते हैं। लेकिन अन्य राज्यों के वाहनों को सड़कों पर चलने से रोकने का अधिकार आपको किसने दिया। जो आपके लिए उत्तरदायी नहीं उस पर आप कैसे रोक लगा सकते हैं। ज़रा सोचिए कल कोई राज्य इस आदेश के विरोध में दिल्ली में पंजीकृत वाहनों को अपने यहां चलने से रोक दे तो फिर क्या होगा? आश्चर्य तो तब होता है जब ऐसे संवेदनशील मसले पर पड़ोसी राज्य सरकारें जागती नहीं हैं। औरन ही उस राज्य के नागरिक। किसी को अपने अधिकारों की कोई फिक्र नहीं। क्यों किसी ने इस बात पर अब तक अदालत का दरवाज़ा नहीं खटखटाया।
आप चाहें तो अपना यह तुगलकी फरमान आगे भी जारी रखें। उससे पहले कृपा कर अन्य राज्यों के वाहन चालकों कापंद्रह दिनों का टैक्स का पैसा लौटा दीजिए। ज़रा दिल्ली क्षेत्र के राष्ट्रीय राजमार्गों की बात कीजिए। क्या वे आपके अधीन हैं? दिल्ली के राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 1,2,,8,10,24 पर आप अपना अधिकार कैसे जमा सकते हैं? वे तो केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय के अधीन हैं। फिर इन राष्ट्रीय राजमार्गों पर आपकी दादागीरी क्योंउस यात्री की क्या खता जिसे दिल्ली से होकर गुजरना है?  क्या वह एक राज्य से दूसरे राज्य जाने के लिए टोल टैक्स के साथ-साथ, दिल्ली में अपना चालान भी कटवाए। या फिर एक दिन दिल्ली की सीमा रेखा के बाहर खड़े हो कर दूसरे दिन का इंतज़ार करता रहे। क्या आप उसे एक दिन सीमा रेखा पर ठहरने का मुआवजा देंगे?
आपको ज्ञात होना चाहिए कि किसी भी प्रक्रिया को निर्धारित करने वाला कानून उचित, निष्पक्ष और तर्कसंगत होना चाहिए। क्या आपको नहीं लगता कि आपका यह आदेशबाकी राज्यों के नागरिकों की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार में बाधक है? आप भली-भांति जानते हैं कि किसी भी भारतीय नागरिक को किसी भी अन्य राज्य क्षेत्र में आने-जाने की पूर्ण स्वतंत्रता है।किसी भी राज्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह जो भी कानून बनाए वह कानून न्यायोचित व तर्कसंगत हो। इसमें किसी अन्य राज्य के अधिकारों का हनन न हो। और यदि ऐसी परिस्थिति आती है तो ऐसा कानून बनाने का आग्रह केंद्र सरकार से करना चाहिए। ज्ञात रहे, भारतीय संविधान में भारत को राज्यों का संघ कहा गया है न कि एक संघवादी राज्य। फिर ये तो कानून भी नहीं है। यह तो मात्र आपका आदेश भर है। एक मुहिम है। जो दिल्ली की जनता पर लागू हो सकतीहै लेकिन अन्य राज्यों के नागरिकों पर नहीं। आप ही बताइये कि फिर टोल वसूली और दिल्ली के चालान में क्या फर्क रह जाएगा।
बात इतनी भर नहीं है। इस अलावा भी और कई सुलगते सवाल हैं। नैनीताल उच्च न्यायालय कहती है कि राष्ट्रपति कोई राजा नहीं है तो फिर महामहिम पर ऑड-ईवन लागू क्यों नहीं होता? प्रधानमंत्री खुद को सेवक कहते हैं फिर उन पर ऑड-ईवन क्यों नहीं? प्रजा-प्रजा में भेद क्यों? सैनिकों, महिलाओं व सरकारी वाहनों को छूट किसलिए? क्या उनकी गाड़ियां प्रदूषण नहीं फैलाती? जवाब दीजिए केजरीवाल जी। ये कुछ ऑड सवाल हैं जिनके ईवन जवाब आपको देश की जनता को देने हैं।

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साक्षात्कार

भालचंद्र नेमाड़े 

1.       आपको कैसे लगा कि एक उपन्यास लिखना चाहिए?
दरअसल वह लघु कथाओं व कहानियों का दौर था। मराठी के अधिकांश साहित्यकार जिनमें गंगाधर गाडगिल, अरुण गोखले, मु. बा. भावे, माडगुलकर आदि जिन्हें मैं योग्य मानता था वे सभी साहित्य के इसी प्रारुप में उलझे थे। कोई बड़ा सोचने को तैयार नहीं था। यह बात हमेशा मेरे दिल में कहीं चुभती रही। क्षमता होकर भी आप उसका उपयोग न करें तो आपकी महानता का समाज को क्या लाभ? केवल उन दो-तीन पेज की बाजारू या अखबारी किस्से- कहानियां लिखते रहना मुझे चंद पैसों के लिए अपनी क्षमता को बंधक रखने जैसा लगता था। और इस तरह छोटी-छोटी कहानियां, लघु कविताओं का फैशन सा चल पड़ा था। आख़िर यह कहां तक उचित है?
जबकि हमारे देश की परंपरा बड़ा लिखने की रही है। फिर चाहे वेद  लिखे गए हो या ग्रंथ या फिर इतिहास। जितना वृहद लेखन भारत में हुआ है शायद ही कहीं और हुआ। बावजूद इसके हमारा किस्से-कहानियों, लघु निबंध या ललित लेखन तक ही सीमित रहना, बात कुछ जचती नहीं। इस सब का परिणाम यह हुआ कि मेरे मन में उन सभी के प्रति एक तिरस्कार की भावना निर्माण हुई। आख़िर यह सब पाठक को ठगने जैसी बात हुई। आप ता उम्र कुछ भी इमेंजनरी या साइकोलॉजिकली, मन गढंत कहानियां बनाएं और साहित्य में खानापूर्ती करें। मुझे लगता है इससे मराठी और भारतीय साहित्य को एक बड़ी हानि हुई है। वैसे भी साने गुरुजी के शामची आईबाद एक लंबे अर्से तक कोई उपन्यास नहीं लिखा गया। तब मैंने कुछ बड़ा लिखने की सोची। मैंने कोसला लिखने का मन बनाया।      
2.       ...फिर आज मराठी में उपन्यासों की क्या स्थिति है?
आप खुद देख सकते हैं, न मेरे पहले कुछ बड़ा लिखा गया और न ही बाद में कुछ खास लिखा जा रहा है। न जानें आज की पीढ़ी को कया हो गया है? जबकि आज कि पीढ़ी हमसे कहीं ज्यादा अवेयर है। उनके पास बेहतर संसाधन हैं। अपने आपको प्रोजेक्ट करने के लिए इतने रास्ते मौजूद हैं। फिर भी वे क्यों नहीं कुछ बड़ा सोचते? मैं ठीक से जानता नहीं लेकिन शायद हिन्दी व अन्य भाषाओं में भी यही स्थिति है।      
3.       कोसला के नायक पांडूरंग सांगवीकर को आपने कैसे जन्म दिया?
...दरअसल कोसला मेरे अपने ही जीवन के अनुभवों पर आधारित उपन्यास है। आप उसे मेरी आटोबायोग्राफी भी कह सकते हैं। वह नायक कुछ हद तक उसी का प्रतिरूप है। मुझे विचार से हर लेखक को पहली प्राथमिक्ता अपने अनुभवों को देनी चाहिए। उन्हें ज्यादा से ज्यादा पाठकों के साथ शेअर करना चाहिए। ताकि पाठक के हाथ कुछ लग सके। फिर वह सीख या मार्ग दर्शन किसी भी रूप में क्यों न हो। इसमें आप केवल इमेजनरी होकर नहीं चल सकते। इसके इतर हम अपने अनुभव जितने अच्छे और प्रभावी ढ़ंग से लिख सकते हैं उतना कुछ और नहीं। इसी से पाठक आपसे जुड़ता भी है। मुझे लगता है कि शायद इसी वजह से कोसला का नायक पांडूरंग सब पर असर छोड़ता है।    
4.       लेकिन यह पात्र आपके अगले उपन्यास बिढ़ार, जरीला, झूल में उतना प्रभावी क्यों नहीं रहा?
हां...यह सच है कि उस पात्र की भूमिका कुछ कमज़ोर हुई। दरअसल मैंने जब कोसला लिखा  उस वक्त मैं केवल 23-24 साल का था। मेरा युवा मन मेरी सबसे बड़ी ताकत थी। कोसला और बिढ़ार में एक लंबा गैप हो गया। इस दरमियांन मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर वापस अपने गांव सांगवी लौटा। लेकिन तब मुझे व मेरे जैसे युवाओं को परिवार व गांव वालों ने स्वीकार नहीं किया। गांव में खेती की दशा बहुत खराब थी। दो वक्त की रोटी जुगाड़ना भी मुश्किल हो रहा था। अतः उन्होंने हमें शहर में ही जाकर कोई नौकरी तलाशने को कहा। मैं और गांव के मेरे जैसे कई लड़के शहर आ गए और नौकरी करने लगे। सबसे पहले मैं पोस्ट ऑफिस में रहा लेकिन जल्द ही किसी स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिली। शिक्षक रहते मुझे महाराष्ट्र के कई छोटे-बड़े शहरों, गांवों में रहना पड़ा। इस दौरान मुझे समाज के विभिन्न वर्गों, भाषा-बोलियों, लोक कथाओं, परंपराओं को समझने का मौका मिला। इस लंबे गैप से मेरा कोसला और बिढ़ार के बीच का तारत्म्य टूटा ऐसा मुझे लगता है। हालांकी तब मैं पहले से ज्यादा मैचुअर था।
कोसला एक युवा मन से लिखा गया उपन्यास था। यही तारुण्य शायद पाठकों को भा गया। खासकर उन नौजवानों की बातें जो गांवो से शहर में रोज़गार के तलाश में आते हैं। जिसमें उनका भोलापन छिपा होता है। शायद यही भाव वे मेरे अगले उपन्यास में भी देखना चाहते थे। जिनमें वह मिसिंग था।
5.       लेकिन इन सबके बीच नेमाड़े पंथ की शुरुआत कब हुई व इसके क्या निहितार्थ हैं?
मराठी के वरिष्ठ लेखक जयंत दळवी ने परिहास में एक बात कही कि अब हमारा युग खत्म अब नेमाड़े का युग शुरु हुआ। जिसे उन्होंने नेमाड़ पंथ कहा। जिस पर मराठी साहित्य जगत में एक बहस छिड़ी। आगे चलकर वे साहित्यकार जो विद्रोही विचारों के थे उन्हें नेमाडे पंथी कहा जाने लगा। जिनमें खासकर युवाओं की संख्या ज्यादा थी। ऐसे युवा जो सामाजिक प्रतिमानों को धवस्त करने का काम किया करते थे। फिर वह मां-पिता, गुरू, धर्म-जाति, ईश्वर,हो या बरसों से चली आ रही सामाजिक परंपरा या मान्यता। वे हर चीज़ पर संशय वक्त करते और उसपर पुरज़ोर तरीके से लिखते। ऐसे में जमे जमाए साहित्यकार जो खुद को तत्ववादी मानते थे बौखला उठे और उन्होंने ऐसे लेखकों भी नेमाड़ पंथी करार दे दिया। आगे चलकर इसी से दलित साहित्य की नीव पड़ी।
6.       आपने दलित साहित्य की बात की लेकिन यह दलित साहित्य जितना मराठी में प्रखरता से उभरा उतना अन्य भाषा व प्रांतों में क्यों नहीं आया?
उसका सबसे मूल कारण महाराष्ट्र की मजबूत साहित्यिक परंपरा रही है। दूसरा कारण हम सब मित्र जो अपनी लिटिल मैग्ज़ीन निकाला करते थे उसका भी सबसे बड़ा योगदान रहा है। जिसका बैकअप उन्हें खूब मिला। जिसमें नम्रता या शिष्टाचार के लिए कोई जगह नहीं थी। फिर किसी पर भी बात करनी हो। आगे चलकर इसने अम्बेड़करिज्म और फिर कास्टीज्म का रूप दे दिया गया। तब कहीं जाकर दलित पैंथर की स्थापना हुई। मेरा ऐसा मानना है कि कम्यूनिलिज्म हो या कास्टीज्म ज्यादा दिनों तक साहित्य में टिक नहीं सकता। फिर वह गांव का एक गरीब ब्राम्हण ही क्यों न हो वह भी दलित ही होता है। शायद उसे भी यह बात बुरी लगने लगी। और वह भी इस विचारधारा से अलग होने लगा और अब तो दलित साहित्य में केवल नव बौध्द और महार जाति के लोग ही बचे हैं। वह भी लगभग अब खत्म होने की कगार पर है।
7.       इस दलित साहित्य को बढ़ाने में किसका योगदान ज्यादा रहा?
अम्बेड़कर के एक अनुयाई श्री म. ना. वानखेड़े ने इसे खूब बढ़ाया लेकिन उनके जाने के बाद यह जैसे खत्म सा हो गया।
8.       आपको उपन्यास, कविता या आलोचना इनमें से क्या लिखना ज्यादा पसंद है?
मेरी ख्याति जरूर एक उपन्यासकार की है लेकिन मुझे कविता लिखना ज्यादा पसंद है। असका मूल कारण यह है कि कविता अंतर्मन से निकलती है। मुझे लगता है कविता लिखने से एक कम्पलीट व्यक्तित्व निखरता है। कविता लिखना एक चैलेंजिंग जॉब है। वह आपके अनकॉन्शीयस माईंड में जन्म लेती है। उसी अनकॉन्शियस माईंड में विचारों का मंथन भाव, अर्थ व शब्दों के मार्ग से कविता रुप में आता है। जिसे हम संस्कृत में परा, मध्यमा, पश्यंति, वैखणी कहते हैं। शब्द एक भाषा में परिवर्तित हो जाते हैं। कविता में आपको क्रिएटिविटी की कसौटी पर खुद को कसना होता है। जबकि कथा व उपन्यासों में ऐसा नहीं है। उसमें आपकी प्रखर बुद्धिमत्ता की आवश्यक्ता होती है। आपको सब कुछ प्लान करना होता है, प्लॉट तैयार करना, पात्रों का चुनाव जैसे कई दिक्कतें होती हैं। जो कुछ हद तक आर्टिफिशियल सा लगता है। जिसमें आप एक विचार को शब्दों से बड़ा बनाते हैं जबकी कविता में एक बड़े विचार को सारगर्भित करते हैं।  
9.       आप साहित्य सम्मेलनों के प्रखर विरोधी रहे है ऐसा क्यों?
जी, मेरा यह मानना है कि किसी भी योग्य व्यक्ति को इसमें नहीं जाना चाहिए। न तो इन सम्मेलनों से पाठकों को कुछ मिलता है और न ही साहित्य को। महज सम्मेलन के नाम पर दो-चार हजार लोग इक्ट्ठा हो जाते हैं। वे मस्त आउटिंग करते हैं, मजा मारते हैं। फिर उसमें भाषावाद, प्रांतवाद, जातिवाद इतना ज्यादा होता है कि साहित्य नाम की कोई चीज़ वहां नहीं रहती। मुख्य बात यह है कि ऐसे में संवाद के लिए कोई जगह नहीं रहती।
10.   वर्तमान साहित्य जैसे वाट्सएप या एसएसएस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
इस प्रश्न का उत्तर मैं आपको एक अध्यापक के रूप में देना चाहूंगा। हमारे यहां आदिकाल से सदैव कम्यूनिकेशन पर बल दिया गया है। संवाद ही एक मार्ग ऐसा है जो निरंतर जारी रहना चाहिए। अकेला व्यक्ति भी मन से मन का संवाद कर सकता है। या अगर आप सावरकर का ही उद्हारण लें तो वे जेल में भी कैद रहकर दिवारों पर अपने विचारों को लिखा करते थे। वहां तो कोई पाठक नहीं था। लिपी से पूर्व ओरेलिटी ही थी। लगभग एक लाख साल पहले तक यह चली भी। हमारे सभी वेद, उपनिष्द, लोक कथाएं, लोकगीत सब जबानी ही चला करते थे। उन्हें वैसे ही कंठस्थ करने की परंपरा थी। इसलिए हम शिक्षा में भी कहते हैं कि ‘ Express yourself orally first.” लेखन तो बाद में आता है। अतः इन SMS को मैं कम्यूनिकेशन का अच्छा माध्यम मानता हूं। या कहें तो यह ओरेलिटी का ही आधुनिक रूप है। जिससे सभी को अपने विचार रखने की आजादी मिली है। न जानें कब इसमें आया छोटा सा विचार भी एक बड़ा रूप ले ले। बल्कि हमें तो खुश होना चाहिए कि हम एक टेक्नीकल डिवाईस में लीपिबद्ध हो रहे हैं।
11.   आप प्रखर राष्ट्रवाद के विरोधी माने जाते हैं ऐसा क्यों?
यदि मैं मराठी की ही बात करूं तो यह राष्ट्रीयता और पैट्रियॉटिक विचारधारा का कोई स्तरीय लेखक मुझे अभी तक मिला नहीं। दरअसल यह विचारधारा ही मुझे पूरी तरह थोथी लगती है। इसकी चर्चा केवल राजनैतिक स्तर पर ही होती है। मुझे न ही लगता कि इस तरह के लेखन से लेखक व पाठक को मिल पाता है। यह राष्ट्रियता की बात करना मुझे आर्टिफिशीयल सा लगता है। हम किस आधार पर पाकिस्तानियों, बांगलादेशियों या फिर नेपाल के लोगों को गैर कह सकते हैं। वह भी हमारे मित्र ही होते हैं। वह भी हमारी ही तरह के लोग हैं। इसलिए मुझे लगता है कि यह सब राजनीतिक बातें हैं। एक अच्छे लेखक को इन सिमाओं के पार सोचना चाहिए। मुझे हिन्दी के बारे में मालूम नहीं कि इस विचारधारा से जुड़े कोई अच्छे लेखक है भी या नहीं। 
12.   हाल में घोषित ज्ञानपीठ पुरस्कार को आप कैसे देखते हैं?
ज्ञानपीठ की घोषणा होने पर मुझे लगा कि मेरा कैरिअर अब खत्म हुआ। क्योंकि यह पुरस्कार अक्सर जीवन के आखिरी पड़ाव पर ही किसी लेखक को हासिल होता है। इसलिए सबसे पहले मैंने अपना चेकअप करवाया। अभी सबकुछ ठीक ठाक है यह जानकर मुझे लगता है कि मेरे पास अभी और लाईफ शेष है। यह तो विनोद की बात हुई। लेकिन हां इस बात कि मुझे खुशी है कि अब मैं बड़े परिपेक्ष में देखा व पढ़ा जाऊंगा। अन्य भाषा में भी मेरी किताबें अनुवादित होकर पाठकों तक पहुंचेंगी। उन सभी बातों को जो शायद इस रूप में न होती उन्हें ज्ञानपीठ मिलने से फिर एक नई उर्जा एक नई गति मिली है।
13.   साहित्य में आप अपना गुरू किसे मानते हैं?
मैं विंदा करंदीकर को अपना गुरू मानता हूं। वह मेरे मार्गदर्शक भी थे और आदर्श भी। वे एक अच्छे कवि भी थे। लेकिन उनका अधिकांश जीवन संघर्ष में बीत गया। वे जिस चीज़ के हकदार थे वह उन्हें नहीं मिला। जिसका मुझे दुख है। लेकिन उन्होंने जो कुछ भी लिखा वो बेहतरीन था, वह मुझे अच्छा लगता है।
14.   आप अगली पीढ़ी में किसे देखते हैं जो आपके लेखन को आगे ले जा सकते है?
मैं एक शिक्षक होने के नाते मेरे कई सारे फॉलोअर्स हैं। इनमें कुछ नाम ऐसे हैं जैसे रघुनाथ पठारे, राजेन्द्र गवस, महेंद्र कदम, सदानंद देशमुख, आदी प्रमुख हैं। यह सभी अच्छे उपन्यासकार है। जिनकी शैली मुझे प्रभावित करती है।
15.   क्या आपके परिवार में कोई ऐसा है जो इस कला से जुड़ा हो?
मेरी नातिन....
16.   आपको लिखने की प्रेरणा कहां से मिली?
मेरे गांव से। मेरा गाव महाराष्ट्र के खानदेस में सांगवी नाम से है। वह एक पठारी इलाका है। वहां कि एक विशिष्ठ बोली भी है। कई तरह की लोक कलाएं वहां रचती-बसती हैं। साहित्य हमारी परंपरा का हिस्सा था। वारकरी संप्रदाय का एक व्यापक असर इस गांव पर रहा है। तरह-तरह के आर्ट फॉर्म वहां देखने को मिलते हैं जो मुझे अच्छे लगते है। मैं एक कला प्रेमी भी हूं। इन सभी चीजों ने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया।
17.   हाल ही में सलमान रुश्दी पर आपने जो कुछ कहा क्या वह जरूरी था? क्या जरूरी है कि एक पुरस्कार मिलते ही हम किसी दूसरे पर आक्षेप करें?
मैं स्वयं भी आश्चर्यचकित था यह खब़र पढ़कर। मैं नहीं समझ सका कि मेरी बात को किस तरह से लिया गया। दरअसल मैं एक सेमिनार के दौरान अपनी बात रख रहा था। विषय मातृभाषा पर केंद्रित था। जिसमें मराठी और अन्य भाषाई साहित्य पर चर्चा हो रही थी। मैंने अपना अभिमत रखा कि आज मराठी के इतर अन्य भाषाओं में भी बहुत कुछ लिखा जा रहा है। हमें उसे भी देखना चाहिए। लेकिन मेरा विशेष ज़ोर मातृभाषा पर था। मेरा मानना है कि कोई भी लेखक अपनी बात जितनी अच्छी तरह से अपनी मातृभाषा में कह सकता है किसी और भाषा में नहीं। मैंने एक उदाहरण स्वरूप सलमान रश्दी और नायपॉल की बात कही। मैंने कहा अमेरिका में बैठकर पाकिस्तान या पैगंबर के बारे में भला बुरा कैसे लिख सकते हैं। यह एक अच्छे की निशानी नहीं है। बल्कि एक अच्छा लेखक तो जो कुछ भी कहेगा वह अपने समाज या सोसायटी की भलाई के लिए ही कहेगा। आप बिना इस्लाम को जाने आप इस्लाम पर या बिना क्रिश्चियनिटी को जाने आप जीजस पर कैसे कमेंट कर सकते हैं। कल को ब्रिटेन का प्रधानमंत्री किसी को दूसरी इंदिरा गांधी निरुपित करे तो क्या वह हास्यास्पद नहीं होगा। वह हास्यास्पद तो होगा ही अनैतिक भी होगा। अतः किसी भी चीज़ को लिखने के लिए आपको उस सोसायटी हिस्सा होना बेहद जरूरी है। उसके बाद यह बखेड़ा खड़ा हुआ। जिसपर सलमान रुश्दी ने ट्वीट किया। जो बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण था। 
सरकार की कलात्मक सोच का एक साल

माफ कीजिएगा, लेकिन मेरा इस सरकार को देखने का नज़रिया कुछ अलग है। संभव है कि यह नज़रिया कुछ नया हो। आमतौर पर किसी सरकार को इस नज़रिए से न देखा जाता हो। लेकिन बीते एक बरस में मैंने प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार को इसी नज़रिए से देखा है। अब जबकि मोदी सरकार अपना एक साल पूरा कर चुकि है तब मैं इसे सरकार की कलात्मक सोच का एक साल निरुपित करना चाहता हूं।
निर्वाचित सरकार का एक साल बीत गया। बीते कई दिनों से मोदी सरकार के कामकाज का लेखा-जोखा लिखा जा रहा है। पक्ष-प्रतिपक्ष की राय ली जा रही है। क्या हुआ, क्या न हुआ। लगभग हर एक पहलु पर चर्चा हो रही है। अच्छे दिनों की बांट जोहती देश की जनता से सवाल किए जा रहे हैं। क्या अच्छे दिन आए..? प्रधानमंत्री की लोकप्रियता नापी जा रही है। बताइये गर अभी चुनाव हुए तो क्या आप मोदी को चुनेंगे..? हलांकि, अभी इस राय मश्विरे का कोई अर्थ नहीं। लेकिन फिर भी यह माथापच्ची आज प्रासंगिक सी लगती है। आख़िर क्या वजह है जो सरकार में जनता की रुचि बनी हुई है। उनमें भी खासकर उन युवाओं कि जिनकी उम्र तीस बरस से कम है। जरूर कोई कड़ी होगी जो युवा इस सरकार में अपना भविष्य देख रहे हैं। हो सकता है यह जुड़ाव ही सरकार की लोकप्रियता का सूत्र हो। वही लोकप्रियता जिसकी बौखलाहट विपक्ष में साफ देखी जा सकती है। 
सवाल उठता है कि आख़िर इस बहस में आम आदमी की रुचि क्यों दिखाई पड़ती है? क्या यह रुचि महज इसलिए है कि यह एक गैर कांग्रेसी सरकार है? या इसे मिला प्रचंड बहुमत देश की जनता की अभिरुचि को बढ़ाता है। आख़िर इस सरकार से आम जनमानस को इतनी उम्मीदें क्यों हैं? क्यों वह इस बहस में बने रहना चाहती है कि अच्छे दिन आएंगे या नहीं। इससे पूर्ववर्ती सरकारों के साथ तो ऐसा न था। पहले भी कुछ सरकारों को ऐसे ही विशाल बहुमत से देश की जनता ने चुना था। लेकिन उनके एक साल पूरा होने पर देश के जनमानस में इतनी बेताबी न थी। क्या कोई नेता उम्मीदें जगा देने भर से भारतीयों के दिलों पर राज कर सकता है? और कुछ हद तक मान भी लिया जाए तो क्या वह उम्मीदें साल पूरा होने तक जस की तस बनी रह सकती है? शायद नहीं।   
क्या आप इस बात से सहमत होंगे कि सरकार द्वारा शुरू की गई ढ़ेर सारी योजनाओं से जनता उत्साहित है। या फिर प्रधानमंत्री के दनादन विदेश दौरों से जनमत उबाल पर है। शायद कतई नहीं। यह किसी भी सरकार के कामकाज की आम बातें है जिनमें कुछ प्रतिशत ही जनता खुद को सरकार से जुड़ा पाती है। दरअसल यह उबाल, यह उत्साह सरकार के प्रबल कलात्मक पक्ष की वजह से है। जो कई खास चीज़ों में दिखाई देता है। आश्चर्य होता है अब तक मीडिया पंडितों की नज़र इस पक्ष पर क्यों नहीं गई।
आज सरकार या प्रधानमंत्री की लोकप्रियता मात्र नारों और वादों पर टिकी नहीं है। मेरी नज़र में सरकार का कलात्मक दृष्टिकोण ही इस आकर्षण की मुख्य वजह है। जिसे बनाने में निश्चित तौर पर नरेंद्र मोदी का स्टाइलिश अंदाज सहायक रहा। फिर उनकी लोगों से संवाद करने की कला हो या आधे बाजू के कुर्ते का जलवा। रैली में मोदी-मोदी के नारे हो या मीडिया में नरेन्द्र मोदी कि जगह खुद को नमो कहलवाना, उनकी कलात्मक सोच को ही दर्शाता है। यूं ही कोई नेता एक फिल्मी सितारे के साथ पतंगबाजी करते हुए खुद भी काला चश्मा नहीं पहनता। यूं ही अपने बालों को हाथों से सवांरा नहीं जाता। वह करता है क्योंकि उसमें एक स्टाईल झलकता है। वह खूब जानता है देश के जनमानस को कैसे खुद से जोड़ा जाता है।
बेहतर होगा कि हम राजनीति के कलात्मक पक्ष के पार्श्व में जाने से पहले  बात आज के संदर्भ से शुरू करें। पिछले एक साल में सरकार ने कई सारी चीज़ें एक साथ शुरू कर रखी हैं। जिनका सीधा जुड़ाव जनता से है। जिनमें खासकर वे युवा हैं जिन के दम पर यह सरकार सत्ता के दरवाज़े तक पहुंची है। मोदी ने सत्ता सम्हालते ही संवाद की प्रक्रिया अपनाई और उसकी निरंतरता बनाए रखी। जिसपर उन्होंने खुद विशेष ध्यान दिया। सबसे पहले प्रधानमंत्री ने www.mygov.in नाम से एक पोर्टल शुरू किया। जिसपर जनता खुद को प्रधानमंत्री से जुड़ा महसूस कर सके। न सिर्फ इतना बल्कि उस पर युवाओं के लिए अलग-अलग टास्क दिए जाने लगे। फिर वह किसी भी क्षेत्र का क्यों न हो। फिर वह कलाकार हो या इंजीनियर, लेखक हो या समाज सेवक। या फिर शालेय शिक्षा प्राप्त करते छात्र या छात्राएं। सरकार ने अपनी तमाम योजनाओं में उन्हें भागीदार बनाया। फिर किसी योजना का नामकरण हो या उसके लिए स्लोगन या नारा लिखना हो। उस योजना का डिज़ाइन, उसका लोगो भी कलाकारों से आमंत्रित किया जाने लगा। प्रधानमंत्री जन-धन योजना, स्वच्छ भारत मिशन, बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ, पीएमओ मोबाइल ऐप न जाने कितनी तरह की योजनाएं और कितने तरह के टास्क। स्किल इंडिया हो या डिजीटल इंडिया, विश्व योग दिवस की प्लानिंग हो या राष्ट्रीय पर्व पर ई-ग्रीटिंग बनाने की योजना। मैंने स्वयं आज भी कई प्रतियोगिता में भाग लेता हूं। अच्छा लगता है। देश में प्रतिस्पर्धा का माहौल देखकर। वह भी शांति से। बिना सरकारी विज्ञापनों के खर्च के। एक अलग से क्रिएटिव कॉर्नर का इस तरह खुल जाना युवाओं के लिए अपने आप में अभिनव प्रयोग है। खासकर यह देखकर जब योजना के लोकार्पण समारोह पर कलाकार स्वयं प्रधानमंत्री के हाथों सम्मानित होता है।
याद आता है जब पिछली यूपीए सरकार के दौरान रुपए का एक मानक चिन्ह बनाने की प्रतियोगिता आयोजित की गई थी। जिसे भारत सरकार ने 15 जुलाई 2010 को मुद्रा चिन्ह के रूप में स्वीकार किया। जिसे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), मुम्बई के पोस्ट ग्रेजुएट डिजाइन श्री डी. उदय कुमार ने बनाया है।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि आज प्रधानमंत्री के पोर्टल पर 910.23 हज़ार लोग इसके रजिस्टर्ड मेंबरों में है। जबकि अबतक कराई गई 174 बहस में 123.26 हज़ार लोगों ने भाग लिया। वहीं 191 बहसों में 511.08 हज़ार प्रतिभागियों ने अपने कमेंट पोस्ट किए हैं। आप चाहें जो करें। विषय आपको चुनना है। आप चाहे तो किसी विषय पर बहस करें। चाहें तो पोल में भाग लें। ब्लॉगिंग करें या अपनी रुचि अनुसार ग्रुप चुनकर प्रतियोगिता में भाग लें।
संवाद भी एक कला है। प्रधानमंत्री की रविवार सुबह 11 बजे आकाशवाणी से प्रसारित मन की बात सबसे बेहतरीन उद्हारण है। स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले से उतर कर सीधे बच्चों के बीच आना हो या गणतंत्र दिवस पर अपना काफिला रोक राजपथ पर लोगों से मिलना। विदेश यात्राओं में ज्यादा से ज्यादा भारतीयों से मिलना और मैडिसिन स्क्वायर जैसे किसी शो में खुद को रॉक स्टार की तरह प्रदर्शित करना। स्वच्छ भारत अभियान पर झाडू लेकर प्रधानमंत्री का सरे राह निकल पड़ना उनकी कलात्मक सोच का परिचायक है। ऐसी कला जिसमें आम आदमी को जोड़ा जा सके। मोदी के डिज़ाइनर सूट को ही लीजिए। विवाद चाहे जो रहा हो। लेकिन मोदी ने खुद को एक स्टाइल आईकॉन के रूप में स्थापित तो कर ही दिया। जिसके कायल अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी हुए। कला की जीत इसी में है कि वह चर्चा का विषय बने। किसी खास मौके पर अपने ही मोबाईल से सेल्फी लेना भी एक कला है। कामसूत्र और शुक्रनीति में 64 कलाओं में वस्त्र धारण करना और मन जीतने को भी एक कला माना गया है। टालस्टाय के शब्दों में कला अपना जादू तत्‍काल दिखाती है। यहां तक की संवाद के बीच अपनी जेब से सफेद रुमाल निकालकर पसीना पोंछना या हर थोड़े अंतराल के बाद दो घूंट पानी पीना भी एक कलात्मक्ता ही प्रदर्शन है। जिस पर आम जनता पूरी नज़र रखती है।
कहने का अर्थ यह है कि जब-जब भी कला को जन भागीदारी से जोड़ा गया है या जनता ने कला से खुद को जुड़ा महसूस पाया है, तब-तब वह अपनी अमिट छाप छोड़ लौटी है। फिर गांधी का मात्र धोती पहना ही क्यों न हो। गांधी की सफेद टोपी उनका चरखा देश की आजादी को ही प्रतिबिंबित करता रहा है। स्वतंत्रता संग्राम में जिसने एक महत्वपूर्ण रोल अदा किया है। नेहरू की शेरवानी पर लगे गुलाब के फूल ने हर ओर वाहवाही लूटी। सत्तर के दशक तक बच्चा-बच्चा बाल दिवस पर अपनी कमीज़ पर उसे लगा कर जाया करता। जन संपर्क के दौरान स्वर्गीय इंदिरा गांधी का सिर पर पल्लू लेकर निकल पड़ना भी उनकी कलात्मक सोच का ही नमूना था। कहते हैं कि कभी पाक प्रधानमंत्री रही बेनज़ीर भूट्टो ने सिर पर पल्लू लेने की कला श्रीमती इंदिर गांधी से ही सीखी थी। जो आगे चलकर वही दुपट्टा उनकी पहचान बन गया। इतना ही नहीं धारा प्रवाह भाषण के बीच अटजी का एक लम्बा ठहराव(पॉज़) भी जनमानस को उद्वेलित करता था। हो न हो लालू के स्टाइल ने ही लालू यादव को आज इस मुकाम पर पहुंचाया है। केजरीवाल की सादगी भी उन्हें सत्ता तक ले गई।

मोदी इस कलात्मक्ता को खूब समझते थे और आज भी समझ रहे हैं। उनकी लोकप्रियता का राज़ भी उनकी इसी स्टाईल में छुपा है। उनकी संवाद क्षमता में छिपा है। फिर ट्वीटर, फेसबुक पर लोगों से जुड़ें या बाल दिवस पर देश भर के लाखों बच्चों से एक साथ संवाद स्थापित करें। संभव है कि सरकार की लोकप्रियता इसी कलात्मकता का परिणाम हो।
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एक रुका हुआ फैसला

माननीय वित्त मंत्री जी यह आप क्या कह रहे हैं। एंडरसन को छोड़ना आपकी मजबूरी थी। इसके अलावा आपके पास कोई चारा नहीं था। उस वक्त के हालात को देखते हुए उसे वहां से निकालना जरूरी था। अर्जुन सिंह ने सही काम किया। शायद आप नहीं जानते कि आप अर्जुन प्रेम में क्या कह रहे हैं। लगता है उस वक्त आपके कानों तक भोपाल के पीड़ितों की चीखें नहीं पहुंची। या फिर आप एक पत्थर दिल इंसान हैं। शायद इसी वजह से आपको वित्तमंत्री का औदा दिया गया है ताकि जनता महंगाई से कितनी ही कराहती रहे फिर भी उसका आप पर कोई असर न हो। वित्तमंत्री जी आप नहीं जानते आपने कितना घृणित कार्य किया है। जिस हत्यारे को अविलंब मौत की सजा दी जानी चाहिए थी उसे आपने इच्छा म़ृत्यु का वरदान दे दिया है। यदि हालात पर इतना ही रोना था तो कसाब को भी क्यों कैद कर रखा है। उसे भी पाकिस्तान क्यों नहीं भेज देते। उसे भी फरार घोषित कर देते। कम से कम हमारी नजरों में आपकी इज्जत तो बनी रहती कि आप हर मुजरिम के साथ एक सा न्याय करते हैं। फिर वह अपराधी अमेरिकन हो या पाकिस्तानी। लेकिन अफसोस आपने ऐसा नहीं किया। आपने तो उस अपराधी को छोड़ दिया जो हजारों मौतों को जिम्मेवार था। हो सकता है आपको भोपाल की मौतों में मुम्बई जैसा ग्लैमर नज़र नहीं आया हो। 
आज भोपाल गैस का मुख्य अभियुक्त वारेन एंडरसन अमेरिका में चैन की नींद सो रहा है। और उसे इसकी गारंटी आपकी ही सरकार ने दी है । वह भी अच्छी तरह जानता है कि भारत सरकार उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। क्योंकि जिस देश में कानून और व्यवस्था इतनी लचर हो वहां सजा मिलना नामुमकिन तो नहीं लेकिन मुश्किल बहुत है। कहते हैं कि जिनके अपने घर शीशे के होते हैं वे दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेंका करते। वाकई आपके इस बयान से तो यही लगता है। आज से पच्चीस साल पहले एंडरसन के हांथों ४७० मीलियन डॉलर में बिक चुकी आपकी सरकार अब किस मुंह से उसे भारत लाएगी और क्या उस पर मुकदमा चलाएगी। जिस देश की सरकार खुद मुजरिमों को अपने देश से बाहर जाने का रास्ता बताती हो और फिर वह उसे भगोड़ा कहे तो कौन उस पर यकीन करेगा। गैस पीड़ितों के साथ यह हादसा उस भयंकर गैस त्रासदी से कहीं बढ़कर है। न खुदा मिला न मिसाले सनम, न इधर के रहे न उधर के। आज पच्चीस साल बाद भी भोपाल को मिला है तो बस धोका, धोका और सिर्फ धोका। वारेन एंडरसन के जिंदा भारत से निकल जाने का दंश हमेशा गैस पीड़ितों को सालता रहेगा।
हाल ही में भोपाल की स्थानीय अदालत ने भोपाल गैसकांडके सभी आठों आरोपियों को दोषी करार दिया। अदालत ने आठ में से सात आरोपियों को दो-दो साल की सजा सुनाई और एक-एक लाख रुपए का जुर्माना लगाया है, जबकि आठवें आरोपी यूनियन कार्बाइड कंपनी पर पांच लाख का जुर्माना लगाया गया है। जिसकी मीडिया और तमाम लोगों ने घोर आलोचना की। इसकी जरूरत क्या थी। क्या मीडिया नहीं जानता की कानून अंधा होता है। वह सिर्फ और सिर्फ सबूतों पर फैसला देता है। अब यदि सीबीआई दफा ३०४ की जगह ३०४(ए) में मामला दर्ज करती है तो इसमें अदालत की क्या गलती। अदालत ने तो वही सजा सुनाई जो उस धारा के अंतर्गत होती है। जिसकी जिम्मेवार सीबीआई और तत्कालीन कांग्रेस सरकार है। फिर अदालत को दोष देने और उसकी आलोचना करने का क्या मतलब। उनके बारे में कोई सवाल क्यों नहीं उठाता जो अपनी सफेद कॉलर ऊपर किये आज भी खुले आम घूम रहे हैं। राजस्थान का शिक्षा मंत्री एक अपशब्द बोलता है तो देश का मीड़िया दिन भर नाक में दम कर देता है। लेकिन देश का वित्तमंत्री एंडरसन को छोड़े जाने को सही ठहराता है और मीडिया कुछ भी नहीं कहता। शर्म की बात है।  
अर्जुन सिंह तो अभी भी चुप्पी साधे हुए हैं। पता नहीं उम्र की लाचारी उन्हें कुछ कहने से रोक रही है या अपने किये का पछतावा हो रहा है। मीडिया में चल रही अर्जुनसिंह और राजीव गांधी की फुटेज हर कोई देख रहा है। साफ दिख रहा है कि अर्जुनसिंह किस तरह से अपनी बात राजीव गांधी से बुलवाना चाह रहे हैं। उस समय तत्कालीन मुख्यमंत्री ने भरी मीडिया से कहा था हमारा उद्देश्य एंडरसन को तंग करना नहीं है। इतना ही नहीं सरकार ने 7 दिसंबर 1984 को एक वक्तव्य जारी कर कहा कि हमने एंडरसन को रचनात्मक उत्तरदायित्व के लिए गिरफ्तार किया।आखिर एंडरसन के साथ इतनी दरियादिली क्यों। साफ जाहिर है कि अर्जुन सिंह की रूचि यूनियन कार्बाईड से मोटा मुआवजा वसूल करने में थी एंडरसन को गिरफ्तार करने में नहीं। मीडिया में आ रही लगातार खबरों से तो अब सारा देश जान चुका है कि एंडरसन को किस षड्यंत्र के साथ भोपाल से बाहर भेजा गया। प्रमुख विपक्षी दल यह आरोप भी लगा रहे हैं कि यूनियन कार्बाइड के प्रमुख को बिना ऊपर से मंजूरी मिले बाहर नहीं भेजा जा सकता था। और उस समय शीर्ष पद पर राजीव गांधी थे जो तब प्रधानमंत्री थे और उस समय विदेश मंत्रालय भी उन्हीं के पास था। कांग्रेस राजीव गांधी की छवि बचाने में भले ही लगी हो लेकिन एक बात समझ नहीं आती की यदि इन बातों में कोई सच्चाई नहीं है तो वारेन एंडरसन को विशेष विमान से दिल्ली ही क्यों भेजा गया, मुंबई क्यों नहीं। जबकि अमरिका के लिए सबसे ज्यादा उड़ानें मुंबई से ही थीं। सच अभी लोगों के सामने आना बाकि है।
अचानक एंडरसन को चुरहट चिल्ड्रंस वेवफेयर सोसायटी की याद क्यों आ गई। क्यों उसे एक मोटी रकम बतौर डोनेशन दिया गया। लेकिन यह बात केवल भोपाल जानता है कि युनियन कार्बाईड फैक्ट्री से रात 8 बजे से ही गैस का रिसाव शुरू हो गया था। इसकी जानकारी अर्जुन सिंह और उनके मंत्रीमंडल के कई वरिष्ठ मंत्रियों को थी। लेकिन आज सारा देश यह जानना चाहता है कि हादसे के चंद घंटे पहले से अर्जुन सिंह सपिरवार भोपाल छोड़कर अपने कैरवा डैम स्थित बंगले में क्यों भाग गए। इस आशय की खबर भोपाल से प्रकाशित दैनिक स्वदेश में पहले पेज पर गाड़ी नंबर के साथ छापी गई थी। मगर अर्जुन सिंह चुप हैं।
आज हर कोई भोपाल के नाम पर राजनीति चमकाने में लगा है। किसी को भी उस हादसे से कुछ लेना देना नहीं है। विधि मंत्री आश्वासन पर आश्वासन बांटे जा रहे है। कह रहे हैं कि औद्योगिक अपराध के लिए जल्द ही नया कानून लाएंगे ताकि भविष्य में इस तरह के हादसों में सजा दिलवाई जा सके। प्रधानमंत्री ने मंत्रियों की एक कमिटी गठित कर दी है। एंडरसन के प्रत्यर्पण की बात कह कर नए बुलबुले बनाए जा रहे हैं। सभी रिटायर्ड अधिकारी अपने बिलों से बाहर निकलकर धड़ाधड़ बयान दे रहे हैं। भाजपा विरोध में जुटी है। वह इस मुद्दे पर कांग्रेस को घेरना चाहती है मगर खुद यह जवाब देने में अक्षम है कि इतने सालों तक उसने कोई कारगर कदम क्यों नहीं उठाए। समाजसेवी संस्थाएं महज दो चार दिन ही क्यों बैनर और पोस्टर लेकर नज़र आती हैं। कोई भी यह जानने को तैयार नहीं कि क्या वाकई भोपाल के गैस पीड़ितों को अब भी कोई तकलीफ है या नहीं। गैस पीड़ितों के लिए बनाए गए अस्पतालों में ठीक से कामकाज हो भी रहा है या नहीं। उन्हें वे सारी सुविधाएं मिल पा रही है या नहीं जिस पर तब से लेकर अब तक ढेर सारा पैसा खर्च किया गया है। किसी ने अभी तक आरटीआई में यह प्रशन क्यों नहीं उठाया कि अभी सरकार के ख़जाने में पाड़ितों का कितना मुआवजा पड़ा है। इतने सालों में उसका ब्याज कितना हो गया। उसे कहीं इस्तेमाल किया जा रहा है या जमा हो रहा है। उसे पाड़ितों को अब तक क्यों नहीं बांटा गया। इसके लिए कौन-कौन जिम्मेवार है। मेनका गांधी चुप क्यों हैं। उन्होंने हादसे में मारे गए हजारों मवेशियों के हर्जाने की मांग सरकार से की या नहीं। जिसे भविष्य में पशुओं के बेहतर संरक्षण पर खर्च किया जा सके। पर्यावरण को लेकर बेहद संजीदा मंत्री जयराम रमेश ने हादसे के बाद हुए पर्यावरण के नुकसान को लेकर अभी तक एंडरसन से मुआवजे की मांग क्यों नहीं की।
बात सिर्फ इतनी भर नहीं है। आज पच्चीस साल हो गए उस गैस त्रासदी को। इन पच्चीस सालों में देश कितना बदल गया। भोपाल भी बदल गया। वो गैस पीड़ित भी बदल गए। अब अदालत के बाहर रोने वाले अधिकांश गैस पीड़ितों में वे लोग हैं जिन्होंने गैस सूंघी तक नहीं। ये वे लोग हैं जो सरकार द्वारा पूरा भोपाल गैस पीड़ित घोषित किये जाने की वजह से गैस पीड़ित बने हैं। दरअसल हादसे की रात यूनियन कार्बाईड से महज कुछ किलोमीटर तक ही गैस का प्रभाव रहा। जिसमें अधिकांश हिस्सा पुराने भोपाल का ही आता था। इन नए भोपाल के लोगों ने तो 3 दिसंबर की सुबह अखबार के पन्नों पर गैस रिसाव की खबर पढ़ी थी। इनके इलाके तक तो गैस पहुंची भी नहीं। हां मगर सुबह गैस प्रभावित लोग इनके फुटपाथों पर रेंगते हुए जरूर पहुंचे गए। हादसे के असली पीड़ित तो ऐसी अवस्था में हैं जो अदालत तो क्या घर की चौखट से बाहर भी नहीं जा सकते। मुआवजा मांगने में अब यही लोग सबसे आगे हैं। जिनका न्याय से कोई वास्ता नहीं। वे केवल इसलिए शोर मचाते हैं क्योंकि उन्हें मुआवजा चाहिए। अब इन तथाकथित गैस पीड़ितों की तादात इतनी है कि इनके खिलाफ कोई कुछ नहीं बोल सकता। नेता इसलिए इनके साथ हैं क्योंकि इन्हें इसी क्षेत्र से अपनी राजनीति करनी है। अखबार का संपादक इसलिए इनके पक्ष में संपादकीय लिखता है क्योंकि ऐसा न करने से उनके अखबार का सर्कुलेशन डूब सकता है। इसलिए ही इन्हीं के इमोशन को लिखा जाता है और बेचा जाता है। संपादक अपनी मर्यादा भूलकर न्यान की आलोचना करता है और उसे गलत साबित करता है। जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड। वह ऐसे सुवचन लिखने से भी गुरेज नहीं करता। देर से मिला न्याय, न्याय नहीं होता। जबकि उसे मालूम है कि न्यायालय का फैसला पूरी तरह सही है। सभी आरोपियों को मौत की सजा मिलनें पर भी ये उसे न्याय नहीं कहेंगे। यह फैसला तब तक एक रुका हुआ फैसला ही कहा जाएगा जब तक इन गैस पीड़ितों को भरपूर मुआवजा नहीं मिल जाता। जिसकी कोई सीमा नहीं है। आप कितना भी मुआवजा दें ये कभी भी संतुष्ट होने वाले नहीं। ये भोपाल के भस्मासुर हैं जिन्होंने पूरी दुनिया के सामने भोपाल को भिखमंगा बना दिया है। 
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भोपाल गैल कांड

हादसा जो भूलता नहीं

कैसे भूल सकता हूं उस काली रात को। उस विभिषिका को। चाहकर भी नहीं भूल सकता। वह दिन, वह महीना, वह साल। इसके बाद ही तो भोपाल विश्व मानचित्र पर आया था। लोग ठीक से भोपाल को जानने लगे थे। जानने लगे थे कि यह झीलों का शहर है। वरना पहले सिवाय मध्यप्रदेश की राजधानी के इसकी कोई पहचान न थी। न यहां किसी को यूनियन कार्बाइड के बारे में पता था और न ही उस जहरीली गैस के बारे में। मालूम होगा तो उन सरकारी अफसरों को जो इससे जुड़े कामकाज देखते होंगे या शायद उन्हें भी नहीं। सच पूछिए तो पहले भोपाल में केवल तीन चीज़ें ही फेमस थीं। जर्दा, पर्दा और नामर्दा। लेकिन उस काली रात के बाद यहां की एक और चीज़ प्रसिद्ध हुई, जिसे यूनियन कार्बाइड कहा जाता है।      
दिसंबर का महीना आने को है। आज एक बार फिर दिल कांप रहा है। फिर वही गैसकांड की बातें होंगी। वही खबरें, वही चर्चा। फिर वही यूनियन कार्बाइड, एंडरसन और गैस पीड़ितों के नाम लिए जाएंगे। मैं भयाक्रंत हूं ऐसे शब्दों से। क्योंकि यह शब्द सुनते ही मेरे कानों में दर्द होने लगता है। लोगों के चीखों की अनुगूंज आज भी मेरे ह्रद्य, मेरे मन-मस्तिष्क को झकझोर देती है। मैं सहज नहीं रह पाता जब वह काली रात मुझे याद आती है। मैं आज भी गैस कांड से जुड़ी ख़बरें नहीं पढ़ता। खबरों का एक-एक काला अक्षर मुझे मृतकों की लम्बी कतारों सा लगता है।
मैं कैसे भूल सकता हूं वह दिसंबर की रात। जो मैंने पूरे मोहल्ले के साथ गुज़ारी थी। उसी रात मैंने भोपाल रेलवे स्टेशन का एक अलग ही रूप देखा था। स्टेशन नहीं, सैकड़ों मुसाफिरों की कब्रगाह थी वह। न किसी को ट्रेन से उतरना था और न ही किसी को चढ़ना। क्योंकि ट्रेन खुद सो चुकि थी। पहली बार मौत की वह विरल खामोशी मैंने महसूस की थी। सन्नाटे की आवाज सुनी थी। कैसे भूल सकता हूं वह साल, जब मुझे वार्षिक परीक्षा में जर्नल प्रमोशन मिला था। नहीं भूल सकता क्योंकि उसी भंयकर त्रासदी के कुछ महीनों बाद मैंने अपनी छोटी बहन को हमेशा-हमेशा के लिए खो दिया था। नहीं भूल सकता, कभी नहीं भूल सकता।
एक बार फिर 2-3 दिसंबर की रात आने को है। वही मंजर मेरी आंखो के सामने फिर घूम रहा है। वही रात, जिस वक्त ये हादसा हुआ था। मैं आज भी सुबह सबसे पहले भगवान का शुक्रिया अदा करता हूं कि उसने मुझे लड़ने की शक्ति दी। मुझे व मेरे परिवार को उस भयंकर त्रासदी में जीवित रक्खा। अपने धैर्यवान पिता को भी धन्यवाद कहना नहीं भूलता, जिनकी अटूट इच्छाशक्ति और साहस ने न सिर्फ हमारे परिवार बल्कि ईस्ट रेलवे कॉलोनी के अनेक परिवारों को सुरक्षित रक्खा। पिता इसे ही कहते हैं। शायद, वह होता ही इसलिए है कि विषम समय में अपने परिवार की रक्षा कर सके। मां लाख शिकायतें करती रहीं लेकिन पिता ने अपना धैर्य नहीं खोया। आख़िरी दम तक सबसे कहते रहे, घबराओ मत, एक जगह बैठ जाओ, भागो मत, थोड़ी देर कम सांसों से ही काम चलाओ। हो सके तो मुंह से हवा बाहर फेंको। सबकुछ ठीक हो जाएगा। पिता को भी आंखों में जलन और सांस लेने तकलीफ हो रही थी। बावजूद इसके वह भागे नहीं। सबको संगठित करते रहे। उस समय तो ऐसा लग रहा था कि मेरे पिता के दो नहीं, सैकड़ों बच्चे हों। मेरे बचपन का हीरो तब मुझे सुपर हीरो नज़र आ रहा था।
2 दिसंबर की रात हमारा परिवार तकरीबन रात 10 बजे सो चुका था। जाड़े के दिन थे। रजाई में घुसने की हर किसी को जल्दी थी। घड़ी की सुइंया आहिस्ता-आहिस्ता उस भयंकर त्रासदी की ओर बढ़ रही थी। रात को तकरीबन एक बजा होगा। अचानक आंखों में जलन और जोरदार खांसी शुरू हुई। मैंने सर से रजाई हटाई तो जलन और बढ़ गई। दूसरे कमरे में मेरी मां, पिता और मेरी छोटी बहन थे। वहां भी यही हालात थे। तभी पिता ने गैस सिलेंडर चेक किया तो मां पिछली बालकनी की ओर भागी। यह देखने के लिए कि पीछे मैदान में चल रही शादी में सब कुछ ठीक तो है। कहीं कोई शामियाने में मिर्च फेंक कर लूटपाट तो नहीं कर रहा। लेकिन वहां पसरा सन्नाटा कुछ और ही कहानी बयां कर रहा था। शामियाना खाली पड़ा था। वहां कोई नहीं था। सारे मेहमान-बाराती भाग चुके थे। शामियाना अकेला खड़ा था। बारात लौटने से क्षुब्ध दुल्हन की तरह। अपने नसीब को कोसता हुआ। मां दौड़कर वापस अंदर की ओर भागी। तभी मैंने अपने छोटी बहन के चीखने की आवाज सुनी। मैं भी उस ओर भागा। पिता भी रसोई से बेडरूम में आ गए।
ईस्ट रेलवे कॉलोनी के आख़िरी छोर पर लगभग सभी इमारतें चार मंज़िलां ही थी। हम भी उन्हीं मे से टाईप-3 क्वार्टर में रहा करते थे। चौथी मंजिल का हमारा मकान यूं समझिए कि बस दूसरा हवा महल था। शुद्ध ताज़ी हवा दिनभर घर मे दौड़ती थी। न जाने कितनी बार दरवाज़े इन्हीं बदमाश हवाओं के कारण बजा करते थे। लेकिन आज इन हवाओं को न जानें किसकी नज़र लगी जो इतनी ज़हरीली हो गई।
गैस पूरी तरह से घर में फैल चुकी थी। पीड़ा असहनीय होती जा रही थी। तभी मोहल्ले की बिजली भी हमारा साथ छोड़ गई। मां रह-रह कर भगवान को पुकारने लगी। हम पिता से सटकर अपना टूटता साहस जोड़ने की कोशिश में थे। कभी मां हमसे लिपटी तो कभी हम मां से। जैसे ही जलन जोर मारती मां हमें अपने सीने से लगा लेती। तभी एकाएक मेरी बहन को एक ज़ोरदार उलटी हुई। और सारा बिछौना खराब हो गया। यह देखते ही पिता ने दरवाजा खोला तो मां चिल्ला पड़ी, क्या करते हो। बंद करो दरवाजा। देखते नहीं कितनी तकलीफ हो रही है।
मैं वापस अपने कमरे की ओर दौड़ा। पलंग पर रखी अपनी रजाई चारों ओर से लपेट ली। लेकिन फिर भी रहा न गया। अतः वापस उसी कमरे में आ गया। मां–पिता की लाचारी साफ नज़र आ रही थी। वे बार-बार बहन की आंखें पोंछ रहे थे। लेकिन जलन थी कि थमने का नाम नहीं ले रही थी। दम घुटने लगा। सांस फूलने लगी। हम दोनों मां-मां चिल्लाने लगे। तभी पिता ने पास रखा टॉर्च जलाया और ढाढ़स बंधाने लगे। एकाएक मां ने हम सबको अपने पास खींच लिया और बोली, अब जो होना होगा, होगा। मरना ही है तो एक साथ मरेंगे
एक मां का दिल भी क्या होता है। जो हरदम अपने बच्चों के साथ जीना चाहती है और मरने के वक्त भी वह बच्चों के साथ ही मरना चाहती है। श्रीराम कहो, श्रीराम कहो.. मां का जाप निरंतर जारी था। हालात बेकाबू हो रहे थे। आखिर पिता ने हम सबको घर के बाहर निकल कर नीचे सड़क पर चलने को कहा।
जैसे-तैसे अंधेरे में घर का दरवाजा खोला गया। दरवाजा खुलते ही सामने के घर से भी रोने-बिलखने की आवाजें सुनाई देने लगी। वहां भी यही हालात थे। अंकल बरांदे में पड़े थे और अंटी सीढ़ियों पर विक्षिप्त अवस्था में दीवार नोच रही थी जबकि उनके दोनों बच्चे बाथरूम में बैठे-बैठे रो रहे थे। हर ओर उल्टी, पेशाब और मल बिखरा पड़ा था। समझ से परे था कि यह हो क्या रहा है? नीचली मंजिलों से आता शोर मन को और भयभीत कर रहा था। सारे मोहल्ले में चीख-पुकार मची थी। चार मंजिल उतरते-उतरते हालत खराब हो चुकी थी। तभी पिता ने हमारे मुंह पर कस कर तौलिया बांधा और पड़ोसियों को बाहर निकालने में जुट गए। शायद इस समय रात के दो बजे होंगे। आश्चर्य की बात थी कि आज ट्रेनों की आवाजें नहीं आ रही थी। वरना ऐसा कभी हुआ नहीं कि कोई ट्रेन गुजरे और हमें पता न चले। घर भोपाल स्टेशन से बिल्कुल नजदीक था। पटरी के इस ओर हमारी कॉलोनी थी। जिसे ईस्ट रेलवे कॉलोनी कहा जाता था। खजांची का बाग इसका एक नाम और भी था। पटरी के उस ओर वेस्ट रेलवे कॉलोनी और उसी से कुछ किमी आगे यूनियन कार्बाइड थी। महज तीन-चार किलोमीटर का फासला था हमारे और उस डायन फैक्ट्री (यूनियन कार्बाइड़) के बीच।
सच कहूं तो इससे पहले हमने उस ओर कभी देखा ही नहीं। पता भी नहीं था कि वह कौन सी फैक्ट्री है। वहां क्या काम होता है। मालूम होता कि यह एक अमेरिकन फैक्ट्री है तो शायद हम घर पर आने वाले मेहमानों को उसे दिखलाते। हरदम इठलाते कि हमारे भोपाल में एक अमेरिकन फैक्ट्री भी है।
वक्त गुजरता गया। मुझे भी कुछ आराम महसूस हुआ। पिता अब भी सबको निकालने में जुटे थे। हर ब्लॉक से यही नज़ारा देखने को मिल रहा था। देखते ही देखते कॉलोनी के सारे परिवार सड़क पर जमा होने लगे थे। मामला अब ज्यादा पेचीदा हो गया था। सभी असंयमित हो रहे थे। किसी ने कहा, चलो, यहां से भागो। तो कोई कहता नहीं बड़े तालाब चलो। मगर मेरे पिता इन बातों से सहमत न थे। वे सबसे कह रहे थे कि भागो मत, अपने आप पर विश्वास रखो। भागने से तकलीफ और बढ़ेगी। मरना ही लिखा है तो कहीं भी मरोगे, फिर यहां क्यों नहीं?”
इसके बाद तो जैसे सब मेरे पिता के दुश्मन बन गए। जोशीजी! आपको तकलीफ नहीं हो रही इसलिए आप ऐसा कह रहे हो। लेकिन हमें अब सहन नहीं हो रहा। हम तो बस अब मरने ही वाले हैं। लेकिन दूसरे ही पल जब वे मेरे पिता की भी लाल सुर्ख आंखें देखते तो चुप हो जाते। आंखों में असहनीय जलन और सूजन थी। किसी को शरीर पर खुजली तो किसी को नाक से खून भी निकलने लगा था। हालात वाकई भयावह थे। कौन कब चल बसे कहा नहीं जा सकता था। मोहल्ले के वे लोग जो कभी एक दूसरे की आंखों में प्रेम देखा करते थे वे आज उनमें मौत देख रहे थे। वह भी ऐसी दर्दनाक मौत जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। शायद मौत भी हरदम ऐसे ही वक्त की तलाश में होती है। यह वही लम्हें थे जिन्हें याद कर आज भी मैं अपने आप को जिंदा महसूस करता हूं। मौत न तो धर्म देखती है और न जात-पात। वह न तो अमीर देखती है और न ही गरीब। न बड़ा, न छोटा। अपनी मर्जी की मालिक होती है मौत। कब किसे अपने पास बुला ले किसे पता।
अब तक कॉलोनी में कई लोग इसी मौत का आवेदन स्वीकार कर चुके थे। हालात ऐसे थे कि बेटे को बाप की लाश पर सिर रखने की हिम्मत न थी और न ही फुर्सत। वह अपने ही कष्टों में व्यस्त था। तकरीबन घण्टे-दो घण्टे बाद कुछ राहत महसूस हुई। पता नहीं कोई पुरवाई चली हो, जो डायन गैस का हाथ पकड़कर उसे अपने साथ ले गई। यह कहकर कि बस बहुत हो चुका तेरा नंगा नाच। अब तो उन्हें चैन से जीने दे। हलांकि बाद में विशलेषणों से मालूम हुआ कि गैस भारी थी इसलिए वह नीचे जम गई। कारण जो भी रहा हो कुछ घण्टों बाद राहत मिली जरूर।   
यूनियन कार्बाइड से सटे इलाकों में मामला और भी गंभीर था। वहां मिथाइलआइसोसाइनाइट से मरने वालों की तादाद कहीं ज्यादा थी। मौत की गति ऐसी की इबोला भी हार मान लें। लोग पागलों की तरह भाग रहे थे। मानों सड़कों पर मैराथन चल रही हो। हजारों की तादाद में लोग भाग जा रहे थे। जिसे जो वाहन मिलता वह उस पर लटक जाता। गिरने वाले को उठाने की फुर्सत किसी को न थी। किसी को यह भी होश नहीं था कि वह कैसे भाग रहा है। तन पर कपड़ा है भी या नहीं। होश होता भी कैसे आज प्रतिस्पर्धा मौत से थी। जब मौत पीछे पड़ी हो तो तन का कपड़ा कौन देखता है। कुछ लोग, उस रात जो सोए तो सदा के लिए सो गए। वे कभी उठे ही नहीं। कुछ ऐसे भी बिरले निकले जिन्हें रात कैसे बीती उन्हें कुछ पता नहीं।
उस रात भोपाल दो भागों में बट चुका था। जहां पुराना भोपाल अपने वर्तमान से जूझ रहा था तो वहीं नए भोपाल के लोग रजाइयों में दुबके अपने भविष्य के सपने बुन रहे थे। उन्होंने तो सुबह चाय की चुस्कियों के साथ गैस रिसाव की ख़बर पढ़ी। लेकिन दिन चढ़ते उन्हें यह एहसास भी हो गया कि बीती रात आधे भोपाल ने कैसे गुजारी।
सर्दियों के दिन मगर वातावरण में गैस की उपस्थिति से गर्मी आ गई थी। लोग सड़क पर बेसुध पड़े थे। तभी, दूर से भागकर आते कुछ लोगों ने बताया कि उस फैक्ट्री से अब भी जहरीली गैस रिस रही है। भागो वरना सब मारे जाओगे।सुनकर कुछ भगदड़ मची जरूर लेकिन मेरे पिता टस से मस न हुए। यह देख अधिकांश लोग मेरे पिता के साथ ही खड़े रहे। अतः जल्द ही सबकुछ शांत हो गया। अब हमारे इलाके में गैस का प्रभाव कम हो चुका था।
सुबह के चार बजे थे। तभी पड़ोस के एक भाईसाहब मुझसे बोले, चलो तुम्हें घूमा लाते हैं। स्टेशन तक देख आते हैं। क्या हालात हैं। वे उम्र में मुझसे काफी बड़े थे। लेकिन वक्त के तकाज़ा था कि उन्हें उस रात सिवाय मेरे कोई न मिला। हम यहां वहां टहलते स्टेशन पर पहुंचे। सारा स्टेशन रोज़ की ही तरह रौशनी से जगमगा रहा था। लेकिन आज न चहल-पहल थी और न वैसा शोर। कुछ लोगों के कराहने की आवाजें जरूर वहां तक सुनाई दे रही थी। स्टेशन पर पहुंचे तो एक पल भी खड़ा न रहा गया। इतना भयानक दृश्य मैंने आज तक कभी नहीं देखा था। चारों तरफ लाशें ही लाशें। ट्रेन के डिब्बों में तक लोग लेटे पड़े थे। भोपाल का प्लेटफार्म नम्बर एक तो जैसे गहरी नींद में था। वह दृश्य देख हम उस रात किस गति से वापस घर लौटे मुझे याद नहीं।
सुबह हो चुकि थी। लेकिन वह सुबह वैसी नहीं थी जैसे हर रोज हुआ करती थी। पौ फटी जरूर मगर चिड़ियों का चहचहाना न हुआ। मुर्गे ने बांग नहीं दी। सुबह दूध वाले की आवाज नहीं आई। साईकल पर अख़बार बाटने वाले नज़र नहीं आए। बल्कि हर तरफ से चिल्लाने और रोने की आवाजें आ रही थी। मानों आज मोहल्ले में किसी ने रुदालियों को न्यौता दिया हो। सुबह जिनके हाथों में हमेशा चाय का कप हुआ करता था आज वो दवा की शीशी थामें थे। फिर भी हमारे कॉलोनी में उतनी मौतें नहीं हुई जितनी वेस्ट रेलवे कॉलोनी और यूनियन कार्बाइड से सटे इलाकों में हुईं।
रात भर जागने की वजह से मेरी नींद सुबह कुछ देर से खुली। उठा तो देखा पिता घर पर नहीं थे। मां ब्लॉक की सीढ़ियां धो रही थी। पूछने पर मां ने कहा कि पिता तो सुबह से ही पीछे के रेलवे अस्पताल में गए हैं। मैं दौड़कर अस्पताल गया तो देखा वे डिस्पेंसरी में खड़े हो कर दवाइयां बांट रहे थे। यह देखकर पिता के लिए सम्मान और बढ़ गया। अस्पताल में लोगों का हूजूम उमड़ पड़ा था। लोग जरूरत से ज्यादा दवाइयां ले रहे थे। इस डर से कि कहीं फिर मिले न मिले। तकरीबन बारह बजे डॉक्टरों की एक टीम सफेद एम्बेसेडर कार में हमारी कॉलोनी में पहुंची। लोग टूट पड़े। बूढ़ी औरते उन्हें दुवाएं देने लगी। तुम तो देवता लोग हो। कुछ पल ही बीते थे कि कहीं से अफवाह उड़ी कि फिर से गैस रिसाव शुरू हो गया है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि यह बात लोगों के कानों तक पहुंचती इससे पहले ही सारे डॉक्टर वहां से भाग चुके थे। ऐसे कमाल के थे वे देवतागण।
सड़कों पर कई मवेशी मरे पड़े थे। गाय-भैंसे तो फूल कर दुगनी-चौगुनी हो गई थीं। दिन रात गलियों में भौंकने वाले कुत्ते नालियों में पड़े थे। पेड़ों के नीचे पंछी तड़प रहे थे। इससे पहले कभी उनका ऐसा भयावह रूप नहीं देखा था। मुंह से सफेद झाग और पूरे बदन से बदबू आ रही थी। दिन बीता, रात बीती। कई दिन तक मवेशियों को इक्टठा करने का काम चलता रहा। शहर में भी हाहाकार मच गया। कइयों के घर खुले पड़े थे तो कई बिना दरवाजा खोले ही अल्लाह को प्यारे हो चुके थे। इतनी लाशें कि भोपाल का श्मशान घाट भी छोटा पड़ गया। सैकड़ों की तादाद में लाशें ट्रकों से मैदानों पर लायी जा रही थी। एक के ऊपर एक उन्हें रखा जाता और फिर ऊपर से ढ़ेर सारा मिट्टी का तेल, पेट्रोल डाल उनमें आग लगा दी जाती। जहां रोज़ सैकड़ों चिताएं जल रही थी वहीं हजारों लोग अब भी अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे। दिन गुजरते गए। मृतकों की संख्या बढ़ती गई। तकरीबन दस हजार मौतें सप्ताह भर में हो चुकीं थी।

आज इस बात का अफसोस है कि विश्व इतिहास में भोपाल का नाम भी हिरोशिमा और नागासाकी की तरह जुड़ गया। काश दुनिया भोपाल को किसी और वजह से याद रख पाती। कम से कम हमें दुनिया के सामने हमें दया का पात्र तो नहीं बनना पड़ता। यह कहकर कि मैं भोपाल से हूं। एक गैस पीड़ित हूं।
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भाजपा से गठबंधन मतलब फायदे का सौदा

बिहार चुनाव परिणाम सामने हैं। हाल ही में भाजपा-जदयू गठबंधन ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में भारी भरकम जीत दर्ज की है। परिणामों से साफ हो गया कि भाजपा सबसे ज्यादा फायदे में रही। लगभग दुगना फायदा भाजपा को मिला। कहा जा सकता है कि यह उसकी गठबंधन में बेहतर भूमिका का ही ईनाम है। इन परिणामों से भाजपा के दामन से सांप्रदायिकता का दाग कुछ हद तक धुला है तो वहीं उसकी विश्वसनीयता भी बढ़ी है, जो भाजपा के लिए जरूरी भी था। कह सकते हैं कि अब जनता भाजपा के मुंह से विकास की बातें सुनना चाहती है। खासतौर पर गुजरात, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकारों के कामकाज के बाद अब वह बिहार का भी उदाहरण दे सकती है।
मई 2009 को तहलका में प्रकाशित एक आलेख में वरिष्ठ पत्रकार स्व. प्रभाष जोशी ने लिखा था कि- हर चुनाव नतीजा अंधों का हाथी होता है। और हर अंधा उसके विशाल शरीर का एक अंग पकड़ कर बताता है कि हाथी कैसा है। जैसा कि कहानी में होता है कोई अंधा बता नहीं पाता कि समूचा हाथी वास्तव में है कैसा। चुनाव नतीजे का मतलब बताने वाले पंडित भी दरअसल हाथी के अंधे हैं। वे कोशिश करके और सब मिल कर समूचे हाथी को जब तक बता पाते हैं तब तक दूसरा चुनाव और दूसरा नतीजा आ जाता है। इसलिए हर नतीजा अंधों के हाथी की तरह अधूरा ही व्याख्यायित हो पाता है और वैसा ही होने के लिए अभिशप्त है।
अब श्रीमान लालू प्रसाद यादव को ही लीजिए। हाल ही आए बिहार विधानसभा चुनाव के परिणामों को वे रहस्य करार दे रहे हैं। शायद वे भी हाथी के अंधे बने रहना चाहते हैं जो जनादेश को नहीं समझना चाहते। जानकर भी अपने मद में अंजान बने हुए हैं। वे नहीं समझना चाहते की अब जनता क्या चाहती है। बिहार के चुनावों ने स्पष्ट कर दिया है कि अब लोगों को जाति से ज्यादा विकास की बातें लुभाती हैं। पासवान का भी यही हाल है। जहां तक कांग्रेस की बात है वह तो शून्य पर पहुंच चुकी है। बिहार चुनाव परिणामों के बाद अब जरूरत है नतीजे के तौर पर आए हाथी को सही आंखों से देखने की ताकि अब जब कभी, जहां भी चुनाव हो तो एक ऐसा ही मजबूत हाथी जनता को मिल सके। जो लोकतंत्र के लिए भी बेहद जरूरी है।
आज अखबार और टीवी चैनलों पर भले ही बिहार में नीतीश की वापसी को प्रमुखता मिल रही हो। और हर तरफ लोग विकास को लेकर बात कर रहे हो तो भी पांच साल के सुशासन में गठबंधन के महत्व को नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता। आज बिहार में जिस विकास की चर्चा है उसमें भाजपा के खाते में रहे प्रमुख मंत्रालयों का ही योगदान है। जिससे भाजपा के मंत्रियों की कर्मठता भी दिखाई देती है। बिहार चुनाव के पूरे घटनाक्रम में भाजपा ने कभी भी अपने को नीतीश से अलग पेश नहीं किया। और न ही कभी यह आभास होने दिया कि वह 'विकास' रूपी रथ के साथ नहीं है।
आज गठबंधन का दौर है और सरकारों की कामयाबी उनके गठबंधनों पर भी निर्भर करती है। क्योंकि एक अच्छा गठबंधन पार्टियों के आधार व इसकी इमेज में गुणात्मक विकास करता है। साथ ही साथ उन पार्टियों को परिपक्व भी बनाता है। जो गठबंधन धर्म का शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करती हैं। साफ कहें तो साथियों के साथ अच्छे-बुरे समय में वफादारी। बिहार में भाजपा-जदयू गठबंधन की जीत इस बात की पुष्टि करती है कि एक मजबूत गठबंधन किसी भी राज्य या सरकार की सेहत में कितना सुधार ला सकता है। यह एक ऐसी रामबाण दवा है जो वर्तमान राजनीति के लिए बेहद जरूरी है।
यूं तो राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं। जब जिसको जैसा मौका मिला उसने गठबंधन को दरकिनार किया है। फिर एनडीए के घटक दल हों या यूपीए के। देश में गठबंधन की कोशिशें आज की नहीं है। पिछले 40-42 सालों से केन्द्र और राज्य में गठबंधन की कोशिशें की जाती रही हैं। इन सालों में गठबंधन बने भी और बिगड़े भी। और बिगड़ कर फिर बने भी। जिसमें आपसी खींचतान की वजह से कुछ सरकारें गिरीं तो कुछ परिपक्व और सूझबूझ भरी नेत़त्व क्षमता की वजह से टिकीं भी रही। शायद यह बात कुछ लोगों को नागवार गुजरे कि तमाम राजनैतिक दलों में भाजपा का नेतृत्व सबसे ज्यादा परिपक्व नज़र आता है। यदि हम पिछले 20 सालों के इतिहास पर भी नज़र डाले तो कई ऐसी बातें हैं जिनसे यह साफ होता है कि गठबंधन करने के लिए भाजपा सबसे बेहतर पार्टी है।
आज भले ही कांग्रेस मनमोहन सिंह को अपना सर्वमान्य नेता बताकर यूपीए गठबंधन में अपनी इमेज बना रही हो। लेकिन हकीकत यह है कि यूपीए में अधिकतर दल कांग्रेस से ही टूट कर बने हैं। जबकि एनडीए में सारे दल अलग-अलग विचारधारा वाले हैं। आज मनमोहन सिंह मजबूरी के नेता हैं जबकि अटल बिहारी वाजपेयी लोकप्रिय और सर्वमान्य नेता थे। कांग्रेस या अन्य दल भले ही आडवाणी को कट्टर कहकर बदनाम करते हों लेकिन उनके नेतृत्व पर भी एनडीए में कोई मतभेद नहीं है। यह भाजपा की गठबंधन में बेहतर सहभागिता का ही नतीजा है कि बिहार में जनता दल यूनाईटेड को फायदा हुआ। जबकि केन्द्र में यूपीए को जबरन समर्थन दे रहे लालू और पासवान को नुकसान ही हुआ है। भले ही बिहार में उन्होंने अलग होकर चुनाव लड़ा। साथ लड़ते तो भी यही हश्र होना था।
एक दौर था जब अन्य पार्टियां भाजपा का नाम सुनकर ही दूर भागती थीं। भाजपा को एक सांप्रदायिक दल कहा जाता था। लेकिन 1996 में एनडीए के गठन के बाद से तस्वीर बदली है। लोग तो उस समय भी इस गठबंधन को लेकर कयास लगाते रहे। लेकिन यह अटल बिहारी वाजपेयी के चमत्कारी व्यक्तित्व का ही परिणाम था कि पहले 13 दिन और फिर 13 महीने बाद सरकार गिरने के बावजूद पुनः एनडीए ने सरकार बनाई और सफलतापूर्वक सरकार चलाई। तब से लेकर आज तक अन्य पार्टियां भाजपा के साथ सरकार बनाती रहीं हैं। यह अलग बात है कि अपना काम निकालने के बाद उन्होंने भाजपा को दुलत्तियां भी मारी दीं। अक्तूबर 1996 में मायावती ने आडवाणी को राखी बांधी। तथा भाजपा-बसपा के बीच आख़िरकार इस फ़ॉर्मूले पर गठबंधन सरकार बनाने का फ़ैसला हुआ कि मायावती और कल्याण सिंह बारी-बारी से छह-छह महीने के लिए सरकार चलाएंगे। मायावती ने पहले कमान संभाली। करार के मुताबिक़ छह महीने के बाद 20 सितंबर 1997 को मायावती ने कल्याण सिंह के लिए गद्दी तो छोड़ी, मगर एक महीना बाद ही बसपा ने सरकार गिरा दी। हलांकि 222 सदस्यों के समर्थन से कल्याण सिंह ने फिर बहुमत हासिल किया लेकिन केंद्र की यूपीए सरकार ने फिर राज्य सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया। राष्ट्रपति शासन लगाया। लेकिन राष्ट्रपति ने इसको नामंजूर कर दिया और अंतत: केंद्र को अपना फ़ैसला बदलना पड़ा। लेकिन कुछ ही महीने बीते थे कि 21 फ़रवरी 1998 को राज्यपाल रोमेश भंडारी ने एक बार फिर से कल्याण सिंह सरकार को बर्ख़ास्त करके लोकतांत्रिक कांग्रेस पार्टी के नेता जगदम्बिका पाल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। जिसे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दो दिन बाद ही इस फ़ैसले को ग़लत ठहराया। 26 फ़रवरी को विधानसभा में हुए शक्ति परीक्षण में कल्याण सिंह ने एक बार फिर बहुमत साबित कर दिया। जिन निर्णयों से कांग्रेस की अपरिपक्वता और सत्ता लोलुपता साफ छलकती है। ऐसा ही बर्ताव कर्नाटक में देवेगौड़ा ने भाजपा के साथ किया। छह महीने सरकार चलाने के बाद भाजपा को सरकार हस्तांतरित नहीं की। जिसका नतीजा देवेगौड़ा को चुनाव के बाद भाजपा को मिली जीत से चुकाना पड़ा। झारखंड में भी गुरूजी ने यही किया। अब इसमें भाजपा की गठबंधन में नीयत पर कहां सवाल उठाया जा सकता है। बल्कि यह भाजपा के परिपक्व नेतृत्व को ही दर्शाता है। 
वैसे भी पार्टियों का काम करने का तरीका उसके नेतृत्व पर ही निर्भर करता है। जैसा नेता, वैसी पार्टी। जब तक बंगाल में ज्योति बसू की कमान थी तब वामपंथियों की स्थिति मजबूत थी। लेकिन करात के आते ही पार्टी की दुर्दशा हो गई। यही हाल सीताराम केसरी के समय कांग्रेस का और बंगारू लक्षमण के समय भाजपा का भी हो गया था। आज बिहार में लालू की स्थिति उनके अड़ियल रवैये का ही परिणाम है। ढुल-मुल रवैये की वजह से पासवान भी अपना वजूद खो चुके हैं। कांग्रेसी भले ही बिहार में पार्टी की दुर्दशा का ठीकरा राजद पर फोड़ें लेकिन हकीकत यही है कि राहुल गांधी की अपरिपक्वता ही बिहार में कांग्रेस के डूबने की मुख्य वजह है। उमा भारती का सफाया भी उनके मूंहफट और अदूरदर्शिता का ही परिणाम है। भाजपा से तौबा करने के बाद कल्याण सिंह और मदनलाल खुराना की हालत भी किसी से छुपी नहीं है। यदि गठबंधन में भाजपा की नीयत साफ नहीं होती तो वाजपेयी सरकार के पतन के बाद एनडीए कब का बिखर गया होता। महाराष्ट्र में सालों पुराना भाजपा-शिवसेना गठबंधन आज भी टिका हुआ है। यदि भाजपा के नेतृत्व में परिपक्वता नहीं होती तो हाल ही हुई पार्टी में सरफुटव्वल से पार्टी कब की दरक गई होती।
इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा को अभी काफी लंबा रास्ता तय करना है। भाजपा पूर्ण विकसित नहीं बल्कि विकासशील पार्टी है। और कभी भी विकसित होने से ज्यादा विकासशील होने में ज्यादा फायदा है। भाजपा के लिए फायदे की एक बात यह भी है कि सुदर्शन के जाने के बाद से भाजपा में संघ का दखल कम हुआ है जिसकी वजह से भी भाजपा अब अपने निर्णय खुद करने में समर्थ होती जा रही है जो आगे भाजपा के लिए लाभकारी होगा। एक बड़ी जनाधार वाली पार्टी होकर भी भाजपा अभी उस स्थिति में नहीं है कि अपने दम पर सरकार बना सके। इसलिए भी गठबंधन करना भाजपा के लिए मजबूरी है। लेकिन अन्य छोटे दलों के लिए भाजपा से गठबंधन करना फायदे का सौदा होगा।
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समाज में बढ़ता अश्लीलता का प्रतिशत

हो सकता है कि आप दो चार वाक्य पढ़कर ही लेख को समेटने का मन बना लें। शायद आप कहें कि यह भी कोई विषय है भला लिखने के लिए। लेकिन मैं क्या करूं। मजबूर हूं। ऐसे विषय कोई उठाता ही नहीं। जिसे देखो राजनीति, खेल और सिनेमा के सिवाय कोई कुछ लिखता ही नहीं। सो मैंने ही समाज में फैलती जा रही अश्लीलता पर चर्चा करने का बीड़ा उठा लिया। ताकि वे लोग जो इस तरफ कभी ध्यान नहीं देते थे कुछ हद तक सोचने पर मजबूर हों कि हम कितने अश्लील हो गए हैं। जानकारी के तौर पर आपको बता दूं कि समाज में अश्लीलता का प्रतिशत बढ़ा है।
यह सब जानते हैं कि परिवर्तनशील समाज में नैतिक मूल्यों का पतन तेजी से हो रहा है। महंगाई के इस युग में हमने बढ़े हुए नैतिक मूल्यों की जगह कुछ सस्ते, सुलभ अनैतिक मूल्य स्वीकार कर लिए हैं। ठीक वैसे ही जैसे अरहर की दाल की जगह पीली मटर दाल लोग इस्तेमाल में ले रहे हैं। अब हम सब लोग इस ओर ध्यान नहीं देते कि हमारी आपसी बोलचाल की भाषा क्या है। हम किससे बात कर रहे हैं। आधुनिक युग का एक ही फंड़ा है, बिंदास रहने का और अपनी बात कहने का। इस फंड़े के इफेक्ट या साइड इफेक्ट के बारे में सोचने की फुर्सत किसे है। नेता हो या आभिनेता, अफसर हो या चपरासी। स्कूल, कॉलेज के बच्चे हों या फिर देश के बुजुर्ग। कोई भी पीछे नहीं है।
बात हजम न होगी मगर मजा सबको आता है। गला सबका सूखता है। शील बाते करने में। दो-चार दोस्त मिलें और कोई अश्लील बात न हो, हो नहीं सकता। दरअसल अश्लीलता का नमक हमारे जीभ पर ऐसा चढ़ चुका है कि जिसमें हर उम्र को मजा आ रहा है। कौन किससे कैसी बात कब कह दे, कहा नहीं जा सकता। आखिर वह भी जानता है कि सामने वाला व्यक्ति भी मेरे इतना ही शील और अश्लील है। फिर वह बुरा क्यों मानने लगा। द्विअर्थी बात करने का तो जैसे चलन हो। हो सकता है एकाद कोई खूसट बुढ़ऊ दो चार गाली देकर आपकी शोभा बढ़ाये मगर देते ही वह भी अश्लील में ही गिना जाएगा। शीलता में नहीं। सड़क चलती लड़की पर फब्तियां कसना अब आम बात है। अब लड़कियां भी इस पुण्य कार्य में लड़कों से पीछे नहीं है। हमारी पुलिस छेड़छाड़ के तमाम आरोपों में आए दिन युवाओं को अंदर करती है मगर यह भी उतना ही सच है कि पुलिस छेड़छाड़ करने के लिए ही थाने से बाहर निकलती है। मुझमें कुछ शीलता शेष है इसलिए मैं थाने के अंदर छेड़छाड़ की बात कहकर पुलिस प्रशासन पर उंगली नहीं उठाना चाहता।
खिलाड़ी मैदान पर कोई अश्लील टिपण्णी करे तो उसे स्लेजिंग कहकर समाज के विभिन्न वर्गों से अलग रखा जाता है। खेलों के विशेषज्ञ इस पर अपनी राय बघारते हुए कहते हैं कि यह तो हर टीम का पुराना नुस्खा है। जिसमें ऑस्ट्रेलिया टीम को महारत हासिल है। उनकी इस बात से मैं शत-प्रतिशत सहमत हूं क्योंकि इस स्लेजिंग के दम पर ही वे जीत हासिल करते हैं। और जीत पॉजेटिव चीज़ है। अतः स्लेजिंग को अश्लीलता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। देखा आपने एक अश्लीलता को किस तरह मैंने शीलता का जामा पहनाया और आपको बुरा भी नहीं लगा।
एक समय था जब किसी लड़की से बात करने में भी डर लगता था। आज का युग ऐसा नहीं है। लोग लड़की तो क्या लड़कों से दो शब्द प्यार के कह दो तो लोग बुरी नज़र से देखते हैं। पहले नज़रों से नज़र मिलाना अश्लीलता की श्रेणी में आता था। अब यदि आप नज़रों में नज़रें डालकर चार बातें न कर सकें तो महिला मित्र तुरंत कमेंट जड़ देती हैं कि तुम में कांफिडेंस की कमी है। हाथ मिलाना तो दूर कभी किसी को हाय कहने में भी डर लगता था। और आज मिलते ही गले न लगाया तो आपमें मैनर्स की कमी समझिए। अब बच्चे हो या बूढ़े, साथ में पैग लगाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं है। आदत तो यहां तक सुरमयी हो चुकी है कि बाप-बेटे के साथ चाय का कप उठाते ही चीयर्स की अजान देता है। आखिर एक उम्र के बाद बाप और बेटा दोस्त ही होने वाले हैं तो शुरूआत आज से हो चुकि है तो इसमें बुरा क्या है।
ओ हो। इन सब बातों में मैं आपको इस लेख की मुख्य विषय वस्तु की ओर ध्यान आकर्षित करना तो भूल ही गया। जिसके लिए मैंने आपके सामने शीलता और अश्लीलता की इतनी वृहद व्याख्या की। दरअसल मैं कुछ दिनों से इस विषय पर गंभीर चिंतन में जुटा था कि वे कौन से बिंदू हैं जिससे समाज में अश्लीलता का इतना व्यापक फैलाव रहा है। मैंने पाया कि आज मोबाइल पर आने वाले साठ फीसदी संदेश अश्लील होते हैं। जिसे नॉनवेज जोक्स कहा जाता है। वेजीटेरियन जोक्स या शुभकामना संदेश केवल तीज-त्यौहारों, राष्ट्रीय पर्व या सचिन के शतक पर ही पढ़ने को मिलते हैं। ये आंकड़ा युवाओं का है। अधेड़ों में यह प्रतिशत कुछ कम जरूर है मगर इतना भी कम नहीं की उन्हें अच्छी नज़रों से देखा जा सके। हो सकता है इसकी वजह संचार क्रांति का देश में थोड़ा देर से आना रहा हो। युवाओं में इसका खासा क्रेज़ है। कोई कभी भी यह शिकायत कर देता है कि क्या यार तुम कोई मैसेज-वैसेज करते ही नहीं हो। यदि वह फुली नॉनवेज न हुआ तो कह दिया जाएगा कि कोई ठंग का मैसेज नहीं कर सकता क्या बे। अब इसमें लड़कों और लड़कियों के अनुपात पर चर्चा करना मुझे फिजूल लगता है। मगर इतना जरूर है अब लड़कियां भी चुटकुले सुनने से पहले तपाक से पूछती हैं कि वेज है या नॉनवेज। और कहीं वेज हुआ तो ऐसा चेहरा बनाती हैं जैसे किसी ने चिकन की जगह समोसा ऑफर किया हो। सैक्सी जैसे शब्द तो अब दैनिक उपयोग में आ गये हैं। आजकल हर चीज़ सैक्सी है। गणित का पर्चा मनमाफिक आया तो कभी कहते हुए सुना था बड़ा सैक्सी पेपर था। सुबह टहलने निकलता हूं तो एक रिटायर्ड कर्नल को गुडमार्निंग जरूर कहता हूं, जानते हैं किसलिए.. रोज़ जवाब होता है वैरी सैक्सी मार्निंग माय डियर।

सच कहें तो अब हमें इन चक्करों में पड़ना नहीं चाहिए। जिसे जो कहना है वह कहने दो। नैतिकता का पाठ फीजूल की जमा पूंजी है। भविष्य में कोई प्रॉफिट नहीं देने वाली। अब प्रीति जिंटा और युवराज सिंह मामले को ही ले लीजिए। पिछले आईपीएल में बाहों में बाहें डाले दोनों की तस्वीरें सबने देखी है। हममें से ऐसा कोई न होगा जिसने इन दोनों की खबरों को चटखारे लेकर न पढ़ी हों। खेल विशेषज्ञ कहते हैं कि इसी वजह से युवराज को कप्तानी से हाथ धोना पड़ा है। लेकिन प्रीति ने यह क्या कह दिया कि युवराज से प्यार तो करती हूं मगर एक बड़ी बहन की तरह। वह तो मेरे छोटे भाई समान है। अब आप ही बताइये, मेरे तो कुछ समझ नहीं आ रहा कि प्रीति की इन बातों को शीलता की श्रेणी में रखा जाए या अश्लीलता की। फैसला आप पर है...।
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दिल्ली मेरी जान

दिल के मामले में बात कहां से शुरू की जाए आजतक इस पहेली को कोई सुलझा नहीं पाया। कोई कितना भी तीस मार खां क्यों न हो मामला जब दिल का फंसता है तो गच्चा खा ही जाता है। फिर मैं तो एक आम चीज हूं। खास तो वो है जिससे मैं मोहब्बत करता हूं। दिल्ली, दिल्ली मेरी जान। क्या करें। प्यार के मामले में नजदीकियां भी है और दूरियां भी। दूर रहकर ही हमें पास होने की कीमत पता चलती हैं। बस यूं समझिए कि मेरा मामला भी दिल्ली के साथ कुछ ऐसा ही है।
तकरीबन एक हफ्ते से मैं दिल्ली के लिए विरह गीत गा रहा हूं। दरअसल बात यह है कि मैं अब एनसीआर में शिफ्ट हो चुका हूं। कहने को दिल्ली से दूरी महज दो किमी. की ही है। लेकिन फिर भी दूरी, तो दूरी होती है। इक फूल भी हो दरमियां तो फासले हुए। अब बालकनी में खड़े होकर दिल्ली को देखना कॉलेज के दिनों में खूबसूरत पड़ोसन को देखने जैसा ही है। तब भी कुछ कह नहीं पाता था और आज भी नहीं कह पा रहा हूं। सिवाय दिल्ली को दूर से देखने के कोई चारा नहीं है। क्योंकि दिल्ली को अपना जीवन साथी बनाने के लिए जेब में पैसा चाहिए। जो फिलहाल मेरी जेब में नहीं है। दिल्ली तो दिल्ली है मेरे दोस्त, जो एक बार यहां रह लिया फिर उसका मन कहीं और नहीं लगता। इसलिए यह बात दावे से कह सकता हूं कि  “दिल्ली दिल वालों की है, बाकि शहर क्या खाक जिया करते हैं।
अभी हफ्ता ही बीता है मुझे दिल्ली से दूर हुए। लेकिन न जाने क्यूं ये हफ्ता भी साल सा लगा। कैसे बताऊं दिल्ली, मैं तुम्हें कितना मिस कर रहा हूं। तुम्हारी हर बात निराली है। मेरे लिए इससे दुख भरी बात और क्या होगी कि मैं तुम्हें उस वक्त छोड़कर आया हूं जब तुम दुलहन की तरह सजी हुई थी। कई दिनो से बात कही जा रही थी कि बारात आने को है।लोग भले ही इसे कॉमनवेल्थ खेलों के संदर्भ में कह रहे थे मगर मुझे ऐसा ही लग रहा था जैसे तेरी डोली उठने के वक्त ही मुझे जिला बदल मिला हो। पता नहीं तुम्हें मेरे जाने का दुख हुआ भी या नहीं। लेकिन सच कहता हूं मैं तुम्हें खोकर बेहद दुखी हूं। लाख चाहकर भी तुम्हें भूल नहीं पा रहा।
कैसे बताऊं कि तुम्हारी सीमा रोज दिल पर पत्थर रखकर पार करता हूं। दिल्ली पधारने के लिए आपका धन्यवादलिखा देखकर ऐसा लगता है जैसे तुमने मुझे पल में पराया कर दिया हो। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरा स्वागत कोई एनसीआर पधारने पर करेगा। ड्राईव करते वक्त कमबख्त रेडियो भी यही गाना बजाता है कि तेरी दुनिया से होक कर मजबूर चला, मैं बहुत दूर, बहुत दूर चला..बात सिर्फ इतनी होती तो भी सह लेता। लेकिन हर कदम- हर पल मुझे तुम्हारी याद आती है। अब मेरी सुबह मदर डरी के फुल क्रीम से नहीं होती। जो शान से कहते हैं पीयो प्योर। अब वह कितना प्योर होता है इसका अंदाजा तो मुझे नहीं मगर दिल्ली का दूध यह मानकर ही मैं संतुष्ट हो जाया करता था। अब रोज़ सुबह मेरे दरवाजे से वो चमचमाते रंगीन अखबार सरक कर मेरे सिराहने नहीं आते। अब तो वे होते हैं जिनका रंग देख कर ही पढ़ने का मन नहीं करता। कागज ऐसा कि टिशू पेपर से मुक्केबाजी हार जाए। और इंक ऐसी की उसे कोई होली पर भी न लगाए। पूरा रंगीन अखबार तो मुझे सिर्फ दिल्ली में पढ़ने मिलता था। यमुना कितनी ही मैली क्यों न हो मगर पीने के लिए गंगा वाटर दिल्ली ने मुझे हमेशा दिया है। अपनी मोटर कार का नम्बर डीएल से शुरू होने पर मैं न जाने कितना इतराता था। इसे मैं अपनी पहचान समझता था। देश में कहीं भी जाता तो लोग मुड़ कर कहते दिल्ली की गाड़ी है। अब नम्बर ऐसा है कि गुजर जाने के बाद आधे घंटे तक लोग अंदाजा ही लगाते रहते हैं कि यह गाड़ी कहां की है।
आज तक खतों पर शान से पिन कोड़ 001 लिखा करता था मगर अब तो किसी को खत भेजने में भी शर्म महसूस होती है। शायद यही वजह है कि अब मैं ईमेल का इस्तेमाल ज्यादा करने की सोच रहा हूं। टेलिफोन का कोड़ 011 बताना तो जैसे मेरी आदत हो चुकि थी। लेकिन अब किसी को क्या नंबर देना। एमटीएनएल था तो सही था। अब बाकि सब गलत लगता है। शहर में क्राईम का ग्राफ कितना ही ऊपर क्यों न चला जाए मगर दिल्ली पुलिस का यह संदेश कि विथ यू फॉर यू आलवेज पढ़कर फिर एक बार विश्वास जाग जाता था। वैसे तो मुझे सारे पुलिस वालों की सूरत और सीरत एक सी नजर आती है मगर फिर भी दिल्ली पुलिस देखता हूं तो आंखों के सामने किरण बेदी जैसी पुलिस अफसर का ही चेहरा आता है।   
दिल्ली की वो ऐतिहासिक इमारतें, सड़कें, बाजार, वो हरियाली, बागीचे, वो खुला आसमान कंक्रीट के जंगल बन चुके एनसीआर में कहां। चांदनी चौक की भीड़ भरी सड़क से लाल किले का नजारा किसमत वालों को ही देखने को मिलता है। हर 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर औऱ 26 जनवरी को राजपथ की परेड का सबको इंतजार होता है। राज्य भवनों के कैंटीनों में मिलने वाला खाना मैं कैसे भूल सकता हूं। दिल्ली की खुश्बू ही अलग है। सर्व धर्म समभाव की धर्मस्थली दिल्ली में जहां एक ओर जामा मस्जिद है वहीं बिरला मंदिर और शीशगंज साहेब भी हैं। राजघाट, शांतिवन, वीर भूमि जैसे विश्रामघाट देखे हैं किसी शहर में। दिल्ली की शान मेट्रो तो अब केवल दिल्ली ही नहीं समूचे देश के लोगों के दिलों में अपनी जगह बना चुकि है। वो नई-नई लाल-हरी लो फ्लोर बसें आज भी मुझे लुभाती हैं। सच कहता हूं दामन पर दाग बन चुकि ब्लू लाईन बसें भी अब मुझे अच्छी लगने लगीं है।
तुम इतनी खूबसूरत हो शायद इसलिए ही हर किसी की मंजिल हो। आम हो खास हर कोई तुम्हे पाना चाहता है। और जो खो देता है उसकी इज्जत दो कौड़ी की नहीं रहती। तुम भारत का ताज हो, नाज हो, साज हो। तुम अपने आप में समूचा भारत हो। तुम्हारे हर गली-मोहल्ले से मुझे भारत के विभिन्न प्रांतो की खुशबू आती है। ऐसी कौन सी भाषा या बोली है जिसे तुमने अपने ओठों से नहीं लगाया। शायद इसलिए ही तुम राजधानी हो।

दिल्ली, लव यू हमेशा।
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जाति तो बाती है भारतीय लोकतंत्र की

आचार्य विनोबा भावे ने कहा था कि शिक्षा का सबसे बड़ा अवगुण समाज को जोड़ना नहींबल्कि तोड़ना है। आज जब देश में जाति आधारित जनगणना का चहूं ओर विरोध हो रहा है तो यह बात चरितार्थ होती दिख रही है। क्योंकि अब हम शिक्षित हो चुके हैं और साक्षर होने का दम भरते हैं। आखिर जाति पूछे जाने पर इतना बवाल क्यों। जाति तो बाती है भारतीय लोकतंत्र की। जाति ही नहीं धर्मसमाजभाषाबोलियांपरंपराएंरीति-रिवाज तो हमारे लोकतंत्र की विशेषता है। इससे भारतीय लोकतंत्र समूचे विश्व में आलोकित है। बिना जातियों के तो भारतीय समाज और लोकतंत्र की कल्पना ही नहीं की जा सकती। बिना जाति के लोकतंत्र का दीया नहीं जल सकता।
मैं केवल इस नाते जाति जनगणना का विरोध नहीं कर सकता क्योंकि मैं सवर्ण हूं। मैं इस भय से जनगणना को अस्वीकार नहीं कर सकता कि कहीं इससे जातिगत द्वेष न फैले। मैं जातिगत गणना को इसलिए स्वीकार करूंगा क्योंकि यह मेरे भारत की सच्ची तस्वीर है। ऐसा न करना आंकड़ों और देश के साथ गद्दारी होगी। विरोध करना ही है तो अस्पृश्यता का कीजिए। जिसकी वजह से हम जाति को जात-पात और धर्म के नाम पर सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्द पैदा करते हैं। जाति को भूलना ठीक वैसा ही होगा जैसा किसी साइंस के फार्मूले को यह कहकर छोड़ देना कि अब फार्मूले का क्या काम जबकि हमें पदार्थ मिल चुका है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन्हीं जातियों और उपजातियों से मिलकर हमारा समाज बना है।
शिक्षा की एक विशेषता यह है कि वह मनुष्य को एकांत प्रिय बनाती है। जिसकी वजह से वह अपना अलग अस्तित्व तलाशने लगता है और धीरे-धीरे समाज से अलग होता जाता है। अब उसे सामाजिक और जातीय बंधन रास नहीं आते। वह सिर्फ अपने मन की करना चाहता है। यही वजह है कि आज हम हर चीज़ को इसी नजरिए से देखते हैं और वैसा ही सोचते हैं। शहरों में सामाजिक मूल्यों का ह्रास निरंतर जारी है। हालात पूरी तरह बदल चुके हैं। अब किसी को किसी के लिए समय नहीं है। सब अपने काम में मस्त हैं। लोग अब सामाजिक कार्यों में भाग लेने के बजाए मल्टीप्लेक्स में जाकर सिनेमा देखना या आऊटिंग पर जाना ज्यादा पसंद करते हैं। किसी को इस बात की फिक्र नहीं की पड़ोसी से उसके संबंध कैसे हैं। सोसायटी का मासिक शुल्क अदा कर देने के बाद लोग अपने दायित्वों का पूर्ण निर्वहन मानते लगते हैं। इसलिए शहरों में सामाजिक ढांचा गांवों की अपेक्षा कमजोर है। गांव अब भी वैसे ही हैं जैसे हम किस्से कहानियों में अब तक सुनते आ रहे हैं। पूछने पर आज भी रामू काका का मकान हर कोई बताता है। इतना ही नहीं बल्कि सामान लादकर वह आपको घर तक छोड़ भी आता है। इमाम साहब मस्जिद की सीढ़ियां बाद उतरते हैंसहारे के लिए हाथ पहले बढ़ जाता है। जितना सरल गांवउतने ही सरल वहां के लोग। लोग साक्षर तो हो रहे हैं मगर अभी उनमें शिक्षा का अहंकार नहीं आया। जो थोड़े बहुत पढ़-लिख लिए तो वे शहर के हो लिए। गांवों में अब भी जातीय और सामाजिक आयोजन बड़ी मात्रा में होते हैं और गांव वाले उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। वहां समाज और जात-बिरादरी आज भी सर्वोपरि है। कहना न होगा कि ऐसे मूल बदलाव के लिए शिक्षा ही जिम्मेदार है।
जातियां इस देश की सांकृतिक धरोहर हैं। जिसमें पूरी संस्कृति समाहित होती है। जातियां टूटती भी हैं और बनती भी हैं। जातियों से ही उपजातियों का निर्माण होता है और कई उपजातियां मिलकर एक नई जाति का निर्माण भी करती हैं। यह कभी न खत्म होने वाली प्रक्रिया है जो समयानुसार बदलती रहती है। यही वजह है कि लोग अपनी जाति से जुड़े रहते हैं। चूंकि जाति जमीन से जुड़ी होती है इसलिए इसका निर्माण और विनाश भी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। पर प्रांतों में रह रहे लोग वहां की भाषा और बोली के आधार पर कब दूसरी जातियों में शामिल हो जाते हैं पता भी नहीं चलता। उनका रहन-सहनखान-पानपूजा-पद्धति का तरीका भी पूरी तरह से बदल चुका होता है। रहते-रहते वे वहीं के ग्राम देवता को अपना कुल देवता भी मानने लगते हैं।
जाति मनुष्य के कर्म का परिचायक होती है न कि उसके दीनता और हीनता की। एक समय था जब आचार्य शिक्षा देने से पूर्व बालक की जातिकुलगोत्र आदि के बारे में पूछा करते थे। इसका यह अर्थ कतई नहीं था कि उनमें अन्य जातियों के प्रति आदर नहीं था। वे तो केवल इसके जरिये बालक के रहन-सहनखान-पानरूचियों और आर्थिक स्थिति की जानकारी प्राप्त करते थे। क्योंकि हर जाति कि अपनी जीवन शैली और पूजा पद्धति होती है। उनके देवी-देवता भी अपने-अपने होते हैं। तीज-त्यौहाररहन-सहनखान-पान का तरीका सब कुछ निराला होता है। जिसकी तुलना आज के पीजा-बर्गर या जीन्स और टीशर्ट से नहीं की जा सकती। पारंपरिक वेश भूषा और उत्सवों का अपना महत्व है जिसे वेलेन्टाईन डे और हैप्पी न्यू ईयर के नाम पर भुलाया नहीं जा सकता। अनेकता में एकता ही भारत की विशेषता है। और जब हम अलग-अलग प्रांतभाषाधर्मजाति के लोग एक साथ मिलकर खड़े होते हैं तो हमारा सच्चा भारत बनता है।
आज दौर बदला है तो हमें अपना नज़रिया भी बदलना चाहिए। हमें जातियों को नए और विकसित रूप में देखना चाहिए। आज के दौर में हम कुम्हारचमारलोहारबढ़ई को उस नजरिए से नहीं देख सकते जैसे कभी देखा करते थे। अब हमें कुम्हार को एक आरओ सिस्टम बनाने वाली कम्पनी के मालिक के तौर पर देखना चाहिए। जबकि चमार को एक शू कम्पनी या चमड़ा उद्योग के निर्माता के तौर पर। जाहिर है कि इसी तरह हम लोहार को स्टील निर्माता के रूप में देखेंगे। काम वही हैबस काम का स्वरूप बदला है। काम की जाति वही है बस आर्थिक स्थिति बदली है। आज एक कम्पनी के तौर पर हर व्यक्ति हर काम कर सकता है। शिक्षा के आधुनिकीकरण और तकनीक से रोजगार के नए अवसर पैदा हुए हैं। लेकिन निचले स्तर पर हालात वैसे ही हैं और जातियों के परंपरागत उद्योग आज भी जारी है। लेकिन अब वे भी तकनीक के जरिए भारी मुनाफा कमा रहे हैं। पंजाब में खेती की स्थिति से तो यही अंदाजा लगाया जा सकता है।
यूं तो हम अमेरिकियों की हर मामले में नकल करना चाहते है। उनके कामकाज के तौर-तरीकों पर  तारीफों के कसीदे पढ़ते हैं। अमेरिका में रह रहे भारतीय भी यहां आकर हमें यह कहने से नहीं चूकते की अमेरिका में हर चीज का नोटीफिकेशन किया जाता है। बारीक से बारीक आंकड़े इकट्ठे किये जाते हैं। अपराध हो या भ्रष्टाचार अमेरिका में आंकड़े छुपाये नहीं जाते। इतना ही नहीं वृक्षारोपण से पहले किस मोहल्ले में कितने पेड़ होने चाहिए इस पर भी अमेरिकी  पहले रिसर्च करते हैं। जैसे उदाहरण के लिए इस इलाके में कितने तरह के पेड़ लग सकते हैं। लगाने पर इनकी पतझड़ में हालत क्या होगी। हर पेड़ से कितने पत्ते झड़ेंगे। उनसे कितने टन कचरा इकट्ठा होगा। इस कचरे में सूखी पत्तियों की संख्या कितनी होगी और पेड़ों की छाले कितनी रहेंगी। फिर इस कचरे को उठाने में कितने मजदूरकितनी मशीनेंकितना समय लगेगा आदि। तब कहीं जाकर वृक्षारोपण किया जाता है। कहने का अर्थ यह है कि हमें किसी भी तरह की गणना से पीछे नहीं हटना चाहिए। यह सांख्यकीय के नियमों के खिलाफ होगा। हम गणनायक हैं और अब हमें गणना-यक भी बनना चाहिए। क्योंकि कोई भी आंकड़े कभी बुरे नहीं होते। आंकड़े जितनी ज्यादा संख्या में और जितने विविध होंउतने अच्छे। भारत में जहां इतनी जातियां-उपजातियां गुजर-बसर करती हों उन्हें इस तरह भुलाया नहीं जा सकता।
यह धारणा गलत है कि विवेकानंदकबीरराममोहन रायदयानंद सरस्वती और गांधी ने जातियों का विरोध किया। इन सभी में जातियों के प्रति पूरा सम्मान था। उन्होंने केवल व्यवस्था पर उंगली उठायी थी। उस सोच को बदलना चाहा जो एक सभ्य समाज को प्रदूषित करती है। वे तो केवल अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे। उनकी जंग ऊंच-नीच और भेदभाव के खिलाफ थी। हमेशा उन्होंने बराबरी का हक मांगा और समान व्यवहार की वकालत की। लेकिन उन्होंने जो भी किया सामाजिक ढांचे के अंतर्गत किया। ढांचे को बदलना चाहा मगर तोड़ना नहीं। उन्होंने कभी धर्म को चुनौती नहीं दी। क्या आज मायावती कहेंगी की उन्हें दलित होने पर गर्व नहीं होता। आज रोज़ एक न एक जाति अपने आपको पिछड़ा घोषित कराने पर तुली है।

1931 के बाद स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार जाति आधारित गणना होने की बात हो रही है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। जनगणना में जाति के शामिल होने पर इतनी चिंता क्यों। यह ठीक नहीं है। यह काम थोड़ा मुश्किल जरूर है मगर गलत नहीं है। कुछ बुद्धिजीवियों का मत है कि जाति गणना से जातिवाद फैलेगा लेकिन उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि क्या जातिगत गणना न होने भर से यह देश जाति प्रथा से मुक्त हो सकेगा। उन्हें इस बात की चिंता अधिक है कि कहीं इसका लाभ जाति आधारित राजनीति करने वाले नेता न उठा लें। जिससे तनाव फैलेगा और जातियों में आपसी दुश्मनी बढ़ेगी। लेकिन भविष्य की इन बातों को लेकर हम वर्तमान को कैसे नकार सकते हैं। कल किसने देखा है। यदि यह कयास लगाया जा सकता है कि देश में जातिगत राजनीति बढ़ेगी तो यह विश्वास भी क्यों नहीं रखा जा सकता कि कोई महापुरूष भी ऐसा पैदा होगा जो सभी जातियों को साथ लेकर आगे बढ़ेगा। क्या महापुरूष केवल आजादी के पहले ही पैदा होते थे.. जरा सोचिएजनगणना के बाद जो आंकडे सामने आएंगे वो कितने चौंकाने वाले होंगे। इतनी हजार जातियों और उपजातियों से भरा पूरा हमारा देश विश्व में अलग ही स्थान बनायेगा। शायद ही विश्व ऐसे लोकतंत्र की कल्पना कर सके। जो लोग जातियों का विरोध करते हैं उन्हें ढ़ांचे को तोड़ने और नकारने के बजाए शिक्षा पर और अधिक ध्यान देना चाहिए। क्योंकि समाज जितना अधिक शिक्षित होगाजातियों की जड़ें उतनी ही कमजोर होती जायेंगी। इस सबका एक मात्र हल शिक्षा ही है जो इस जातीय ढ़ांचे को तोड़ सकती है। तभी शिक्षा के एक मात्र अवगुण से समाज के इस अवगुण को हम मिटा पाएंगे। 
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एक बार फिर कहेंगे

अहं ब्रह्मास्मि।


मैं आंनंदित हूं और बेहद उत्साहित भी। वह भी बीती 30 अप्रेल से। यह जानकर कि वैज्ञानिकों के हाथ ब्रम्हाण्ड की उत्पत्ति के कुछ राज लग चुके हैं। मैं तब से इसी सोच में डूबा हूं कि आखिर क्या है यह महामशीन? कैसे वैज्ञानिक इससे ब्रम्हाण्ड के राज खोल पायेंगे? क्या यह संभव है? बावजूद वैज्ञानिकों के दावे के, मेरा मन यह समझने को राजी नहीं था कि महामशीन से ब्रम्हाण्ड की खोज संभव है। क्योंकि आज तक मैंने यह सब केवल वेदों में ही पढ़ा था। विज्ञान अब तक इस पर खामोश था। लेकिन जबसे वैज्ञानिकों ने दावा किया है तब से मेरे मन में भी विज्ञान के नजरिए से ब्रम्हाण्ड को जानने की उत्कंठा जागी है। महाप्रयोग की लगभग सारी जानकारियां मैंने पढ़ी। उस विधि को गौर से समझना चाहा जिससे वे ब्रम्हाण्ड के राज खोल रहे हैं।
हमें यह जानकर खुश होना चाहिए कि ब्रह्माण्ड का राज खुल चुका है। और अब हम ब्रह्माण्ड के रहस्यों को जानने से महज कुछ ही पल दूर खड़े हैं। कम से कम जेनेवा में अनुसंधानरत वैज्ञानिकों की माने तो उनके हाथ वह लग चुका है जिससे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के राज खुल सकते हैं। वैज्ञानिक खुश हैं और सारा विश्व उत्साहित। आगे क्या होगा। क्या वाकई हम ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बारे में जानकारी हासिल कर सकेंगे... वह भी सूक्ष्माति सूक्ष्म, महज दो प्रोटान बीम की परस्पर टक्कर से। यह सत्य है लेकिन इसमें कुछ भी नया नहीं है। नया है तो बस ब्रह्माण्ड को ठूठने का भौतिक तरीका। जबकि हमारे वेद, हमारे ग्रंथ, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की जानकारियों से भरे पड़े हैं। लगभग पांच हजार वर्ष पुरानी यह श्रुति आज भी उतनी ही प्रासंगिक है कि-
सृष्टि से पहले सत नहीं था, असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या कहाँ, किसने देखा था
उस पल तो अगम, अटल जल भी कहाँ था
ऋग्वेद(१०:१२९)
सृष्टि की उत्पत्ति आज भी एक रहस्य है। सृष्टि के पहले क्या था। इसकी रचना किसने, कब और कैसे की? अभी तक विज्ञान के लिए दूर की कौड़ी बना हुआ है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि हम जेनेवा में हो रहे अनुसंधान को नजरअंदाज करें। क्योंकि ब्रह्माण्ड की खोज आधायात्म व योग के साथ-साथ भौतिक रूप से भी की जा सकती है। कहना न होगा कि भौतिक ऱूप से खोजा गया ब्रह्माण्ड सबके लिए जानकारी पूर्ण व तथ्यों पर आधारित होगा। आध्यात्म और योग से भी ब्रह्माण्ड या ईश्वरीय कणों को महसूस किया जाता है। लेकिन वह केवल साधनारत साधक तक ही सीमित रह पाता है। उसकी अनुभूति उसके अलावा किसी और को नहीं हो सकती।
आज का युग भौतिक युग है तो जाहिर है कि ब्रह्माण्ड को ढूंढने का तरीका भी भौतिक ही होगा। और हो भी क्यों न, आखिर विज्ञान ईश्वर तक पहुंचने का साधन ही तो है। विज्ञान ही ईश्वर का समग्र, सूक्ष्म और संगठित रूप है। जो निरंतर फैलता जा रहा है। ठीक उसी तरह जैसे की ब्रह्माण्ड। सृष्टि के रहस्य जब तक हमारे सामने अनसुलझे हैं वे हमारे लिए एक विज्ञान की पहेली ही रहेंगे। रहस्य खुलते ही वह हमारे लिए ज्ञान में परिवर्तित हो चुका होगा। कहते हैं कि किसी समय ब्रह्माण्ड के सभी कण एक दूसरे से एकदम करीब थे। वे इतने पास-पास थे। एक ही जगह। बिल्कुल एक बिन्दू की तरह। यह बिन्दू अत्यधिक घनत्व वाला अत्यंत सूक्ष्म कण था। जाहिर है अत्यधिक घनत्व के कारण ब्रह्माण्ड अत्यंत गर्म रहा होगा। जहां पर विज्ञान का कोई भी नियम काम नहीं करता था। जब हम कोई अनुमान नहीं लगा सकते थे। काल या समय की गणना भी नहीं की जा सकती थी। उसके कोई मायने नहीं थे। अतः ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के समय एन्ट्रापी या अव्यवस्था सबसे कम थी। न के बराबर। जिसे न्यूटन ने भी प्रतिपादित किया। लेकिन कणों में अत्यधिक सघनता की वजह से एक महाविस्फोट हुआ और ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई। जिसे आज हम सब अनुभव कर रहे हैं। अनुमान के मुताबिक लगभग 5 खरब वर्षों बाद यह ब्रह्माण्ड फ़ैलते फ़ैलते इतना बिखर चुका होगा कि ब्रह्माण्ड का तापक्रम ही शून्य के लगभग हो जाएगा, तब कहीं कुछ भी‌ होगा। विज्ञान का नियम कहता है कि जितनी एन्ट्रोपी बढ़ेगी ऊर्जा में उतनी ही कमी आ जाएगी। एन्ट्रोपी बढ़ते-बढ़ते इतनी हो जाएगी की सारा ब्रह्माण्ड ही ठंडा हो जाएगा। कहने का अर्थ यह है कि तब एन्ट्रोपी अर्थात अव्यवस्था (डिसआर्डर) इतनी‌ बढ़ चुकि होगी कि कोई व्यवस्था काम नहीं आ पाएगी। हम कह सकेंगे कि ब्रह्माण्ड का अन्त हो गया। वैसे इस अवस्था के आने के कई सौ वर्ष पहले ही यह मानव जाति विलुप्त हो चुकि होगी और सूर्य कब का ठंड़ा हो चुका होगा। लेकिन न तो पदार्थ कभी नष्ट होता है और न ही उसकी ऊर्जा। अतः अत्यन्त ठंड की वजह से वे सारे कण जो एक दूसरे से बिखर चुके थे वे पुनः एक दूसरे की ओर आकर्षित होकर एक बिन्दू पर आकर मिलेंगे। जिसे हम डिसऑर्डर कहते हैं। सारा ब्रह्माण्ड आपस में एक मय होकर एक पिन्ड बनकर बिग बैंग की रूप रेखा का निर्माण करने लगेगा। एक बार फिर ऊर्जा के महाविस्फोट के साथ नए ब्रह्माण्ड का उदय होगा और फिर सिकुड़न से विस्तार का क्रम चल पड़ेगा। जो निरंतर चलता रहेगा। जिसे वैज्ञानिक आज बिग बैंग थ्योरी कहते हैं। लेकिन अभी अनेकों अनसुलझे प्रश्न हैं जिनका एक निश्चित उत्तर अभी तक किसी के पास नहीं है। ऐसा सिद्धांत अभी तक बना नहीं है।
दरअसल जेनेवा, जिसे विज्ञान का तीर्थ कहा जा रहा है, में चल रही सारी कवायद प्रोटॉन को तोड़कर उन गॉड पार्टिकल्स को ढूंढने की है जिससे पदार्थ में वजन उत्पन्न होता है। न कि गॉड या ईश्वर को ढूंढने की। निश्चित तौर पर इस प्रक्रिया से हमें गॉड पार्टिकल्स तो मिलेंगे किन्तु ईश्वर नहीं। क्योंकि ईश्वर निर्गुण-निराकार है जिसे भौतिक साधनों से नहीं ढूंढा जा सकता। और कभी हम ढूंढने निकले तो फिर इतना समय लगेगा कि जिसमें यह भौतिक युग ही समाप्त हो जाएगा। लेकिन हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। इस बात पर विश्वास रखना चाहिए कि हमें गॉड पार्टिकल्स मिलेंगे। जिसे हम ईश्वरीय कण कहते हैं। हमारे लिए यह उपलव्धि ही काफी होगी कि हमने ईश्वर न सही ईश्वरीय कणों को खोज निकाला। और एक नए ब्रह्माण्ड की रचना की। भारतीय वेद शास्त्र भी यही कहते हैं कि अहं ब्रह्मास्मि। अर्थात हममें ही ब्रह्म है। अतः हमारे धर्मगुरुओं को इसका विरोध नहीं करना चाहिए। और केवल आध्यात्म के अहंकार में भौतिकता को नकारना नहीं चाहिए। आज का युग भौतिक है और सारे वैज्ञानिक भौतिक ऋषियों की तरह हैं।
ब्रह्माण्ड का निर्माण और विनाश निरंतर होता रहता है। यह एक सतत प्रक्रिया है। ऊर्जा का महाविस्फोट और क्षय कोई नई बात नहीं है। यह प्रक्रिया तो प्रतिपल हो रही है। प्रतिपल अरबों-खरबों कणों का जन्म होता है और अंत भी। ब्रह्माण्ड की तुलना में हमारी औकात एक कण से ज्यादा कुछ भी नहीं है। लेकिन आश्चर्य की बात है कि फिर भी हम अपनी विशालता के अहंकार से अभिभूत हैं। शायद इसलिए ही कि हम स्वयं भी एक ब्रह्म हैं। अब यदि बैज्ञानिक ईश्वरीय कणों की बात करते हैं तो हमारी बात ही सिद्ध होती है कि कण-कण में भगवान। 30 मार्च, 2010 विज्ञान के लिए हमेशा एक यादगार दिन रहेगा। एलएचसी में दो प्रोटॉन बीम की टक्कर के दैरान हर सेकेंड हमें इतना डाटा हासिल हुआ है कि दुनिया की सारी लाइब्रेरी दस बार भरी जा सकती हैं। कहना होगा कि हरि अनंत, हरि कथा अनंता।
जो लोग इस अनुसंधान को लेकर आशंकाए जता रहे थे उन्हें यह समझना चाहिए कि इस तरह के अनुसंधानों से न तो ब्लैक होल बनते हैं और न ही पृथ्वी नष्ट होने वाली है। साधना में आत्म अनुभूति के महाविस्फोट से कभी शरीर नष्ट हुआ है क्या..? मैं विज्ञान का विद्यार्थी नहीं हूं किन्तु मैं इस प्रयोग की एक-एक विधि को अपने आध्यात्म से तौलता हूं तो मुझे कहीं भी कोई फर्क नज़र नहीं आता। सर्न, जेनेवा में आज भौतिक ऋषि एक हाईड्रो कोलाइडर एलएचसी में प्रोटॉन की टक्कर से गॉड पार्टिकल्स की खोज कर रहे हैं जबकि योग साधक भी ध्यान मग्न अवस्था में शरीर रूपी कोलाइडर में तेज गति से दौड़ते असंख्य विचारों को धीमे-धीमे पास ला कर, केंद्रित करता व टकराता है। आत्मा में महाविस्फोट से ही आनंद या आत्म अनुभुति की प्राप्ति होती है। वही ज्ञान जिससे हमें ईश्वर या ईश्वरीय कणों की प्राप्ति होती है।
विज्ञान के महर्षि कहते हैं कि इस महाविस्फोट ने उन प्राथमिक कणों को जन्म दिया है जिन्होंने आपस में जुड़कर ब्रह्माण्ड के ठोस, द्रव और गैस की रचना की। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ठोस, द्रव और गैस कोई और नहीं हमारे ब्रह्मा, विष्णु और महेश ही तो हैं। ठोस आर्थात ज्ञान। ज्ञान अर्थात ब्रह्मा। जिससे हमारी उत्पत्ति हुई। द्रव अर्थात द्रव्य या तरलता। जो हमारे जीवन को चलायमान बनाती है। वह शक्ति जो पालनहार है। अर्थात विष्णु। गैस मतलब वायु। वायु का अर्थ वह अदृश्यता जो हमें आकार से निराकार बनाती है। अर्थात मृत्यु। जिसे हम शिव कहते हैं। क्योंकि जब तक शरीर में ईश्वरीय कणों का वास है वह शिव है, अन्यथा वह शव के समान है। और विज्ञान की दृष्टि से भी यही तीन चीज़ें पदार्थ में वजन पैदा करती हैं। अंग्रेजी का गॉड (GOD) शब्द भी इन्हीं तीनों से मिलकर बना है। जिसमें “G” फॉर जनरेटर आर्थात ब्रह्मा। “O” फार आर्गनाइज़र अर्थात विष्णु और “D” फार टिस्ट्रायर अर्थात शिव ही तो है। अतः हमे डरने की जरूरत नहीं है। विज्ञान की यह अनूठी पहल हमें उस ब्रह्मा, विष्णु तक ले जाने वाली एक भौतिक क्रिया है। फर्क सिर्फ इतना है कि हमारी सनातन पद्धति से हम ईश्वर की अनुभूति कर सकते हैं जबकि भौतिक तरीके से हम केवल तथ्यात्मक रूप में उसे प्राप्त कर सकेंगे। अतः हमें विशाल ह्रदय से इस अनुसंधान में सहयोग देना चाहिए ताकि इस बार उसे भौतिक रूप में हासिल कर सकें। और विज्ञान के बल पर कह सकें की अहं ब्रह्मास्मि।

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यूनिक आइडेंटिफिकेशन कार्ड
इस कार्ड में जादू है

यूनिक आइडेंटिफिकेशन कार्ड जारी हो जाने के बाद शायद डॉन यह न कह पाए कि ग्यारह मुल्कों की पुलिस उसकी तलाश में है। शायद यह भी न कह पाए कि डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है। क्योंकि यूनिक आइडेंटिफिकेशन कार्ड जारी हो जाने के बाद डॉन अपनी पहचान छुपा नहीं सकेगा। ऐसा अदभुत होगा यह कार्ड। आधुनिक तकनीक से लैस भारत का यूनिक आइडेंटिफिकेशन कार्ड हर भारतीय की पहचान होगा। जिसके मिलने पर खलनायक अजीत अधिकारिक तौर पर कह सकेंगे कि सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है। अजी साहाब शहर की क्या बात, सारा मुल्क-सारी दुनिया आपको लायन के नाम से जानेगी। अब फिल्म दीवार का विजय यदि अपने छोटे भाई से यह कहेगा कि मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, बैंक बैंलेंस है, तुम्हारे पास क्या है। उसे इस बार जवाब मिलेगा कि मेरे पास यूनिक आइडेंटिफिकेशन कार्ड है। जो तुम्हारे पास नहीं। जाओ और जाकर पहले अपना कार्ड बनवाओ वरना तुम्हें जेल की हवा खानी पड़ेगी। शोले का अमिताभ भी अब यह नहीं कह सकेगा कि मुझे तो सारे पुलिस वालों की सूरत एक सी नज़र आती है। क्योंकि अब देश के हर नागरिक को उसकी सूरत से नहीं बल्कि यूनिक आइडेंटिफिकेशन कार्ड से पहचाना जायेगा। यूनिक आइडेंटिफिकेशन कार्ड एक महत्वाकांक्षी योजना है। जिसमें नागरिकों को विशिष्ठ पहचान संख्या मिलेगी। यह एक तकनीकी मिशन होगा। जिसके तहत सभी भारतियों को एक यूनिक आइडेंटिफिकेशन कार्ड जारी किया जाएगा जो उनका पहचान पत्र होगा। जिसमें व्यक्ति की सामान्य जानकारी के अलावा उसकी बायोमैट्रिक्स पहचान भी होगी।
दरअसल इस भीमकाय योजना की रूपरेखा एनडीए सरकार ने 2003 में ही बना दी थी और इसके लिए सिटिज़न एमेंडमेंट एक्ट भी बनाया। एनडीए सरकार के पतन के बाद यह परियोजना कुछ सालों तक ठंडे बस्ते में पड़ी रही। लेकिन जब राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने इस परियोजना पर अमल की सलाह दी तो 2008 में यूपीए सरकार ने इस पर कमर कसी और इसके लिए 100 करोड रूपये आँवटित किये गए। सरकार ने इसके लिए अलग से यूनिक आईडेंटीफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया, यूआईडीएआई की स्थापना की और कैबिनेट मंत्री का दर्जा देते हुए भारत के आईटी प्रमुख इंफोसिस टेक्नोलॉजीज के को-चेयरमैन नंदन नीलकेणी को इसकी कमान सौंपी।
दुनिया में अबतक सिर्फ छह देशों में ही राष्ट्रीय पहचान पत्रों का इस्तेमाल किया जाता है। जिनमें ब्रिटेन, साइप्रस, जिब्राल्टर, हांगकांग, मलेशिया और सिंगापुर हैं। अमेरिका में राष्ट्रीय पहचान कार्ड की जगह राष्ट्रीय पहचान संख्या की प्रणाली अपनायी जाती है जिसे सोशल सिक्योरिटी नंबर कहते हैं। लेकिन वहां अलग-अलग राज्यों द्वारा अपने-अपने पहचान कार्ड जारी किए जाते हैं। भारत जैसे देश में जहां पहले ही दस तरह के कार्ड मौजूद हों वहां यह एक मात्र कार्ड कारगर सिद्ध होगा। इससे न केवल आपको अपनी पहचान बताने के लिए किसी कार्ड की आवश्यक्ता नहीं होगी बल्कि अनेक तरह के कार्ड रखने के झंझट से मुक्ति भी मिलेगी। इससे सरकार के समय, धन और ऊर्जा की भी बचत होगी।
ऐसा माना जा रहा है कि इस पहचान कार्ड का भारत में दूरगामी असर होगा। एक तो इससे सरकारी योजनाओं में होने वाले घपलों पर रोक लग सकेगी। दूसरे, योजनाओं का लाभ सही लोगों को मिलेगा। इस कार्ड से जहां एक ओर गरीब लोगों को आर्थिक लाभ होगा, वहीं उनकी क्रयशक्ति भी बढे़गी और साथ ही साथ अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी। इस कार्ड से एक विशाल राष्ट्रीय डाटा बेस तैयार किया जाएगा जिससे शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए विभिन्न नई योजनाएं शुरू की जा सकेंगी। सुरक्षा की दृष्टि से भी ये पहचान-पत्र बहुत उपयोगी साबित होंगे। इससे बाहरी घुसपैठ को रोका जा सकेगा और आतंकवादियों की पहचान भी की जा सकेगी।
इस अनूठे पहचान कार्ड से बैंकिंग प्रणाली के दायरे से बाहर खड़े अस्सी करोड़ से ज्यादा लोग बैंक व्यवस्था से जुड़ेंगे और सरकार एवं आम आदमी के बीच सीधा वित्तीय संबंध होगा। प्रत्येक नागरिक के अस्तित्व को स्वीकार करने से सरकार खुद ही सेवाओं की गुणवत्ता सुधारने के लिए विवश होगी जिसका लाभ नागरिकों को तुरंत मिल सकेगा। अब आपका हक कोई नहीं मार सकेगा। इस कार्ड से एक फायदा यह भी होगा कि आपकी आर्थिक स्थिति छिपी नहीं रहेगी। फिर आप गरीब हों या अमीर। इससे कोई भी आपके अधिकारों, हकों को नहीं छीन सकेगा क्योंकि इन सबकी जवाब देह सरकार होगी। न तो आप किसी मामले में सरकार को धोका दे सकेंगे और न ही सरकार आपको धोका दे सकेगी। लेकिन यह सबकुछ तब सफल हो सकेगा जब इसमें हर नागरिकों की हिस्सेदारी हो।

1. एक बहुउद्देशीय  पहचान  कार्ड
एक ऐसा पहचान कार्ड जो बहु-उद्देशीय होगा। जिससे अलग-अलग पहचान पत्र रखने की झंझट से मिलेगी मुक्ति। यह एक राष्ट्रीय कार्ड होगा जो हर जगह चलेगा। जहां यह कार्ड आम जनता के  सुविधाजनक होगा वहीं यह  नई तकनीकों से भी लैस होगा। दरअसल यह पहचान पत्र एक स्मार्टकार्ड होगा, जिसमें 16 किलोबाइट मेमोरी होगी। यह कार्ड 10 साल का डाटा इकट्ठा कर सकेगा। इसमें यात्रा संबंधी सुविधाओं के लिए ऑपरेटिंग सिस्टम भी लगा होगा। इससे हम हिंदुस्तानियों को अपनी पहचान साबित करना बहुत आसान हो जाएगा। इससे किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं की जा सकेगी। इसे सुरक्षित बनाने के लिए इसमें असेमेट्रिक क्रिप्टोग्राफी और सेमेट्रिक की-क्रिप्टोग्राफी  तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा। इस कार्ड के निर्माण में अनुमानित 30 रुपये प्रति कार्ड का ख़र्च आएगा। इससे देश के 1.2 अरब लोगों को पहचान मिलेगी।

2. कैसे होगी कवायद
जनगणना-2011 में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एन.पी.आर.) तैयार किया जाएगा। इसी रजिस्टर के आधार पर पहली बार नागरिक पहचान पत्र (बायोमैट्रिक स्मार्ट कार्ड) जारी किए जाएंगे। इस पहचान पत्र के बाद मूल निवास जैसे प्रमाण पत्रों की आवश्यकता खत्म हो जाएगी। एनपीआर के लिए डाटा बेस तैयार हो जाने के बाद मकान सूचीकरण का मुख्य कार्य होगा। ग्रामीण क्षेत्र में तहसीलदारों और शहरी क्षेत्र में शहरी निकाय अघिकारियों की देख-रेख में जनगणना कार्य पूरा किया जाएगा। सभी नागरिकों को विशिष्ट पहचान संख्या देने की प्रक्रिया के तहत प्रदेश स्तर पर शिविर लगाए जाएंगे। शिविरों में बायोमीट्रिक पहचान के तहत फिंगर प्रिंट, चेहरे का डिजिटाइज्ड स्कैन या आंख की पुतली का स्कैन होगा। पहचान संख्या 12 अंकों की होगी, जो राष्ट्र, राज्य, जिला, ब्लॉक तक की जानकारी देगी। इस तरह तैयार होगा आपका यूनिक आइडेंटिफिकेशन कार्ड।

3. क्या होगा इस कार्ड में
इस कार्ड में भारत के नागरिक की हर एक जानकारी होगी उसका नाम, पता, परिवार, रक्त ग्रुप, स्वास्थ्य संबंधि आँकड़े, जन्म तिथि, वित्तीय स्थिति, जाति, धर्म, वाहन की जानकारी, निवास स्थल का पता व कार्ड धारक के हस्ताक्षर के अलावा फिंगर प्रिंट्स और आंखों की पुतलियों के निशान भी होंगे। इस कार्ड का उपयोग टेक्स भरने, फोन कनेक्शन लेने, बैंक खाता खोलने, वोट देने तथा सरकारी योजनाओं का लाभ लेने में होगा। आगे चलकर यह कार्ड ड्राइविंग लाइसेंस, इलेक्शन कार्ड, पान कार्ड और राशन कार्ड की जगह भी ले लेगा

4. मुश्किलों भरी राह
सरकार यह कैसे सुनिश्चित कर सकेगी कि  कौन भारतीय है और कौन नहीं? आज भारत में 2 करोड से अधिक बांग्लादेशी हैं जिनके पास राशन कार्ड भी है इसके अलावा नेपाली, पाकिस्तानी और अन्य कई देशों के लोग भी अवैध रूप से रहते हैंयदि यह कार्ड इनके भी हाथ लग गया तो सरकार को इन्हें देश का नागरिक मानना होगा। जिससे कार्ड का दुरपयोग तो होगा ही साथ ही साथ संभावित हैकिंग से देश की सुरक्षा को खतरा पैदा हो जाएगा ऐसी आशंका भी जताई जा रही कि हैकर्स इससे डाटाबेस का दुरुपयोग और निजता पर हमला भी कर सकते हैं।

5. डाटाबेस एक बड़ी चुनौती
यूनिक आईडेंटीफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया, यूआईडीएआई के लिए देश के1.2  अरब लोगों को एक विशिष्ट पहचान संख्या देना तथा उनके व्यक्तिगत आँकड़ों का डाटाबेस तैयार करना सबसे बड़ी चुनौती होगी। लोगों के डाटाबेस को हैकर्स की नजर से बचाना होगा। यह अब तक का सबसे बड़ा प्रोजेक्ट होगा। विश्व में जहां  कहीं भी ऐसी व्यवस्था है यह उनसे10 गुना बड़ी परियोजना होगी। यह पूरा प्रोजेक्ट सेन्ट्रल सर्वर्स पर आधारित होगा और डाटा शुद्ध करने के लिए मल्टीपल पैरलल प्रोसेसर्स का इस्तेमाल किया जाएगा। इसमें पूरी जानकारी कम्प्यूटरीकृत होगी।

6.कौन है नंदन नील केणी
2 जून 1955 को देश के बंगलुरू, कर्नाटक में जन्में नंदन नील केणी पेशे से एक उद्योगपति हैं। भारत की प्रमुख आईटी कंपनी इंफोसिस टेक्नोलॉजीज के को-चेयरमैन नंदन नीलकेणी देश में सुपर कंप्यूटर ब्रेन की तरह भी जाने जाते हैं। केंद्र सरकार ने कैबिनेट मंत्री का दर्जा देते हुए इन्हें यूआईडीएआई (यूनिक आईडेंटिफिकेशन डेटाबेस अथॉरिटी ऑफ इंडिया)का चेयरमैन नियुक्त किया है।


7.बैंक भी होंगे मालामाल
प्रत्येक नागरिक को मिलने वाली इस अनूठी पहचान से बैंकिंग प्रणाली के दायरे से बाहर खड़े अस्सी करोड़ से ज्यादा लोग बैंक व्यवस्था से जुड़ जाएंगे और सरकार एवं नागरिकों के बीच सीधा वित्तीय संबंध हो सकेगा। इसका सीधा असर विकास की गति पर पड़ेगा और भारत की बचत दर पर भी इसका व्यापक असर होगा। हर नागरिक या संगठन के पास ऐसा वित्तीय खाता बन जाएगा जिसमें सरकार सीधे धन हस्तांतरित कर पाएगी।
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