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देश का पहला स्टार कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग
-माधव जोशी

काली पैंट, काला शर्ट और उस पर काले रंग का ही कोट। सुधीर तैलंग की शक्सियत का एक हिस्सा थे। लिबाज़ काला था। और कार्टूनिंग की स्याही भी काली। लेकिन नज़र हमेशा सफेदपोश नेताओं पर टिकी रहती थी। कौन जाने किस पर उनकी नज़र टिके और अगले दिन उसका कार्टून बन जाए। सुधीर तैलंग देश के जाने-माने कार्टूनिस्ट थे। एक विशुद्ध पॉलिटिकल कार्टूनिस्ट। जिसने हमेशा नेताओं की कारगुजारियों पर व्यंग्य कसे। उन पर चुटकियां ली।
वही सुधीर तैलंग अब नहीं रहे। बीते शनिवार, 7 फरवरी को उन्होंने अंतिम सांस ली। वे ब्रेन कैंसर से ग्रसित थे। 1960, बीकानेर, राजस्थान में जन्में सुधीर तैलंग ने मात्र 10 वर्ष की आयू से ही कार्टून बनाना शुरू कर दिया था। जबकि 20 साल के होत-होते वे टाइम्स समूह में बतौर ट्रेनी जर्नलिस्ट की नौकरी पा चुके थे। इसी दौर में उनके बनाए कार्टून इलस्ट्रेटेड विकली व इकनोमिक टाइम्स में भी प्रकाशित होने लगे थे। इसके कुछ सालों पश्चात वे नवभारत टाइम्स के स्थायी कार्टूनिस्ट बने। लेकिन जल्द ही उन्हें हिन्दुस्तान टाइम्स का बुलावा आया। हिअर एण्ड नाऊ उनका लोकप्रिय कॉलम था। जिसने उस समय बेहद सुर्खियां बटोरी। जिसके चलते वर्ष 2004 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया।
वे थे तो एक कार्टूनिस्ट लेकिन उनका जलवा किसी सितारे कम नहीं था। वे एक स्टार कार्टूनिस्ट थे। नए ज़माने के कार्टूनिस्ट। जिसने ग्लैमर से अपनी कार्टून कला को चमकाया था। उन्होंने कार्टूनिंग के इतर भी अपना नाम कमाया। फिर चाहे फिल्म हो या फैशन शो, मीडिया हो या रसूखदार लोगों की महफिल उन्होंने अपनी पहचान हर जगह बनाई। राजनैतिक गलियारों में भी सुधीर तैलंग के दोस्त कम नहीं थे। यही वजह थी कि देश की लगभग सारी नामचीन हस्तियाँ उनके साथ नज़र आती थीं। 
अटल-आडवाणी, मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, माधवराव सिंधिया, शीला दिक्षित से आज के नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल तक सब पर उन्होंने कार्टून बनाए। सुधीर तैलंग के कुछ प्रमुख कार्टूनों में से एक तीन प्रधानमंत्रियों का एक ही क्लास में बैठ नकल करना रोचक था। तो वहीं जयललिता के बोझ तले अटलजी का दबा रहना मज़ेदार सा लगा। वैसे ही एक कार्टून जिसमें आड़वाणी अपना घर(पार्टी) बना रहे हैं और मोदी उसपर अपना नेमप्लेट ठोक रहे हैं चर्चित रहा। साथ ही कुछ कार्टून दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर भी बने। तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर उनकी किताब नो प्राइम मिनिस्टर इन्हीं सालों के बेहतरीन कार्टूनों का संग्रह है।
राजनैतिक विषयों पर सुधीर तैलंग का ह्यूमर काफी मजबूत था। पिछले कुछ सालों की उनकी कार्टूनिंग को देखा जाए तो उसमें एक अलग ही पैना पन आ गया था। सुधीर तैलंग ने जिस दौर में अपना नाम कमाया, वह अपने आप में एक बहुत बड़ा कारनामा था। वह दौर जिसमें लक्षमण, ठाकरे, रंगा व मारियो जैसे दिग्गज कार्टूनिस्ट थे।
लेकिन कुछ सालों पहले ही जब उन्हें ब्रेन कैंसर का पता चला वे तब से बीमार रहने लगे। ब्रेन के ऑपरेशन के वक्त भी उनका ह्यूमरस अंदाज कम न था। शायद इसलिए ही वे अपने ब्रेन ट्यूमर को भी ह्यूमरस बम कहते थे। ऑपरेशन के बाद किसी ने उनसे सवाल किया कि डॉक्टर को आपके दिमाग में क्या मिला? सुधीर तैलंग का जवाब था, कार्टून ही कार्टून। वे आख़िरी सांस तक डॉक्टर से कहते रहे मुझे ट्यूमर नहीं ह्यूमर हुआ है। आप मेरे दिमाग से ट्यूमर तो निकाल सकते हैं, ह्यूमर नहीं।  
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कार्टून के इतर भी बहुत कुछ रंगने वाला 
कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग
-माधव जोशी

सुधीर तैलंग से मेरी पहली मुलाकात भोपाल में हुई थी। उन्हें एक कार्यशाला में बुलाया गया था। जबकि मैं  दर्शक दीर्घा में बैठा था। कार्यशाला समाप्त होने पर हमारा विधिवत परिचय हुआ। सुधीर मेरा नाम पहले से जानते थे। जब मैंने उन्हें अपना कार्ड दिया तो देखते ही बोले, क्या गज़ब का कार्ड डिज़ाईन किया है दोस्त!”
सामाजिकतंत्र रक्षणाय, व्यंग्यचक्र प्रवर्तनाय।।कार्ड पर लिखे मेरे बोध वाक्य को पढ़ वे जमकर हंसे थे। कुछ और प्रशंसा भरे शब्द उन्होंने कहे और बोले, मैंने तुम्हारा नाम सुना है। दरअसल सुधीर तेलंग की बड़ी बहन भोपाल में ही रहा करतीं थीं। वे अक्सर मेरे दफ्तर में मुझसे मिलने आया करतीं। वे बड़ी ही मृदुभाषी और मिलनसार थीं। वे जब भी दफ्तर आतीं तो मुझसे लम्बी बातें किया करतीं। उसी दौरान वह अपने भाई सुधीर का जिक्र किया करती। संभवतः सुधीर जी ने उन्हीं से मेरे बारे मे सुना होगा।
कुछ सालों बाद मैं भी दिल्ली आ गया। वह सुधीर तैलंग का दौर था। मैंने उन्हें फोन कर मिलने का समय मांगा। समय दिया लेकिन वे समय पर नहीं मिले। दूसरी दफा भी कुछ ऐसा ही घटा। उसके बाद उनसे मिलने का विचार मेरे मन में कभी नहीं आया। इस बीच उन्हें पद्मश्री की घोषणा हुई। मैंने उन्हें तुरंत फोन किया। मेरी आवाज सुनते ही बोले, मेरी पद्मश्री की खुशी दोगुनी हो गई माधव, जो सबसे पहला फोन एक कार्टूनिस्ट का आया। उसके बाद बीच-बीच में बातें होती रही व मैसेज का आदान-प्रदान भी चलता रहा।
वर्ष 2012, संसद में शंकर के चार दशक पहले बनाए एक कार्टून पर जमकर हंगामा हुआ। कई दिनों तक संसद में हंगामा जारी था। अंततः सरकार ने उसे एनसीईआरटी की किताब से हटाने का निर्णय लिया गया। जिससे मैं बेहद आहत था। तब भी मैंने सुधीर जी से कहा था चलिए हम सब मिलकर महामहीम राष्ट्रपति जी से इन सारे नेताओं की शिकायत कर आते हैं। इसी बहाने इन नेताओं पर कुछ कार्टून बनाने का मौका हमें मिलेगा और ख़बर बनेगी सो अलग। लेकिन बात कुछ बन न सकी।  
2015 फिर एक दिन अचानक फ्रांस में शार्ली एब्दो पत्रिका पर हमले की ख़बर आयी। आतंकियों ने मैगज़ीन के चार कार्टूनिस्टों की हत्या कर दी थी। उस वक्त टीवी पर सुधीर तैलंग अपने फ्रांस दौरे के संस्मरण सुना रहे थे। साथ ही उस पत्रिका के ऑफिस में बिताए अपने चंद लम्हें भी साझा कर रहे थे। जिसमें वे मुझे कहीं शार्ली एब्दो की तरफदारी करते लगे। मैं तुरंत फोन लगाकर उनसे अपना विरोध दर्ज कराया। मैंने कहा कि किसी की भावनाओं को आहत करना कार्टूनिंग नहीं है। लेकिन उनका नज़रिया अलग था। जम कर बहस हुई। शायद वही हमारी आख़िरी बातचीत थी।
आज सुधीर तैलंग हमारे बीच नहीं है। एक ऐसे वक्त में किसी कार्टूनिस्ट का जाना अखरता है जब देश और दुनिया में व्यंग्य और कटाक्ष की ज्यादा जरूरत हो। जहां देश में चारो ओर असहिष्णुता पर बहस छिड़ी हो। आतंकवाद समूचे विश्व को मुंह चिढ़ा रहा हो। महंगाई कम होने का नाम न ले रही हो। दिल्ली में केन्द्र और राज्य के बीच मारा मारी हो। आसम, पश्चिम बंगाल, पंजाब व उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के चुनाव सामने खड़े हो। ऐसे में उस पर चुटकी लेने वाला कोई दिग्गज कार्टूनिस्ट हमारे बीच न हो तो सोचिए व्यंग्य की धार कैसी होगी?
सच कहूं तो मैं सुधीर तैलंग के काम से ज्यादा उनके नाम से प्रभावित था। सुधीर तैलंग ने जिस दौर में अपना नाम कमाया वह अपने आप में एक बहुत बड़ा कारनामा था। वह दौर जिसमें लक्षमण, ठाकरे, रंगा व मारियो जैसे दिग्गज कार्टूनिस्ट थे। जिनकी रेखाएं पाठकों के दिलों-दिमाग पर राज़ कर रही थी। जो कार्टून कला की मानक मानी जाती थी। जहां लक्षमण कार्टूनिंग का पर्याय बन चुके थे। ऐसे में सुधीर तैलंग का इस क्षेत्र में आना और मशहूर हो जाना अपने आप में अजूबा था। हलांकि उन सालों की परिस्थियों पर नज़र डाले तो समूचे देश में राजनीतिक अराजक्ता का माहैल था। एक के बाद एक अल्पमत सरकारों का बनना और बिगड़ने का क्रम जारी था। एक तरफ मंडल तो दूसरी ओर कमंडल का शोर था। ऐसे में कार्टूनिस्टों को कार्टून के लिए ढ़ेरो विषय मिल रहे थे। उसके बाद घोटालों का ऐसा दौर चला कि मानों हम कार्टूनिस्टों के लिए किसी ने आयडिया का पिटारा खोलकर रख दिया हो। ऐसे में सुधीर तैलंग भी अनवरत काम करते रहे। आगे कुछ वर्षों में देश में टीवी चैनलों की बाढ़ आ गई। सुधीर तैलंग के साथी यहां वहां चैनलों में हेड बन गए। बस फिर क्या था सुधीर तैलंग को एक नई राह मिली। जिसका उन्होनें भरपूर उपयोग किया। वे अक्सर चुनाव परिणामों के दौरान टीवी पर भी नज़र आने लगे। इसके अतिरिक्त भी स्पेशल गेस्ट के तौर पर टीवी चैनलों पर आना अनवरत जारी रहा जिससे वे प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचे।
कहने को तो लक्ष्मण एक पॉलिटिकल कार्टूनिस्ट कहे जाते थे। लेकिन मेरी नज़र में वे एक बेहतरीन सोशल कार्टूनिस्ट थे। उनके राजनैतिक चित्रों में भी कहीं न कहीं सामाजिकता छुपी होती थी। एक समूचे पॉलीटिकल कार्टूनिस्ट के तौर पर मैंने सुधीर तैलंग को ही देखा। आर के लक्ष्मण और मारियो की रेखाओं से तुलना की जाए तो शायद हम सुधीर तैलंग को याद न भी रखें लेकिन राजनैतिक विषयों पर सुधीर तैलंग का ह्यूमर, उनके ट्यूमर से ज्यादा खतरनाक था। पिछले कुछ सालों की उनकी कार्टूनिंग को देखा जाए तो आप पाएंगे कि उसमें एक अलग ही पैना पन आ गया था। शायद यही वजह थी कि अपने ब्रेन ट्यूमर को भी ह्यूमरस अंदाज़ में देखा करते थे। वे बातों ही बातों में उसे ह्यूमरस बम कहते थे। उनके ऑपरेशन के बाद किसी ने उनसे सवाल किया कि डॉक्टर को आपके दिमाग में क्या मिला? तो सुधीर तैलंग का जवाब था कार्टून ही कार्टून।
सुधीर तैलंग का व्यक्तित्व अपने आप में अजूबा इसलिए भी था क्योंकि उन्होंने कार्टूनिंग के इतर भी अपना नाम कमाया। शायद वह देश के सबसे ग्लैमरस कार्टूनिस्ट थे। जहां देश के कार्टूनिस्ट मात्र एक कॉलम की जद्दोजहद में लगे हों वहां समाज के अन्य क्षेत्रों में अपनी कला की धमक पहुंचाना भी एक कला थी। फिर चाहे फिल्म हो या फैशन शो, मीडिया में अपनी पहचान बनाए रखनी हो या राजनैतिक गलियारों में। सुधीर तैलंग इसके माहिर खिलाड़ी थे। यही वजह थी कि देश की लगभग सारी नामचीन हस्तियों के साथ खासकर राजनेताओं के साथ वे नज़र आते थे।  
सुधीर तैलंग के कुछ प्रमुख कार्टूनों में से एक तीन प्रधानमंत्रियों का एक ही क्लास में बैठ नकल करना रोचक था। तो वहीं जयललिता के बोझ तले अटलजी का दबा रहना मज़ेदार सा लगा। वैसे ही 2013-14 में प्रकाशित एक कार्टून जिसमें आड़वाणी अपना घर(पार्टी) बना रहे हैं और मोदी उसपर अपना नेमप्लेट ठोक रहे हैं चर्चित रहा। साथ ही कुछ कार्टून दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर भी बने। तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर उनकी किताब नो प्राइ मिनिस्टर इन्हीं सालों के बेहतरीन कार्टूनों का संग्रह है।
सुधीर तैलंग का जन्म राजस्थान के बीकानेर में सन् 1960 में हुआ था। उन्होंने इलस्ट्रेटेड विकली से अपनी कार्टूनिंग की शुरुआत की। फिर बाद में नवभारत टाईम्स, इंडियन एक्सप्रेस व एशियन ऐजके साथ भी काम किया। वर्ष 2004 में उन्हें पद्मश्री से नवाज़ा गया।  
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ट्यूमर से भी ज्यादा खतरनाक एक ह्यूमर
-माधव जोशी

वह था तो मात्र एक कार्टूनिस्ट लेकिन उसका जलवा किसी सितारे कम नहीं था। कागज पर भले ही उसने हमेशा काली स्याही से ही काम चलाया हो लेकिन उसकी जिंदगी कई रंगों से भरी थी। वह उन कार्टूनिस्टों मे से कतई नहीं था जो मात्र एक कॉलम पाकर खुश रह सकते थे। वह उनमें से भी नहीं था जो अपनी व्यस्तता में अपने उस कॉलम की गरिमा को भुल जाए। वह काम के वक्त कार्टूनिस्ट था जबकि उसके इतर एक स्टार। वह एक स्टार कार्टूनिस्ट था। नए ज़माने का कार्टूनिस्ट। जिसने ग्लैमर से अपनी कार्टून कला को चमकाया था। नाम था सुधीर तैलंग।
इसमें कोई दो राय नहीं कि लक्ष्मण अब तक भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय कार्टूनिस्ट हुए। जिनकी ख्याति एक पॉलिटिकल कार्टूनिस्ट के तौर पर थी। लेकिन मेरी नज़र में वे एक बेहतरीन सोशल कार्टूनिस्ट थे। उनके राजनैतिक चित्रों में भी कहीं न कहीं सामाजिकता छुपी होती थी। एक विशुद्ध पॉलीटिकल कार्टूनिस्ट के तौर पर मैंने सुधीर तैलंग को ही देखा था। यही वजह थी कि सुधीर के कार्टूनों में सामाजिक विषय कम ही देखने को मिलते थे। आर के लक्ष्मण और मारियो की रेखाओं से यदि हम सुधीर तैलंग की रेखाओं की तुलना करें तो शायद हम उन्हें भविष्य में याद न भी रखें। लेकिन राजनैतिक विषयों पर सुधीर तैलंग का ह्यूमर काफी मजबूत था। या यूं कहें कि उनका ह्यूमर उनके ट्यूमर से ज्यादा खतरनाक था। यदि पिछले कुछ सालों की उनकी कार्टूनिंग को देखा जाए तो आप पाएंगे कि उसमें एक अलग ही पैना पन आ गया था। शायद यही वजह थी कि वे अपने ब्रेन ट्यूमर को भी ह्यूमरस अंदाज़ में देखा करते थे। वे बातों ही बातों में उसे ह्यूमरस बम कहते थे। ऑपरेशन के बाद किसी ने उनसे सवाल किया कि डॉक्टर को आपके दिमाग में क्या मिला?  सुधीर तैलंग का जवाब था, कार्टून ही कार्टून। वे आख़िरी सांस तक डॉक्टर से कहते रहे मुझे ट्यूमर नहीं ह्यूमर हुआ है। आप मेरे दिमाग से ट्यूमर तो निकाल सकते हैं, ह्यूमर नहीं। 
सुधीर तैलंग का व्यक्तित्व अपने आप में अजूबा था। अजूबा इसलिए भी क्योंकि उन्होंने कार्टूनिंग के इतर भी अपना नाम कमाया। शायद वह देश के सबसे ग्लैमरस कार्टूनिस्ट थे। जहां देश के अन्य कार्टूनिस्ट अपने कॉलम की जद्दोजहद में लगे थे, वहां वे समाज के अन्य क्षेत्रों में अपनी कला की धमक बखूबी पहुंचा रहे थे। फिर चाहे फिल्म हो या फैशन शो, मीडिया में अपनी पहचान बनाए रखनी हो या राजनैतिक गलियारों में। सुधीर तैलंग इसके माहिर खिलाड़ी थे। यही वजह थी कि देश की लगभग सारी नामचीन हस्तियाँ उनके साथ नज़र आती थीं। 
सच कहूं तो मैं सुधीर तैलंग के काम से ज्यादा उनके नाम से प्रभावित था। सुधीर तैलंग ने जिस दौर में अपना नाम कमाया, वह अपने आप में एक बहुत बड़ा कारनामा था। वह दौर जिसमें लक्षमण, ठाकरे, रंगा व मारियो जैसे दिग्गज कार्टूनिस्ट थे। जिनकी रेखाएं कार्टून कला की मानक बन चुकिं थीं। जहां लक्ष्मण के आसपास भी कोई नज़र नहीं आता था। ऐसे में सुधीर तैलंग का इस क्षेत्र में आना और मशहूर हो जाना अपने आप में अजूबा था।
हलांकि उन सालों की परिस्थियों पर नज़र डाले तो समूचे देश में राजनीतिक अराजक्ता का माहैल था। एक के बाद एक अल्पमत सरकारों का बनने और बिगड़ने का क्रम जारी था। एक तरफ मंडल तो दूसरी ओर कमंडल का शोर था। ऐसे में कार्टूनिस्टों को कार्टून के लिए ढ़ेरो विषय मिल रहे थे। उसके बाद घोटालों का ऐसा दौर चला कि हम कार्टूनिस्टों के वारे-न्यारे हो चुके थे। घोटाला सिर्फ घोटाला न होकर आयडिया का पिटारा हुआ करता था। ऐसे में सुधीर तैलंग भी कूची भी जमकर चलती रही। आगे कुछ वर्षों में देश में टीवी चैनलों की बाढ़ आ गई। सुधीर तैलंग के साथी यहां वहां चैनलों में हेड बन गए। जिससे सुधीर तैलंग ने एक नई राह पकड़ी। जिसका उन्होनें भरपूर फायदा हुआ। वे अक्सर चुनाव परिणाम, टीवी डीबेट्स व अन्य कार्यक्रमों में स्पेशल गेस्ट के तौर पर नज़र आने लगे। जिससे वे प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचे। वर्ष 2004 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाज़ा। इतना कुछ हासिल कर लेने के बाद भी ह्यूमर का कीड़ा उनमें बचा रहातो इसे ट्यूमर से ज्यादा खतरनाक मानना ही होगा।


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बेगम परवीन सुल्तान

आज बरसों बाद बेगम परवीन सुल्ताना को सुनने का मौका मिला। आज भी वही ठसक, वही खूबसूरती, वही अंदाज़े बयां जो कभी बचपन में देखा था। गले में मोतियों की माला। हाथों में सोने के कड़े। चमकती ज़रेदार साड़ी और उस पर नीली मखमली शॉल। चेहरे पर ऐसा तेज कि मानों साक्षात वागदेवी तानपूरे पर तान छेड़ रही हो। यकीन करना मुश्किल हो रहा था कि मैं वाकई एक इतने बड़े कलाकार को 40 साल बाद लाईव सुन रहा हूं। जब सुना था तब शायद मैं कक्षा पांचवी या छठी में रहा हूंगा। जबलपूर का वह शहीद स्मारक जहां अधिकत्तर शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम हुआ करते थे। जहां कभी -कभी तो शाम ऐसे सजती थी कि वो सुबह की चौखट छू कर ही खत्म होती थी। हम वहीं पिता की गोद में राग-रागनियों को लोरी की तरह सुन सो जाते थे। जब पिता उठाते थे तो राग मालकौंस के संवादी स्वर कानों में गूंजते थे।
लाख मना करने के बाद भी पिता हम दोनों भाइयों को पैदल पांच किमी. ले जाया करते। पिता हमेशा कहा करते कि तानसेन बनने के पहले कानसेन होना जरूरी है। पिता की यह हमेशा दिली खश्वाहिश रही कि उनका कोई बेटा शास्त्रीय गायन सीखे। लेकिन पिता का दुर्भाग्य कि दोनों बेटे सिर्फ कानसेन ही बन सके। बड़े भाई ने तो कम से कम तबले की चार परीक्षाएं भी पास की। जरूरत पड़ जाए तो वह आज भी आधी अधूरी संगत कर सकते हैं। लेकिन मैं उतना भी होनहार न निकला। ज़ोर जबरदस्ती करके पिता ने भातखंडे संगीत महाविद्यालय में मेरा दाखिला गायन में कराया था। लेकिन मैं पहली फेल होकर ही लौट आया। शायद किस्मत को कुछ और मंजूर था। लेकिन बावजूद इसके पिता ने हमें शास्त्रीय संगीत के बैठकों में ले जाने की अपनी ज़िद नहीं छोड़ी। हम जाते रहे, बे मन से जाते रहे। लेकिन न जाने कब मजा आने लगा और अब वह रोज़ की आदत सी बन गई है।

ऐसा ही मेरा एक शास्त्रीय किस्सा मुझे आज कमानी ऑडिटोरियम में बैठे-बैठे याद आया। बात वही 40 साल पहले भातखंड़े महाविद्यालय में आयोजित एक समारोह की है। इसी दौरान मैं जम कर खांसा था। आस पास बैठे सभी श्रोता एकाएक मुझे पर अपनी आंखे तरेर बैठे थे। तभी मेरे आगे बैठी एक भद्र महिला ने मुझे अपनी पर्स में से डेढ़ लोंग(1.5) खाने को दी और कहा कि जब भी खांसी सताए लौंग खाया करो। वह भी एक नहीं ड़ेढ। और उसका फूल तोडना मत भूलना। वह काफी गर्म होता है। तकरीबन दो-तीन साल पहले उस महिला से अचानक जबलपूर रेलवे स्टेशन पर मुलाकात हुई। हम सभी एक ही कोच में थे। अब वह काफी वृद्ध हो चुकि थी। जब मैंने उन्हें वह संस्मरण सुनाया तो वह आश्चर्यचकित रह गई। वह महिला कोई और नहीं बल्कि तत्कालीन भाजपा सांसद जयश्री बनर्जी थी।खैर! बात कहां से निकली और कहां जा पहुंची।
वाकई परवीन सुल्ताना आज भी लाजवाब गाती हैं। आज उन्होंने पहले तो राग पूर्वा धनाश्री गाया और फिर हंसध्वनि में तराना सुनाया। बाद में श्रोताओं के विशेष आग्रह पर अपना परंपरागत भजन दयानी, भवानी सुनाया। लेकिन इस सबसे बढ़कर उनकी वह आदत जो मैंने बजपन में देखी थी वह आज भी वैसी ही थी। अपने साथी कलाकारों की तारीफ भी वह जमकर कर रही थी। जो अन्य कलाकारों में कम ही देखने को मिलती है। एक बार तो तबलची को कह बैठी, " बड़ा मीठा बजाता है। जीता रह।"
और श्रोताओं के क्या कहने। जब परवीन सुल्ताना ने कहा, आप सब तो बड़ा मिठा, कितना अच्छा सुनते हैं।मन करता मैं जहां भी गाऊं आप सब श्रोताओं को यूं ही अपने सामने बिठाकर अपनी महफिल सजा लूं। अल्लाह मेरी दुआ कुबूल करे। एक पल तो लगा जैसे उन्होंने पिता के परिश्रम की सराहना की हो।

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कहानी पेंटिंग 1BHK की...

विषय एकदम नया। मन को छूता हुआ। भावना स्पर्शित। दूरदर्शी। समाज से सरोकार रखता। मध्यवर्गी परिवार की अभिलाषाओं का समग्र चित्रण। जिसे कला की भाषा में हम विशुद्ध समकालीन चित्रकला कह सकते हैं। समकालीन न सिर्फ विषय को लेकर बल्कि प्रयोगात्मक्ता के आधार पर भी। जिसमें अपना एक अलग कैनवास बनाने की चित्रकार की ज़िद साफ नज़र आती हो। देश के सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट एवं चित्रकार माधव जोशी की बनायी पेंटिंग्स “ 1BHK ” की कथा  भी कुछ ऐसी ही रोचक है।
सालों से घर के कोने में पड़े प्लाई के टुकड़ों की किस्मत आख़िर एक दिन चमक उठी। पत्नी का रोष आपे से बाहर हो उठा था। वह अब इस कचरे को एक पल भी बर्दाश्त करने के मूड में न थी। कल शाम तक की अंतिम अधिसूचना जारी कर वह अपने काम में क्या लगी मानो, समूचे घर में चुनाव प्रचार थम जाने जैसा सन्नाटा फैल गया। रात बिना कुछ कहे बीती लेकिन सुबह तड़के हथौड़े की मार ने पत्नी को एक बार फिर कूपित कर दिया।
क्या कर रहे हो यह सुबह-सुबह?” – पत्नी ने पूछा।
अपना कैनवास तैयार कर रहा हूं।- माधव ने कहा।
जवाब सुन पत्नी सतब्ध रह गई। कैनवास और इन प्लाई के टुकड़ो से...?”
हांक्यों?  जीवन भी तो ऐसे ही टुकड़ों से मिलकर बनता है। फिर कैनवास क्यों नहीं ?”
पेंटिंग “1BHK” का कैनवास इन्हीं टुकड़ों को जोड़कर बनाया गया था। माधव ने बताया कि पहले उन्होंने इन प्लाई के टुकड़ों को असंयोजित तरीके से जोड़ा। फिर उन्हें एक निश्चित आकार की फ्रेम में कैद कर दिया। ताकि वे टुकड़े एक समतल बोर्ड का आकार ले सके। हलांकि वह सब भी अभी पेंटिग करने के अनकूल नहीं था। अतः उन्होंने उस पर, पुराने समाचार पत्रों को फेविकॉल के माध्यम से पेस्ट किया और सूखने पर उसे सफेद रंग से रंग दिया। सफेद की चमक आज तक किससे छिपी है? जभी तो इस चुनावी मौसम में नेताओं की सफेद चमचमाती पोशाकें माधव को कैनवास से ज्यादा आकर्षित करती हैं। माधव एक जाने-माने कार्टूनिस्ट हैं। वे कार्टूनिस्ट के तौर पर अपनी एक अलग पहचान रखते हैं लेकिन वे स्वयं एक पेंटर के तौर पर खुद को अभी स्थापित नहीं मानते। वे कहते हैं कि पेंटिंग करने का मन तो बहुत करता है लेकिन नेताओं पर कटाक्ष करने से ही फुरसत नहीं मिलती। पेंटिंग और कार्टूनिंग दोनों कला की दो अलग विधाएं हैं। माधव दोनों में हाथ आज़माते हैं।  लेकिन फिलहाल तो उनकी पत्नी का चेहरा दर्पण की भांति चमक रहा था और वे स्वयं उस पर अपनी पेंटिंग का अक्स देख रहे थे।
टुकड़ों के बीज छोड़ी गई खाली जगह अब माधव के लिए नई चुनौती लिए खड़ी थी। टुकड़ों की आडी-तिरझी कटिंग्स और उनके बीच की दरारें अब भी खल रही थी। इरादा कर उसमें फेविकॉल और वाईट सीमेंट की लुगदी भरी गई और सूखने तक का इंतजार किया गया। इंतज़ार, वहीं जो सबको होता है। एक चित्र के पूर्ण होने का इंतज़ार। किसी ने ठीक ही कहा है कि जो ये नहीं कर सकते, वे हमेशा अधूरे ही रह जाते हैं।  
जिज्ञासावश पत्नी ने पूछा, अब इस पर बनाओगे क्या...?”
माधव जानते थे वह एक इंजीनियर है। बिना किसी डाईग्राम के प्रोजेक्ट को पूरा नहीं कर सकती। कर सकती तो उनकी तरह आर्टिस्ट होती! मजाकिया लहजे में माधव हमेशा कहा करते हैं कि आर्टिस्ट और भगवान से कुछ भी छिपा नहीं है। शायद इसलिए ही तो वे सृजन के काम में जुटे हैं।
प्लाई के टुकड़ों की डेफ्थ अर्थात गहराई पहले ही कैनवास को 3-डी लुक दे रही थी। लेकिन अब भी पेन्टर की चिंता उसके विषय को लेकर थी। विषय वह जो समकालीन हो और हर किसी के दिल को छू सके। विषय के इंतज़ार में कई दिन बीते। इस बीच वे कोलकाता और हैदराबाद सपरिवार घूम भी आए। अचानक उन्हें सूचना मिली कि उनके मोठे काका (ताऊजी) शांत हुए। वे अपने अंतिम दिनों में एक दम अकेले रह गए थे । 90 से ऊपर की उम्र और तीसरी मंज़िल का एक “1BHK” फ्लैट, यही दो उनके साथी बचे थे। उनका बेटा नौकरी की वजह से दूसरे शहर रहता है जबकि उनकी बेटी कुछ माह पूर्व तो पत्नी कुछ सालों पहले ही गुजरी। जिस विषय की तलाश थी वह माधव को मिल चुका था।
एक दुखद समाचार से कई तरह की चिंता और आशंकाएं जन्मती हैं। माधव के अपने मां-पिता भी भोपाल में ही रहा करते हैं। लाख कोशिश की लेकिन, वे इस महानगर में खुद को एडजेस्ट ही नहीं कर पाते। चित्रकार के मन में सवाल बार-बार कौंध रहा था। मां-पिता का अकेलापन वे लगातार कई सालों से महसूस कर रहे थे। अतः उन्होंने इसी विषय को चुना। एक थॉट प्रोसेस को तीन चरणों में बांटा, फिर उसे पेंटिंग की शक्ल में ढाल दिया। और कुछ इस तरह निर्मित हुई तीन बेहतरीन कलाकृतियां। जिसका नाम रखा गया 1BHK”
मौका था ललितकला अकादमी के त्तवावधान में आयोजित एक चित्रकला प्रदर्शनी का। एस्प्रेशन ऑफ एट नामक आठ चित्रकारों के एक झुंड ने रंगों से अपनी अभिव्यक्ति का मार्ग खोजा था। माधव उन्हीं में से एक थे। विविध कलाओं के स्वरूप इस दीर्घा से झांक रहे थे। सक्ल्पचर, पेंटिंग्स, इलस्ट्रेशन, पोट्रेट्स।
माधव ने अपने इन चित्रों में एक्रेलिक रंगों का बखूबी इस्तेमाल किया है। वहीं टूकड़ों के बीच की गैप थ्री डाईमेंशनल स्केच के माध्यम से भरी गई। जिससे वे अधिक सजीव और विषय-निष्ठ लग सकें। जहां 1BHK का पहला चित्र एक नव विवाहित जोड़े की अभिलाषाओं को चित्रित करता है तो वहीं दूसरा चित्र कुछ वर्षोंपरांत उपस्थित होने वाले आर्थिक संकट जैसे होम लोन का भारी पड़ना, बच्चों की फीस, घर के खर्चे इत्यादि को चित्रित करता है। जिसमें तनाव, भय, डिप्रेशन व आपसी संवाद साफ देखे जा सकते हैं। इस मानसिक पीड़ा को दर्शाने के माधव ने इस फ्रेम में समाचार पत्रों की जगह टिशु पेपर का इस्तेमाल किया। ताकि उस पर एक अलग टेक्शचर लाया जा सके। वहीं, विषय पर तीसरी पेंटिंग बच्चों की ग्रोथ और उनकी व्यस्त दिनचर्या को इंगित करती है। लेकिन इसी क्रम में मां-पिता का अकेलापन दर्शकों को तीनों पेंटिंग्स देखने के बाद सोचने पर मजबूर कर देता है। 
माधव इस सबके लिए अपनी पत्नी को धन्यवाद देते हैं। तथा कहते नहीं थकते कि बीवी की डांट वास्तव में संजीवनी का काम करती है। वे अपने मुंह से न कहते तो भी हम यह जान ही लेते कि प्रत्येक सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है।

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बिन तेरे महाराजा...

एअर इंडिया का महाराजा अब रिटायर होने को है। सरकार से चली ख़बर की मानें तो अब उसे फोर्स्ड रिटायर्टमेंट दिया जा रहा है। अर्थात एक जबरिया सेवानिवृति। जैसे किसी कम्पनी के सीइओ, एमडी या प्रबंधन के जुड़े बड़े अधिकारियों को दी जाती है। ऐसी ही एक तलवार इन दिनों महाराजा के सिर पर भी लटक रही है। आदेश दिया गया है कि अब महाराजा को अलविदा कहा जाए और बदले में आम आदमी को लाया जाए। निहितार्थ यह निकाला जा रहा है कि अब राजा और महाराजाओं का युग बीत गया। अब आम आदमी का ज़माना है।
यह एक बुरी ख़बर है। मेरे ख्याल से प्रत्येक भारतीय के लिए भी। विश्व के उन तमाम हवाई यात्रियों के लिए भी जो महाराजा को देख आकर्षित हुआ करते थे। विशेष कर कला और ऐतिहासिक धरोहरों के प्रेमियों के लिए। उन लोगों के लिए भी जो हमेशा अपनी पुरानी चीज़ों से प्यार करते रहे हैं। फिर घर के किसी कोने में पड़ा अपने दादा या परदादा का चश्मा हो या उनकी छड़ी। फिर वह पुराना धूल खाता ग्रामोफोन ही क्यों न हो, जिस पर कभी लता दीदी और सहगल साहब के गाने बजा करते थे। कोई भी उसे अपने से अलग नहीं होने देना चाहेगा। यदि मैडम तुसाड से भी पूछा जाए कि क्या वह अपने सबसे पुराने मोम के पुतले को अलविदा कहना चाहेंगी ? यकीनन वे भी जवाब ना में ही देंगी। शायद ऐसा ही कुछ जवाब भारतीयों का भी होगा, जब उनसे अपने महाराजा को अलविदा कहने को कहा जाएगा।
महाराजा पिछले 68 सालों दुनिया भर में विमानन के क्षेत्र में हम भारतीयों का प्रतिनिधित्व कर रहा है। भारतीय विमानन कंपनी एअर इंडिया का मैसकॉट कहा जाने वाले महाराजा का जन्म 1946 मे हुआ था। जिसे तत्कालीन कमर्शियल डायरेक्टर बॉबी कूका और उमेश राव ने जे. वॉल्टर थॉम्सन लि. के सहयोग से बनाया। जिसे ग्राफिक आर्टिस्ट अर्नब रॉय ने अंतिम रूप दिया। आज़ादी से पहले जन्में इस महाराजा को देश-विदेश में भरपूर पहचान मिली। विशेषकर तब जब भारतीय विमानन कम्पनी एअर इंडिया ने इसका इस्तेमाल अपनी हर चीज़ पर लोगोकी तरह करना शुरू किया। महाराजा की ख्याति आज भी किसी से कम नहीं है। वह देश में भी उतना ही पापुलर है जितना कि सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर के लक्षमण का कॉमन मैन या फिर प्राण साहब के चाचा चौधरी। वही महाराजा आज उस मुकाम पर खड़ा है जहां शायद अब हमें उसे अलविदा कहना पड़े। प्रधानमंत्री ने नागरीय विमानन मंत्री पी. अशोक गजपति राजू को आदेश दिया है कि वे इस मैसकॉट को बदल दें और उसकी जगह आम आदमीके चेहरे को प्रोजेक्ट करे। शुभंकर ऐसा बने जिसमें आम आदमी की झलक मिले।
जो भी हो ख़बर सुन मैं आहत हूं। जानता हूं कि प्रधानमंत्री एअर इंडिया की माली हालत सुधारने के लिए प्रतिबद्ध हैं। वे इसे फिर उसी मुकाम पर देखना चाहते हैं जिस मुकाम पर वह हुआ करती थी। साथ ही वे चाहते हैं कि देश के सारे विमानतल सौर्य उर्जा से चलें ताकि वहां पर उपयोग में आने वाली बिजली का खर्च कम किया जा सके। देश में किसी भी एयरपोर्ट पर पहुचने के लिए यात्रियों को दिक्कतों का सामना न करना पड़े। वह एक बेहतर कनेक्टीविटी का केन्द्र बने। जहां मेट्रो, हाईवे, फ्लाई ओवर तथा परिवहन के तमाम साधन उपलब्ध हों। निश्चित ही यह एक सराहनीय कदम है।
लेकिन सवाल उठता है कि एअर इंडिया को घाटे से उबारने के लिए महाराजा कि बली क्यों? माना कि एअर इंडिया घाटे में है। तकरीबन 49000 करोड़ की लोन राशि कम्पनी पर बकाया है। लेकिन इस हालत के लिए पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा लिए गए निर्णय तथा प्रबंधकों का मनमाना रवैया जिम्मेदार है। महाराजा नहीं। आप चाहें तो एअर इंडिया के कामकाज का तरीका बदलिए। उनके प्रबंधकों के मनमाने विदेश दौरों पर रोक लगाइये। लेकिन महाराजा को बक्शिए।
प्रधानमंत्री जी, यह महाराजा वैसा नहीं है जैसा आप समझ रहे हैं। बेहतर होता आप इसे बदलने का आदेश न देते। कृपया, इसके निर्माण की कहानी को सुनिए। इस शुभंकर के भावार्थ को समझिए। आख़िर क्यों कर इसका नाम महाराजा रखा गया। शायद आपको यह जानना जरूरी भी है। आप जानेंगे तो पाएंगे कि महाराजा बस नाम का ही महाराजा है। दिखने में भले ही उसकी राजसी वेशभूषा हो लेकिन वह वास्तव में वैसा राजसी, शाही नहीं है। न ही उसका खून नीला है। वह सदैव ड्यूटी निभाने के लिए सज्ज है। वह इसमें कभी कोई कोताही नहीं बरतता। जैसा कि जे. वॉल्टर थॉम्सन लि. और ग्राफिक डिजाईनर अर्नब रॉय ने इसका वर्णन किया है।
उसका रंग गोरा, काली लंबी रौबदार मूछें, सुंदर गोल आंखे हैं। मानों पेरिस का कोई प्रेमी हो, टोक्यो का सूमो पहलवान हो या फिर एक फुटपाथ पर बिना झिझक अपनी कला का प्रदर्शन करने वाला कलाकार। उसके चेहरे पर सदैव अगाध शांति और संतुष्टि वास करती है। जैसे कि वह कोई साधु हो। बावजूद इसके वह हमेशा अपनी पलकें नीचीं रख विमान से यात्रा करने वाले प्रत्येक यात्री के लिए अदब से सिर झुकाए खड़ा रहता है। भारतीय संस्कृति के अनुरूपअतिथि देवो भवः को चरितार्थ करता हुआ। उसकी यही अदा दुनिया भर के हवाई यात्रियों को भारत आने के लिए आकर्षित करती है। वास्तव में, वह अपनी अनोखी शैली, आकर्षण और बुद्धि क्षमता के साथ खुद को महाराजा कहलाना पसंद करता है। जबकि दुनिया जानती है कि वह एक सहज व्यक्तित्व का धनी है। वह लगभग हर यात्री को एक दोस्त की नज़र से देखता है। यहां तक ​​कि दुनिया के दूर-सुदूर कोनों में भी वह भरी गर्मी में आतिथ्य के लिए विमान के बाहर तक आ पहुंच जाता है, जो एक दोस्त ही कर सकता है।
उसकी हरकत, उसकी भाव भंगिमाएं, उसका सूक्ष्म हास्य एक बेजोड़ भावना लिए है। जो यात्रियों की सेवा को बढ़ावा देने के लिए हमेशा प्रेरित करता है। वास्तव में उसका यह स्वरूप हास्य और मौलिकता के समिश्रण का परिचायक है। जिसके लिए एयर इंडिया को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं।
प्रधानमंत्री जी आज भले ही एअर इंडिया अपने तौर तरीकों और कामकाज के लिए बदनाम हो रही हो लेकिन ऐसी दशा में भी महाराजा की चमक फीकी नहीं हुई है। आज भी हर भारतीय उससे बेहद प्यार करता है। अच्छा होता आप इस शुभंकर को छोड़ एयरक्राफ्ट के ऊपरी डिजाईन में बदलाव करते। वैसे भी अब तक अनेकों बार इसे बदला गया है। आख़िर निर्णय आपका है आपने सोच समझ के ही फैसला लिया होगा।
लेकिन आपके इस निर्णय पर मुझे संदेह है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस शुभंकर को भी आप इसलिए अलविदा कहना चाहते हैं क्योंकि यह आजादी के पहले जन्मा है। आपने शपथ से पूर्व अपने दिए एक  भाषण में कहा था कि यह आजादी के बाद पैदा हुए लोगों की सरकार है। यदि ऐसा है तो कृपया निवेदन है कि महाराजा को राजनीति की बलीवेदी पर न चढ़ाइये। 
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शर्म करो शार्ली 


पिछले कई दिनों से लोग मुझसे सवाल कर रहे थे कि फ्रांस की राजधानी पेरिस में कार्टूनिस्टों पर हुए हमले को आप किस तरह देखते हैं? मेरी प्रथम प्रतिक्रिया यही होती है कि जो भी हुआ दुखद हुआ और ऐसा नहीं होना चाहिए था। जब से यह ख़बर सुनी है मैं इस बरबर हत्याकांड और आतंक के खिलाफ लगातार कार्टून बना रहा हूं और बनाता रहूंगा। विशेषकर तब जब मेरे पेशेवर मित्रों के साथ इस तरह की वारदात हो। लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं कि मैं इस घटना को किसी ऐतिहासक दिवस या कार्टूनिस्टों की शहादत के रूप में याद रखूं। निश्चित ही यह दिन मुझे कार्टूनिंग इतिहास में एक काले धब्बे के रूप में याद रहेगा। आप माने या न माने लेकिन यह हादसा द्वीपक्षीय है। एक पक्ष तो हम सबको इस बरबरता के रूप में दिखाई दे रहा है। वहीं दूसरा पक्ष, बाज़ार की प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए एक मुर्ख सम्पादक की हठधर्मिता का भी है। जिसे उसने बड़ी ही खूबसूरर्ती से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जामा पहना रक्खा था। कार्टून और व्यंग्य के नाम पर अभिव्यक्ति की सीमा को लचीला मान बैठा था। तो  वहीं यह नतीजा उन कार्टूनिस्टों की गैर जिम्मेदाराना कलम चलाने का भी है। कैसे एक गलत सम्पादकीय सोच की वजह से चार बेहतरीन कार्टूनिस्ट व कई अन्य लोग अपनी जान गवां बैठे।
  आज मेरे कई वरिष्ठ मित्र इस बात पर बहस में जुटे हैं कि कार्टूनिंग में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए। मैं पूछना चाहता हूं कि कौन रोकता है आपकी सोच, आपकी आजादी को? हम सभी कार्टूनिस्ट अपनी पूरी स्वतंत्रता के साथ ही काम कर रहे हैं। हम वर्षों से कार्टून बना रहे हैं और प्रकाशित भी हो रहे हैं। हम, न प्रकाशित हुए होते तो क्या आज इस मुकाम पर पहुंच पाते? क्या, कार्टून बनने से लेकर छपने तक बीच में कोई और नहीं है? यदि है तो उसकी जिम्मेदारी क्या है? वह कौन है जो इस बात पर मुहर लगाता है कि क्या प्रकाशित होना चाहिए और क्या नहींमात्र अपनी प्रतिष्ठा और अपने प्रॉडक्ट को बेचने के लिए वह इस तरह गैर जिम्मेदार कैसे हो सकता है?
चलिए कुछ देर के लिए हम सम्पादक को इस विषय से विलग भी रक्खें तो क्या कार्टूनिस्ट होने का अर्थ यह है कि आप सर्वशक्तिमान हो जाते हैं? कार्टूनिस्ट होने का अर्थ यह है कि आपकी कोई हदें न खींची गई हों? कार्टूनिस्ट होने का यह अभिप्राय कदापि नहीं कि आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को असीमित आज़ादी मान लें। कार्टून की सीमा वहां तक है जहां तक किसी व्यक्ति को बुरा न लगे। आप किसी पर भी व्यंग्य कसिये, ताने मारिए, चिकोटी लिजिए लेकिन वहीं तक जहां तक वह उसे सूचना दे। आनंद दे।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तब कहां गुम हो जाती है जब आपको एक निर्धारित आकार के कैनवास पर काम करना होता है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तब क्यूं घड़ी की सुई को नहीं कोसती जब पत्र और पत्रिकाओं की डेड लाईन फॉलो करनी होती है। तब तो आप नहीं कहते कि हमें असीमित आज़ादी नहीं मिली। दो-चार दिन और रुक जाइये। आख़िर उस असीमित आजादी कि कोई सीमा तो तय करनी ही पड़ती है। फिर क्यों न हम विचारों की एक सीमा रेखा भी तय करें..? क्यों न हम सभी वहां पर जाकर रुकें और गर्व से कहें कि वहां तक पहुंचे जिसके से आगे किसी की आस्था, किसी के विश्वास को ठेस पहुंचती है। कम से कम हम कलाकार तो अपनी कूची, अपनी कलम रोक कर ऐसा कर ही सकते हैं। 
सुप्रसिद्ध चित्रकार स्वर्गीय विष्णु चिंचालकर हमेशा कहा करते थे कि कला में संयम की चौखट होना जरूरी है। यदि कला संयम की चौखट लांघ जाती है तो वह विकृत रूप धारण कर लेती है। जिसका खामियाज़ा देश और समाज दोनों को देर सवेर भुगतना पड़ता है। 
करीब बारह साल पहले जानेमाने हास्य कवि स्वर्गीय शैल चतुर्वेदी ने एक साक्षात्कार में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात मुझसे कही थी  किबिना समाधान का व्यंग्य, गाली बकने के समान है।शायद यही गलती शार्ली एब्दो के कार्टूनिस्टों से हुई। वे लगातार अति सी सीमा को लांघते रहे और व्यंग्य पर व्यंग्य कसते रहे। तथा उसे अपनी अनिर्बाध अभिव्यक्ति की संज्ञा देते रहे। फ्रांस को आम तौर पर विद्रोही विचारों का गढ़ माना जाता है। शायद इसी आजाद बौद्धिक परंपरा का उन्हें घमंड भी था। लेकिन व्यंग्य में विद्रोह की नहीं शालीनता की दरकार होती है। व्यंग्य सर्वग्राही, सर्व समावेशीय व सर्वोत्कृष्ठ होना चाहिए। आहत की हदों को छूने वाला शब्द व्यंग्य नहीं हो सकता। खासतौर पर कार्टून का अर्थ गुदगुदाते हुए अपने अंतिम लक्ष तक पहुंचना है। सनद रहे कि कार्टून को अवस्था पर चोट करनी चाहिए न कि आस्था पर।
यह बात ठीक है कि समय काल परिस्थितिनुसार अभिव्यक्ति की सीमा घटा-बढ़ा करती हैं। एनडीटीवी पर रवीश कुमार लाख हंस-हंस कर हमसे कहें कि क्यों न हम अभिव्यक्ति की सीमा रेखा को थोड़ा और बढ़ा कर देखें। क्योंकि जितना हम इसे बढ़ायेंगे, हम उतने ही सहिष्णु कहलाएंगे। बात पते की है लेकिन अभिव्यक्ति  की सीमा रेखा को बढ़ाने का खामियाज़ा एक बार भुगतने पर भी दूसरी बार फिर उसे उसी सीमा तक या इससे आगे ले जाना कहां की समझदारी है? वैसे भी, हम अपने क्षेत्र, अपनी सीमाओं में चाहे जितनी बौद्धिक स्वतंत्रता की बात करें तो किसी को कोई आपत्ती नहीं होगी लेकिन यदि आप अन्य सीमाओं पर अपनी बौद्धिक्ता थोपने का प्रयास करेंगे तो विरोध का सामना करना ही होगा। इतिहास गवाह है कि जब भी मूल्यों और मान्यताओं में टकराव हुआ है तो परिणाम हिंसक ही रहा है।
वैसे भी इस पत्रिका का विवादों से पुराना नाता रहा है। आतंकवादी हमले की शिकार हुई फ्रेंच मैगजीन शार्ली एब्दो शुरू से ही विवादित रही है। किसी व्यक्ति विशेष पर किया गया व्यंग्य तो स्वीकार्य हो सकता है लेकिन यह व्यंग्य की यह कौन सी सीमा रेखा है जिसे शार्ली एब्दो”’ परिभाषित करना चाहती है। व्यंग्य हंसने और गुदगुदाने का माध्यम है न कि उकसाने का। आपका सेंस ऑफ ह्यूमर तब तक ही ग्राह्य है जब तक वो किसी को आनंद दे अन्यथा उसे न्यूसेंस इन ह्यूमर ही कहा जाएगा।
केवल पत्रिका बेचने के लिए लगातार विवादित कार्टून छापना और खुद को व्यंग्य का पुरोधा बतलाना कहां तक उचित है। आपको कार्टून बनाने हैं तो धर्म में पैदा कुरीतियों पर बनाइये। किसी के ईश्वर को ठेस पहुंचाने का हक आपको किसने दिया।
भारत में स्थिति अलग है। यहां के कुछ मीडिया पंडितों को हर विषय को पश्चिमोंमुखी होकर देखने की आदत पड़ गई है। पश्चिम में जो हो रहा है वह सही बाकी सब गलत। वे अरब देशों को मिडिल ईस्ट कहें तो कहें लेकिन हम उसे मिडिल वेस्ट कहने की हिम्मत नहीं करते। जबकि सारा अरब हमारे पश्चिम की ओर पड़ता है। आश्चर्य होता है जब यहां के लोग शार्ली एब्दो जैसी पत्रिका को इतना महत्व देते हैं। उसमें प्रकाशित कार्टूनों पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बहस करते हैं। निश्चित ही शार्ली एब्दो में प्रकाशित वे कार्टून दर्जेदार नहीं थे। जिन्हें कार्टून के स्तर का मानक माना जाए।
इस देश में भी शंकर्स विकली जैसी पत्रिका प्रकाशित होती रही है। जिस पर कभी कोई विवाद नहीं हुआ। यह बाद अलग है कि 1975 में लगी इमर्जेंसी के वक्त प्रेस पर लगे प्रतिबंध के तहत उसे बंद करना पड़ा। लेकिन उसका स्तर किसी से कमतर नहीं था। सत्तर साल तक भारत में लक्षमण ने कार्टूनिंग कि दुनिया में राज किया। फिर भी कभी कोई विवाद नहीं हुआ क्या यह कार्टूनिंग को परिभाषित करने के लिए काफी नहीं? या ये समझा जाए कि लक्षमण, शंकर जैसे कार्टूनिस्टों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरा फायदा नहीं उठाया।
  भारत एक विविधता भरा देश है। यहां न जाने कितने धर्म, कितनी भाषाएं, कितनी मान्यताएं हैं। समूचे विश्व के मुकाबले यहां कार्टूनिंग करना ज्यादा मुश्किल है। बावजूद इसके देश के कार्टूनकार अपने काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं। यदि कोई चाहे तो यहां शार्ली एब्दो जैसी सैकड़ों पत्रिकाएं यहां रोज़ निकल सकता है। वह रोज़ नया बखेड़ा खड़ा कर पब्लिसिटी पा सकता है। अभी हाल ही में विहिप की पत्रिका ने करीना के फोटो पर घर वापसी का संदेश दिया है फिर क्यों नहीं सारे बुद्धिजीवी उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सही ठहराते?   
मेरी नज़र में शार्ली एब्दो भी मकबूल फिदा हुसैन की तरह ही गुनहगार है। तथ्यों से छेड़छाड़ करने का गुनाह दोनों ने किया। जहां शार्ली ने चित्र बिना  पैगंबर का कार्टून छापा। वहीं हुसैन साहब ने सरस्वति को नग्न दिखाकर अपमानित किया। जिसका मुझ जैसे उनके घोर प्रशंसक पर भी बुरा प्रभाव पड़ा। 
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सशक्त अभिव्यक्ति की लक्ष्मण रेखा

आर के लक्ष्मण, जितने सीधे हस्ताक्षर, उतनी सीधी बात।  लाईनों का फ्लो, उनका स्ट्रोक, उनका ह्यूमरस अंदाज, कंपोजिशन, एनॉटॉमी, चित्र की लैंडस्केपिंग सबकुछ बेजोड़ था। मजाल किसी कि जो उनके कॉमिक इलस्ट्रेशन में भी एनॉटॉमी का नुक्स निकाल दे। लक्ष्मण की लाईनों की विशेषता यही थी कि कैरेकटर कार्टूननुमा होने पर भी वह पूरी तरह प्रपोर्शनेट थे।
लक्ष्मण सीधी और सरल रेखाओं में काम करते थे। कार्टूनों में लक्ष्मण का ऑबझर्वेशन देखते ही बनता था। उस पर शब्दों की तीखी मार ऐसी की पढ़नें वाले के ओठों से मुस्कान खींच कर ही लौटती थी। भाषा का चुटिलापन और उस पर विनम्रता की चाशनी लक्ष्मण की विशेषता थी। यही वजह थी कि लक्ष्मण के कार्टूनों ने कभी किसी को ठेस नहीं पहुंचाई। यही वजह रही कि लक्ष्मण ता उम्र बेदाग रहे। मुझे लक्ष्मण की यही खासियत हमेशा आकर्षित करती रही। लक्ष्मण मेरे लिए गाईड भी हैं और कार्टूनिंग की डिक्शनरी भी। मैं हमेशा से ही उनके कार्टूनों से सीखता रहा हूं। वे मेरे लिए कभी मर नहीं सकते।
आज विश्व में कार्टूनिंग को लेकर माहौल गरम है। कार्टून एक बहस का विषय है। आख़िर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लकीर कहां से खींजी जाए। किसे जायज और किसे गैर वाजिब माना जाए। कौन तय करें कि कौन सही और कौन गलत। वह जिस पर कार्टून बना या फिर वह जिसने कार्टून बनाया। मुझे लगता है ऐसे में लक्ष्मण के बनाए कार्टून मानक सिद्ध होंगे। 
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Creator of a desi icon, 
Pran leaves behind a void
Madhav Joshi

STRAPLINE: In an age when foreign cartoon characters such as Phantom and Superman ruled the minds of Indian children, Pran created a pure desi ‘Chacha Chaudhary’
Coming from a generation that grew up reading Chacha Chaudhary, I always knew his brain worked faster than the computer. And it was proved once again on Wednesday. Even before any news could reach the computers, the Internet, Facebook or even Twitter, this favourite Chacha had vanished into another world so far away, even Google cannot find him. 
News of the death of Pran Sharma – popular as just Pran, the famous cartoonist – was a shock for me. I was worried about the dark future of cartooning or children’s comics in India, I felt as if some villain had deleted the page of simple joys from the history. My first introduction to this iconic artist was through the Sunday afternoon radio broadcast ever popular on Vividh Bharti in the 1980s. After a sumptuous lunch, each of the family members would gather around the radio and enjoy the latest story. It would be a 15 minute story followed by some question … what happened next?
We used to desperately wait for the new comic book every 15 days. Exchanging comics with friends, keeping it within the textbook and read it hiding from parents was our favourite activity. Chacha’s team of Sabu, Pinky, Bajrangi, Gabdu and Jhapatji and not to mention, Billu with eyes always covered under his typical hairstyle had all become our friends over the years through every news issue of Parag, Lotpot and Diamond Comics’ books. Pran Saahab was able to inspire life into the imaginary universe of the children. He was also the creator of Sarita’s cartoon strip featuring Shrimatiji and Toshi. I always wondered how he could create so many characters and churn out new ideas and stories year after year.
Pran, 75, died on Wednesday, barely 10 days before his birthday. He was born on August 15, 1938 at Kasoor, Lahore, now in Pakistan. Partition brought him to India. He studied BA (Political Science) but his creative side prompted him to take up a Fine Arts degree from the prestigious JJ School of Arts at Mumbai. Editors at the World Encyclopeadia even described him as India’s Walt Disney. Pran Saahab had a cartooning career so long, he was such a tall artist, it can dwarf even acting great Amitabh Bachan. Praan Saahab worked only and only for children during these many decades.
His career started with a job at ‘Milap’ daily in 1960 and then never looked back. His long list of achievements include inclusion of his name in the ‘Limca Book of Records’ in 1995, the ‘Rajdhani Ratan Award’ in 1997 and a ‘Lifetime Achievement Award’ in 2001. This great artist has more than 400 comic books to his credit.
Pran Saab was a very lively, down to earth person and far from the snobbery that begets artists. He was soft spoken, friendly and very particular about time. This discipline reflected in his creative works too. An artist in true sense of the word, had he wanted, he could have been into news any day, every day. But he worked relentlessly, only with the sole aim of entertaining the children, to educate them in his inimitable style. Tickle them, make them laugh and make them better humans.
I distinctly remember my first meeting with him during a cartoon workshop at Bhopal in 2003. I was drawn to him instantly. I had never met someone so down to earth, so simple. I got a chance, so immediately interviewed him. He said he was touched by my questions and gave lots of blessings, which inspire me till date to work better.
His ‘faster than the computer’ mind turned emotional. One of my questions was: “Have you met RK Laxman?” He went silent for two minutes and then said slowly: “At a seminar, I came to know we were at the same lobby of this hotel. I sent over my assistant with my visiting card. Laxman ji saw it and asked ‘Who is Pran?’ I called back my assistant that very instance and never ever made any attempt to meet him.” Probably it was not destined that two of India’s top most cartoonists meet.
Pran Saahab was also known for his peculiar signature. In fact, for years I was unable to figure out that 9101 scribbled on every single cartoon book was in fact his signature.
His comics always dealt with the social and contemporary subjects, which always carried a lesson for the children. In an age when foreign cartoon characters such as Phantom and Superman had etched out their place in the psyche of India’s children, he created a pure desi ‘Chacha Chaudhary’ and beat every other character.
It never bothered him how he was judged. Simply because he knew, children were his best critique and best fans. To my question ‘Don’t you think you really deserve a Bharat Ratna?’ he replied with a laugh, “How does it matter? Will the kids be bothered about my comics or the Bharat Ratna?”
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मेरे प्राण नहीं रहे...

एकाएक बिल्लू, पिंकी, रमन रो पड़े। श्रीमतीजी के चीखने की आवाज आई, चाचा चौधरी नहीं रहे। चन्नी चाची दौड़कर स्टूड़ियो में आई तो देखा चाचा चौधरी अपने ड्राईंग बोर्ड पर औंधे मुंह गिरे पड़े थे। कोई कुछ न कर सका। साबू भी खड़ा देखता रहा। एक पत्थर सा बुत बनकर। उसे गुस्सा आता तो शायद कहीं ज्वालामुखी फूट पड़ता लेकिन आज वह भी न हुआ। वह स्तब्ध था यह देखकर कि उसका जनक अब उसका साथ छोड़ गया। ख़बर सुन बरसों पुराना दुश्मन राका भी भागा-भागा आया और ज़ोर-ज़ोर से बिलखने लगा। मुझे माफ कर दो चाचा, मैंने जीते जी तुमसे दुश्मनी की। लेकिन वह असली नहीं थी। वह तो बस एक नाटक भर था। उन नन्हें बच्चों के ओठों पर मुस्कुराहट लाने के लिए। लौट आओ चाचा, लौट आओ। आज से हमारी-तुम्हारी दुश्मनी खत्म। हम अब दोस्त बनेंगे। एक नया अध्याय लिखेंगे।
तभी बिल्लू बोला, हां चाचा राका ठीक कह रहा है। आप के बिना हम सब कैसे जियेंगे। पिंकी किस पर रंग के गुब्बारे फेंकेगी। आप न होंगे तो कम्प्यूटर को कौन हराएगा। कौन हम हम बच्चों को प्यारी-प्यारी नसीहतें देगा?‘
तभी पींकी बोली, साबू तुम खड़े-खड़े देख क्या रहे हो। कुछ करते क्यों नहीं। कहां गई तुम्हारी वह असीम ताकत। बस इतना ही..?‘ लेकिन साबू टस से मस न हुआ। वह खड़ा रहा चट्टान की तरह। जैसे उसे कोई सांप सूंघ गया हो। तभी श्रीमति जी ने चाचा को हिलाया-डुलाया लेकिन चाचा अब कहां सुनने वाले थे। वे तो निकल पड़े थे अपने अनंत प्रवास पर। लगता है अब भगवान के बच्चों को हंसाने का, उन्हें सीख देने का नया आयडिया सूझा है उनको। शायद इसलिए ही भगवान ने उन्हें अपने पास बुला लिया। चाचा चौधरी का दिमाग कम्प्यूर से भी तेज दौड़ता है। यह सुना था सभी ने। लेकिन आज देख भी लिया। कम्प्यूटर, इंटरनेट, फेसबुक, गूगल पर उनकी कोई ख़बर आती इससे पहले ही वे रफूचक्कर हो लिए इस दुनिया से। अब ऐसी जगह जाकर बैठे हैं कि लाख इंटरनेट पर सर्च करोगे तो भी वे हाथ नहीं आने वाले।  
प्राण साहब के निधन की ख़बर मेरे लिए एक ऐसे ही सदमे की तरह थी। ख़बर सुन लगा जैसे किसी बच्चे ने एकाएक मुस्कुराने से मना कर दिया हो। कलम की स्याही सूख गई और ड्राईंग बोर्ड पर स्याही की दवात गिर पड़ी। काली स्याही ने अचानक सफेद कागज को काला कर दिया। और काले हो चुके कागज पर कॉमिक कार्टूनिंग का भविष्य अंधकार में लगने लगा। लगा जैसे इतिहास की किताब से किसी दुष्ट ने व्यंग्य का कोई अध्याय फाड़ दिया हो।
मशहूर कार्टूनिस्‍ट प्राण साहब की उम्र 75 साल की थी। स्वतंत्रता की इस वर्षगांठ से दस दिन पूर्व ही वे चल बसे। वे 15 अगस्त को ही जन्में थे। 1938 में कसूर, लाहौर, पाकिस्तान में पैदा हुए और फिर बंटवारे के बाद भारत आ गए। यहां आकर पहले तो उन्होंने पॉलीटिकल सांईंस में बीए किया और फिर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट, मुंबई से फाईन आर्ट की डिग्री हासिल की। वर्ल्ड इनसाइकलोपीडिया के संपादक ने उन्हें भारत का वॉल डिज़नी तक कहा। प्राण साहब का इतना लम्बा कैरियर कि जहां महानायक अमिताभ बच्चन भी शायद खुद को बौना महसूस करें। वे पिछले पांच दशकों से सिर्फ और सिर्फ बच्चों के लिए काम करते रहे। कार्टून किंग के तमगे से उनकी कला निरंतर दमकती रही। 1960 में दैनिक मिलाप से अपना कैरिअर शुरू किया और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। प्राण साहब का नाम 1995 में लिम्‍का बुक ऑफ रिकार्ड में दर्ज किया गया। साथ ही उन्‍हें 1997 में राजधानी रतन अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया। 2001 में लाईफ टाईम अचीवमेंट अवार्ड मिला।
हममें से ज्यादातर बिल्लू और चाचा चौधरी की कॉमिक स्ट्रिप्स पढ़ते हुए बड़े हुए। पराग, लोटपोट के हर अंक में उनके ये किरदार हमें आकर्षित करते थे। केवल यही क्यों सरिता में वह श्रीमती जी और तोशी के नाम से कार्टून स्ट्रिप्स बनाते थे..हैरानी होती है कैसे इतने ढेर सारे कार्टून चरित्रों पर वह न केवल लगातार काम करते थे और आइडिया के स्तर पर उनमें नई से नई और रोचक कहानियां परोसते रहते थे। भारत में कार्टून स्ट्रिप्स बनाने वाले कार्टूनिस्ट तो कई हुए लेकिन उन जैसा कोई हुआ हो। प्राण साहब एक जिंदादिल इंसान थे। कला के अहंकार से कोसो दूर उनका अस्तित्व था। मृदु भाषी, मिलनसार, समय के बेहद पाबंद। यही अनुशासनता उनकी कला में भी झलकती रही। बिना रुके, बिना थके वे अपने काम में मसरूफ रहे। न काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर। एक सच्चे कलाकार। चाहते तो वे रोज़ खबरों की सुर्खियां बन सकते थे लेकिन उनका उद्देश्य मात्र एक था। बच्चों के लिए काम करना। उन्हें अपनी विशिष्ठ शैली से एज्युकेट करना। हंसाना, गुदगुदाना और एक बेहतर इंसान बनाना। हममें से कोई ऐसा न होगा जिसने उन्हें न पढ़ा हो।
बात 1980 के दशक की है. उन दिनों डायमंड कॉमिक्स की कहानियां विविध भारती पर संडे के दिन दोपहर दो बजे आया करती थीं. लोग अपने सारे काम निबटाकर रेडियो के चारों ओर बैठ जाते थे और सुनने लगते थे. इस पर 15 मिनट की कहानी आती थी और फिर कुछ सवाल, आगे क्या हुआ...फिर हर पंद्रह दिन में कॉमिक्स का एक सेट भी आया करता था, सभी उसका बेसब्री से  इंतजार करते थे। कॉमिक्सों का आदान-प्रदान, कोर्स बुक में रखकर कॉमिक्स पढ़ना हर बच्चे का शगल था। साबू, बजरंगी. गब्दू और झपटजी सभी एक से बढ़कर एक थे। बिल्लू की आंखें तो शायद ही आज तक किसी ने देखी हो। प्राण साहब ने करोड़ों बच्चों की काल्पनिक दुनिया में वाकई प्राण डाल दिए थे।
भोपाल में एक कार्टून कार्यशाला के दौरान मेरी उनसे मुलाकात हुई थी। तभी से वे मन को भा गए। इतना सीधा-साधा, सरल व्यक्तित्व मैंने कभी नहीं देखा था। मौका लगा तो लगे हाथ उनका इंटरव्यूव भी कर डाला। सवाल सुन वे गदगद हो उठे थे। उनके आशीष वचन आज भी मुझे बेहतर से बेहतर काम करने की प्रेरणा देते हैं। मैंने पिंकी, बिल्लू, राका, साबू सबका हाल चाचा से पूछा था। लेकिन उस दिन कम्प्यूटर से भी तेज़ दिमाग रखने वाले चाचा भावविभोर हो पड़े थे।
मैंने यह भी पूछा था कि क्या आप कभी आर के लक्ष्मण से मिले..?  वे दो मिनट मौन रहे और फिर बोले, एक सेमिनार में मुझे ज्ञात हुआ कि लक्ष्मण भी वहां मौजूद हैं। हम दोनों होटल की एक ही लौबी पर थे। मैंने अपना विज़िटिंग कार्ड अपने सहायक के माध्यम से उन तक पहुंचाया था। लेकिन लक्ष्मण ने देखते ही कहा, हू इज़ प्राण..?’ मैंने तत्काल अपने सहायक को वापस बुला लिया और फिर उनसे कभी नहीं मिला।वे लक्ष्मण के काम के मुरीद थे। किस्मत को कुछ और ही मंजूर था जो देश के कार्टूनिंग के दो शिखर पुरुष आपस में न मिल सके। उनसे न मिल पाने का अफसोस हमेशा उन्हें सालता रहा।
उन्हें इस बात कि कोई परवाह नहीं थी कि कोई उनका मूल्यांकन कैसे करता है। वे जानते थे कि बच्चों से बेहतर न कोई आलोचक हुआ है और न ही प्रशंसक। मेरे यह पूछने पर कि आपको नहीं लगता कि आप सही मायने में भारत रत्न के हकदार हैं?’ वे हंसकर बोले थे, क्या फर्क पड़ेगा उससे, बच्चों को मेरी कॉमिक्स से मतलब है न कि भारत रत्न से।
प्राण साहब अपने विशिष्ठ प्रकार के दस्तखत के लिए भी जाने जाते थे। मैं कई सालों तक यह जान ही नहीं पाया था कि कार्टून कॉमिक्स पर लिखा गया 9101 दरअसल प्राण लिखा है। वे प्राण को कुछ इस अंदाज़ में लिखा करते थे कि लगता था 9101 लिखा है। उनकी कॉमिक्स हमेशा समसामयिक और समाजिक विषयों को छूती रही। जिनसे हमेशा बच्चों को एक सीख मिलती रही। जिस दौर में फैंटम, सुपरमैन जैसे विदेशी किरदार भारत में अपनी जगह बना चुके थे तब प्राण साहब ही थे जिन्होंने चाचा चौधरी का किरदार गढ़ा और उन सबसे लोहा लिया। 400 से भी ज्यादा कॉमिक्स बनाने वाले प्राण साहब आज हमारे बीच नहीं रहे। 
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क्रिकेट, कहानी, कौआ और कार्टूनिस्ट लक्ष्मण

आज की घटना मुझे सदैव अविस्मर्णीय रहेगी। क्योंकि आज सुबह मैं मुर्गे की बांग से नहीं जागा। रज़ाई से निकलकर बाहर झांका तो एक कौए को पाया। वह मेरी बालकनी की रेलिंग बैठा था कांव-कांव कर रहा था। मुझे लगा जैसे वह कह रहा हो उठो, अब यह ड्यूटी मेरे पास आ गई है। वह पहरेदार जो अब तक यह ड्यूटी कर रहा था अब वह नहीं रहा। उसकी जगह मुझे अनुकंपा नियुक्ति मिली है।
वही कॉमन मैन जो हर सुबह घर के मेन डोअर के नीचे से सरक कर तुम्हारे घर में दाखिल होता था। वही, जिससे मिलकर तुम देश-दुनिया की अस्लियत जान पाते थे। जिसकी चंद लाईने पढ़कर तुम्हारे ओठों पर मुस्कान खिलती थी। जिस दिन वह न आता तो लगता कि आज हमें किसी ने गाईड नहीं किया। कुछ अधुरेपन के साथ जब तुम्हें चाय का प्याला थामना पड़ता था। वह कॉमन मैन जिसकी बातें अन कॉमन थीं।
आर के लक्ष्मण, जितने सीधे हस्ताक्षर, उतनी सीधी बात। अपने चश्मे से एक अलग ही दुनिया देखने वाला शक्स। समाज को देखने का जिसका नज़रिया जुदा था। जिसकी नज़र आम नहीं बल्कि खास थी। वह न सिर्फ देखता था बल्कि चीजों को रेखांकित कर हमें बताता था कि देखो शायद तुम इसे देखना भूल गए हो। हमारी नज़रें इस चकाचौंध वाली दुनिया में धोखा खा सकती थीं मगर उसकी नहीं। क्योंकि उसकी तो आदत थी उजाले में असल अंधेरे को तलाशने की। वह देश का बेहतरीन कार्टूनिस्ट था। 
लक्ष्मण जब इस क्षेत्र में आए तो देश में कार्टूनिंग की शुरुआत हो चुकि थी। हलांकि शुरूआत नई थी। आसमान पूरा खुला था। व्यंग्य की अपार संभावनाओं के साथ कार्टून विधा आगे बढ़ रही थी। पठकों को इसका चसका लग चुका था। देश में जब कार्टून कला की शुरूआत हुई तो पहले-पहल लोगों ने शंकर, अबु अब्राहम और बाल ठाकरे का नाम सुना। जिनमें शंकर प्रमुखता से उभरे। वे अब तक इस कला को स्थापित कर चुके थे।
चंद सालों बाद लक्ष्मण इस दुनिया मे आए। देखते ही देखते उनका भी जादू आम पाठकों के सिर चढ़कर बोलने लगा। वजह, लक्षमण की रेखाएं शंकर से और अधिक परिपक्व व सशक्त थी। लाईनों का फ्लो, उनका स्ट्रोक, उनका ह्यूमरस अंदाज, कंपोजिशन, एनॉटॉमी, चित्र की लैंडस्केपिंग सबकुछ बेजोड़ था। मजाल किसी कि जो उनके कॉमिक इलस्ट्रेशन में भी एनॉटॉमी का नुक्स निकाल दे। लक्ष्मण की लाईनों की विशेषता यही थी कि कैरेकटर कार्टूननुमा होने पर भी वह पूरी तरह प्रपोर्शनेट थे।
लक्ष्मण के कैरिकेचर सबसे जुदा थे। उनकी लाईकनेस, उनकी भंगिमा दोनों ही बेजोड़ थी। वे जब भी किसी व्यक्ति विशेष का कैरिकेचर बनाते थे तो उसमें से उस व्यक्ति का स्वभाव झलकता था। उसकी उम्र का प्रमाण पत्र लक्ष्मण के ब्रश स्ट्रोक लिखा करते थे। लक्ष्मण के अधिकांश कैरिकेचर कैमरा फेसिंग हुआ करते थे ताकि वे देखने में अधिक जीवंत और ह्रदयस्पर्शी लग सके।
लक्ष्मण सीधी और सरल रेखाओं में काम करते थे। कार्टूनों में लक्ष्मण का ऑबझर्वेशन देखते ही बनता था। उस पर शब्दों की तीखी मार ऐसी की पढ़नें वाले के ओठों से मुस्कान खींच कर ही लौटती थी। भाषा का चुटिलापन और उस पर विनम्रता की चाशनी लक्ष्मण की विशेषता थी। यही वजह थी कि लक्ष्मण के कार्टूनों ने कभी किसी को ठेस नहीं पहुंचाई। यही वजह रही कि लक्ष्मण ता उम्र बेदाग रहे।
देश में लक्ष्मण एकमात्र ऐसे कार्टूनिस्ट थे जो आपातकाल के दौरान भी प्रकाशित होते रहे। लक्ष्मण ने अपने लंबे करियर में व्यंग्य की ऐसी रेखा खींच गए जिसे पार पाना अब शायद ही किसी के बस की बात हो।
आज जरूरत इस बात की भी है कि लक्ष्मण को सामने रख कर हम वर्तमान भारतीय कार्टूनिंग का सिंहावलोकन करें। इस बात पर गौर करें कि क्या भारतीय कार्टूनिंग आज सही दिशा में है? लक्ष्मण भले ही अंग्रेजी के कार्टूनिस्ट रहे, लेकिन बात जब हिंदी कार्टूनिंग की हो तो सवाल उठता है कि आख़िर इतने ऊंचे कद का कार्टूनिस्ट हिंदी में क्यों नहीं? क्या किसी भी हिंदी कार्टूनिस्ट ने इतनी मेहनत नहीं की या फिर उसे वैसा अवसर नहीं मिला जैसा लक्ष्मण को मिला?
मैं मानता हूं कि हिंदी कार्टूनिंग की इस दुर्दशा के लिए सिर्फ संपादक या मैनेजमैंट ही जिम्मेदार बल्कि कार्टूनिस्ट भी उतने ही दोषी हैं। हिंदी में हमेशा से ही ऐसे कार्टूनिस्टों की भरमार रही है जिनकी स्केचिंग में दम नहीं। जरूर कमेंट का अपना महत्व है लेकिन फिर भी आपका इलस्ट्रेशन तो मजबूत होना ही चाहिए। उससे किसी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता। आप केवल कमेंट में महारत रखते हैं तो प्लीज़, आप ट्विटर पर जाइये मगर कार्टून को बक्शिए। आज भी, जब कभी अच्छे कार्टून्स का जिक्र होता है तो लोग पट से शंकर,  लक्ष्मण,  मारियो या नैनन का ही उदाहरण क्यों देते हैं? आज यह चिंतन का विषय होना चाहिए कि हिंदी कार्टूनिंग में कोई कार्टूनिस्ट उस मुकाम पर क्यों नहीं है जो आर के लक्ष्मण के समकक्ष खड़ा हो सके।
बीच में एक दौर जरूर धर्मयुग के आखिरी पन्ने पर आबिद सुरती का रहा। जब कार्टून कोना-ढब्बूजी छपा करता था। बेहद लोकप्रिय इस कोने के लाखों प्रशंसक थे। इसकी लोकप्रियता देख धर्मवीर भारती ने आबिद से कहा था, तुमने पाठकों को मुसलमान बना दिया। लोगों को धर्मयुग पीछे से देखने की आदत पड़ गई है। यहां कहने की जरूरत नहीं की कॉमिक्स के क्षेत्र में जरूर प्राण साहब ने हिंदी कार्टूनिंग की लाज रखी। 
आज विश्व में कार्टूनिंग को लेकर माहौल गरम है। कार्टून एक बहस का विषय है। आख़िर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लकीर कहां से खींजी जाए। किसे जायज और किसे गैर वाजिब माना जाए। कौन तय करें कि कौन सही और कौन गलत। वह जिस पर कार्टून बना या फिर वह जिसने कार्टून बनाया। मुझे लगता है ऐसे में लक्ष्मण के बनाए कार्टून मानक सिद्ध होंगे।
आज भारतीय कार्टूनिंग अपनी पूरी परिपक्वता के साथ आगे बढ़ रही है। कार्टून अब अखबारों से निकलकर एनिमेशन मोड में आते जा रहे हैं। ऐसे में सभी को कम समय में अपनी बात कहने का सबसे सशक्त माध्यम कार्टून ही लगता है। प्रत्येक राजनीतिक घटना पर अमूल का विज्ञापन हो यागुस्ताखी माफ या फिर एनिमेटेड सो सॉरी कार्टूनिंग का ही प्रतिरूप है।
आज लक्ष्मण का कौवा मेरी चौखट पर आकर बैठा था। कल वह किसी और के दरवाजे पर होगा। वही कौआ जिसे लक्ष्मण कार्टूनिस्ट की सोच के बेहद करीब मानते थे। वही कौआ जिसे नीयति ने उसे कार्टून की तरह काला बनाया है। वही कौवा जिसका बार-बार गर्दन मोड़कर हर पहलु पर विचार करना एक कार्टूनिस्ट से मेल खाता है। लक्ष्मण कहा करते थे यही काक दष्टि एक बेहतरीन कार्टूनिस्ट बनने में अहम होती है।
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-माधव जोशी



(बॉक्सः1)
क्रिकेट, कहानी और कार्टून
रासीपुरम कृष्णस्वामी लक्ष्मण का बचपन भी आम बच्चों की तरह था। सुबह से शाम तक बस क्रिकेट, क्रिकेट और बस क्रिकेट। दिवानगी ऐसी कि मोहल्ले में अपनी एक टीम भी बनाई और नाम दियारफ एण्ड टफ एण्ड जॉली टीम। यही सो शुरू हुआ क्रिकेट, कहानी और कार्टून का खेल।
एक दिन क्रिकेट के रंग में भंग पड़ ही गया। एक वृद्ध महिला ने एकाएक सारे स्टंप उखाड़कर फेंक दिए और ज़ोर से चिल्ला पड़ी, बंद करो यह तमाशा उसकी दहाड़ सुन सारे खिलाड़ी भाग खड़े हुए लेकिन लक्ष्मण वहीं डटे बहस करने लगे। उस महिला ने एक न सुनी। निराश लक्ष्मण घर लौटे और सारा वाकया उन्होंने अपने बड़े भाई को सुनाया। बस फिर क्या था, आर के नारायण को उनकी बात भा गई और उन्होंने उस पर एक कहानी लिख दी। जिसका नाम दिया द रेगा क्रिकेट क्लब। इसके बाद तो घर में एक चलन सा हो गया, लक्ष्मण का शैतानी करना और उस पर उनके बड़े भाई का कहानी लिखना। फिर उन्हीं कहानियों पर लक्ष्मण कार्टून बनाया करते थे। "डोडू द मनी मेकर" भी इनमें से ही एक थी। 



(बॉक्सः2)
लक्ष्मण के आदर्श
समय के साथ लक्ष्मण चित्रकला में गंभीर होते चले गए। उन्हें जब भी समय मिलता वे चित्र बनाने बैठ जाते। घर को कोई कोना बाकि न रहा होगा जहां लक्ष्मण ने अपनी कलम न चलाई हो। खिड़की, दरवाजे या फिर घर की फर्श, उन्होंने किसी जगह को न छोड़ा। कार्टूनिंग में सर डेविड लो उनके आदर्श रहे। वे रोज़ सुबह सबसे पहले द हिन्दू में प्रकाशित सर डेविड लो का बनाया कार्टून ही देखा करते थे। तब भी जब वे पढ़ना-लिखना भी नहीं जानते थे। मजे की बात यह रही कि वे कई महीनों तक “LOW’  के हस्ताक्षर को ‘COW’ ही पढ़ते रहे। यदि आप लक्ष्मण की रेखाओं पर गौर करें तो पाएंगे कि उन्होंने सर डेविड लो को पूरी तरह आत्मसात कर लिया था। वे जब टाईम्स के दफ्तर में पहले पहल दाखिल हुए तब आर्ट डायरेक्टर वॉल्टर लेंगमार का पहला सवाल यही था, क्या आप डेविड लो को कॉपी करते हैं?’ लेकिन जल्द ही लक्ष्मण ने एक स्केज ड्रॉ कर खुद को साबित कर दिखाया।
लक्ष्मण ने अपनी आत्मकथा दि टनल ऑफ टाईम में लिखा है कि टाईम्स में पहुंचना उनके लिए सुखद एहसास की तरह था क्योंकि वे जिस कमरे में बैठा करते थे उसकी खिड़की सर जे जे स्कूल ऑफ आर्ट की तरफ ही खुलती थी। वही स्कूल ऑफ आर्ट जिसके डीन ने कभी उन्हें दाखिला देने से मना कर दिया था।
(बॉक्सः3)
कहानी कॉमन मैन की
टाईम्स ऑफ इंडिया में लक्ष्मण का कॉलम यू सैड इट नाम से शुरू हुआ। देखते ही देखते वह उसकी पहचान बन गया। लोग टाईम्स ऑफ इंडिया को लक्ष्मण के नाम से जानने लगे। लोग बड़ी सहजता से कह जाते थे वही अखबार जिसमें कॉमन मैन छपा करता है।
पहले-पहल जब लक्ष्मण ने कॉमन मैन की रचना की तो वह इतना आकर्षक नहीं था। वह कुछ जवान था। उसके चेहरे पर हिटलर की तरह छोटी और काली मूछे थी। वह बिल्कुल दुबला-पतला और सर पर काली टोपी लगाता था। देखकर ऐसा लगता था जैसे कोई स्कूल का टीचर हो। शायद यही वजह रही कि तब तक आम पाठक उससे इतना प्यार न करता हो। लेकिन समय के साथ लक्ष्मण की रेखाएं और सोच दोनों परिपक्व होते गए और कॉमन मैन की शक्ल भी बदलने लगी। 1950 से 60 के दशक में लक्ष्मण ने हर साल नए प्रयोग किए और कॉमन मैन को एक स्कूल टीचर से एक आम भारतीय बना दिया। वह एक साठ साल रिटायर्ड इंसान था। सफेद धोती और चौकड़ीदार जैकेट और नाक से सरकता चश्मा उसकी पहचान बन गई।
कॉमन मैन की पत्नी का उनसे विभिन्न मुद्दों पर सलाह करना या उस पर कमेंट करना भी लोगों को खूब भाया। मिसेस कॉमन मैन तेज नाक नक्श वाली परंपरागत भारतीय महिला थी। जिसकी हाईट कॉमन मैन से काफी ज्यादा थी। उसके सदृड शरीर के आगे कॉमन मैन काफी कमज़ोर सा लगता था। दोनों का सब्जी बाज़ार जाना, चाय पीना, खाना बनाना हो या अख़बार पढ़ते हुए समसामयिक विषयों पर चर्चा करना। सबकुछ एकदम आम भारतीय घरों की तरह ही लगता था। नतीजा यह हुआ कि अब लोग उससे जुड़ाव महसूस करने लगे।
लक्ष्मण का कॉमन मैन आम पाठकों को इतना भाया कि वे उसमें अपनी छवि देखने लगे। ऐसा हो भी क्यों न आखिर कॉमन मैन उनके दिल की हर बात को समझता था और उनका प्रतिनिधित्व करता था। वह कभी कुछ नहीं बोलता था। वह हर उस जगह मौजूद होता जहां कोई न कोई समस्या रहती। उसकी उपस्थिति ही सामाजिक समस्या और बुराइयों की ओर इशारा करती थी। वह एक मूक रिपार्टर था। वो कॉमन मैन जिसने दशकों तक पाठकों के दिलों पर राज किया सदैव अमर रहेंगे। लक्ष्मण का कॉलमयू सैड इट आने वाली पीढ़ियों के लिए भी सदैव अध्ययन का विषय होगा।

(बॉक्सः4)
राजनेता और उनके कार्टून
लक्ष्मण के विषय हमेशा राजनैतिक व सामाजिक रहे। आजादी के पूर्व से अबतक लक्ष्मण ने अनेकों प्रमुख घटनाओं पर तीखे व्यंग्य किये। पिछले साठ-पैसठ सालों में ढ़ेरों ऐसे मौके आए जब लक्ष्मण ने यादगार कार्टून बनाए। खासतौर पर देश के पहले आम चुनाव में जब पंडित नेहरू जीत कर आए तो लक्ष्मण ने जमकर कटाक्क्ष किए थे। उसके बाद पाकिस्तान-चीन युद्ध में इंदिरा गांधी की भूमिका हो या राजीव गांधी का कार्यकाल, बाबरी विधवंस हो या मंडल कमीशन लक्ष्मण की कूची से कुछ नहीं बचा। भाजपा और कांग्रेस की कार्यप्रणाली पर उनके व्यंग्य बेहद रोचक हुआ करते थे। मुझे आज भी पूर्व संचार मंत्री सुखराम के घर सीबीआई के छापे पर लक्ष्मण का बनाया कार्टून याद है। जिसमें एक अधिकारी दूसरे से पूछ रहा है कि इन नोटों की गिनती किस पर लिखूं यहां तो एक भी कोरा कागज नहीं है, सारे नोट ही नोट हैं।
उस वक्त भाजपा में आडवाणी के बढ़ते कद का अंदाजा लक्ष्मण के कार्टूनों से लगाया जा सकता था। एक समय ऐसा आया जब वे आडवाणी को अटलजी से कहीं ज्यादा बड़ा दिखाने लगे थे। वे बाल ठाकरे का कार्टून हमेशा उनकी शेर की तरह पूंछ दिखाकर बनाते थे। 
समय के साथ-साथ कार्टूनिंग विकसित होती गई। कार्टून ब्लैक एंड व्हाईट से कलर और मैनुअल से कम्प्यूटरीकृत भी हो गए। लेकिन लक्ष्मण रेखाएं एक मील के पत्थर की तरह अडिग रही। जहां देश के अन्य कार्टूनिस्टों पर कार्टून को कलर करने का दबाव बढ़ रहा था वहीं लक्ष्मण अपने पुराने अंदाज में ही पाठकों को लुभाते रहे। वे अब तक कार्टूनिंग के पितामह कहे जाने लगे थे।


(बॉक्सः5)
लक्ष्मण का सफ़रनामा
जीवन में लक्ष्मण ने कई उचांइयों छूआ और ढ़ेरों पुरस्कार पाए। इन्डियन एक्सप्रेस का बी डी गोयनका पुरस्कार और हिन्दुस्तान टाइम्स के दुर्गा रतन स्वर्ण पदक के साथ-साथ लक्ष्मण को भारत सरकार ने पद्मभूषण और पद्म विभूषण से भी नवाजा। सन 1984 में वे मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित हुए तो 2007 में सीएनएन-आयबीएन का लाईफ टाईम अचीवमेंट पुरस्कार भी मिला।
लक्ष्मण की अनेक किताबें भी बाजार में आई जिसमें दि एलोक्वोयेन्ट ब्रश, दि बेस्ट आफ लक्षमण सीरीज, सर्वेन्ट्स आफ इंडिया, ब्रशिंग अप दि ईयर प्रमुख थीं। तो वहीं उन्होंने दो उपन्यास भी लिखे जो होटल रिवीयेराऔर दि मेसेंजर के नाम से प्रसिद्ध हुए। 1998 में दि टनल आफ टाईम नाम से उनकी अपनी आत्मकथा भी बाजार में आई। इसके अतिरिक्त भी लक्ष्मण ने कई बेहतरीन काम किए। रैंडम स्केचेस ऑफ मध्यप्रदेश में उनका इलस्ट्रेशन वर्क देखने लायक था।
समय रहते गणपति का चित्र बनाना उनका पसंदीदा शगल था। अपने बड़े भाई आर के नारायणन के सुप्रसिद्ध उपन्यास मालगुडी डेज़ पर बनाए उनके चित्र आज भी लोकप्रीय है।  

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कौए से कार्टूनिंग तक लक्ष्मण

आज की घटना मुझे सदैव अविस्मर्णीय रहेगी। क्योंकि आज सुबह मैं मुर्गे की बांग से नहीं जागा। रज़ाई से निकलकर बाहर झांका तो एक कौए को पाया। वह मेरी बालकनी की रेलिंग बैठा था कांव-कांव कर रहा था। मुझे लगा जैसे वह कह रहा हो उठो, अब यह ड्यूटी मेरे पास आ गई है। वह पहरेदार जो अब तक यह ड्यूटी कर रहा था अब वह नहीं रहा। उसकी जगह मुझे अनुकंपा नियुक्ति मिली है।
वही कॉमन मैन जो हर सुबह घर के मेन डोअर के नीचे से सरक कर तुम्हारे घर में दाखिल होता था। वही, जिससे मिलकर तुम देश-दुनिया की अस्लियत जान पाते थे। जिसकी चंद लाईने पढ़कर तुम्हारे ओठों पर मुस्कान खिलती थी। जिस दिन वह न आता तो लगता कि आज हमें किसी ने गाईड नहीं किया। कुछ अधुरेपन के साथ जब तुम्हें चाय का प्याला थामना पड़ता था। वह कॉमन मैन जिसकी बातें अन कॉमन थीं।
आर के लक्ष्मण, जितने सीधे हस्ताक्षर, उतनी सीधी बात। अपने चश्मे से एक अलग ही दुनिया देखने वाला शक्स। समाज को देखने का जिसका नज़रिया जुदा था। जिसकी नज़र आम नहीं बल्कि खास थी। वह न सिर्फ देखता था बल्कि चीजों को रेखांकित कर हमें बताता था कि देखो शायद तुम इसे देखना भूल गए हो। हमारी नज़रें इस चकाचौंध वाली दुनिया में धोखा खा सकती थीं मगर उसकी नहीं। क्योंकि उसकी तो आदत थी उजाले में असल अंधेरे को तलाशने की। वह देश का बेहतरीन कार्टूनिस्ट था। 
लक्ष्मण जब इस क्षेत्र में आए तो देश में कार्टूनिंग की शुरुआत हो चुकि थी। हलांकि शुरूआत नई थी। आसमान पूरा खुला था। व्यंग्य की अपार संभावनाओं के साथ कार्टून विधा आगे बढ़ रही थी। पठकों को इसका चसका लग चुका था। देश में जब कार्टून कला की शुरूआत हुई तो पहले-पहल लोगों ने शंकर, अबु अब्राहम और बाल ठाकरे का नाम सुना। जिनमें शंकर प्रमुखता से उभरे। वे अब तक इस कला को स्थापित कर चुके थे।
चंद सालों बाद लक्ष्मण इस दुनिया मे आए। देखते ही देखते उनका भी जादू आम पाठकों के सिर चढ़कर बोलने लगा। वजह, लक्षमण की रेखाएं शंकर से और अधिक परिपक्व व सशक्त थी। लाईनों का फ्लो, उनका स्ट्रोक, उनका ह्यूमरस अंदाज, कंपोजिशन, एनॉटॉमी, चित्र की लैंडस्केपिंग सबकुछ बेजोड़ था। मजाल किसी कि जो उनके कॉमिक इलस्ट्रेशन में भी एनॉटॉमी का नुक्स निकाल दे। लक्ष्मण की लाईनों की विशेषता यही थी कि कैरेकटर कार्टूननुमा होने पर भी वह पूरी तरह प्रपोर्शनेट थे।
लक्ष्मण के कैरिकेचर सबसे जुदा थे। उनकी लाईकनेस, उनकी भंगिमा दोनों ही बेजोड़ थी। वे जब भी किसी व्यक्ति विशेष का कैरिकेचर बनाते थे तो उसमें से उस व्यक्ति का स्वभाव झलकता था। उसकी उम्र का प्रमाण पत्र लक्ष्मण के ब्रश स्ट्रोक लिखा करते थे। लक्ष्मण के अधिकांश कैरिकेचर कैमरा फेसिंग हुआ करते थे ताकि वे देखने में अधिक जीवंत और ह्रदयस्पर्शी लग सके।
लक्ष्मण सीधी और सरल रेखाओं में काम करते थे। कार्टूनों में लक्ष्मण का ऑबझर्वेशन देखते ही बनता था। उस पर शब्दों की तीखी मार ऐसी की पढ़नें वाले के ओठों से मुस्कान खींच कर ही लौटती थी। भाषा का चुटिलापन और उस पर विनम्रता की चाशनी लक्ष्मण की विशेषता थी। यही वजह थी कि लक्ष्मण के कार्टूनों ने कभी किसी को ठेस नहीं पहुंचाई। यही वजह रही कि लक्ष्मण ता उम्र बेदाग रहे।
देश में लक्ष्मण एकमात्र ऐसे कार्टूनिस्ट थे जो आपातकाल के दौरान भी प्रकाशित होते रहे। लक्ष्मण ने अपने लंबे करियर में व्यंग्य की ऐसी रेखा खींच गए जिसे पार पाना अब शायद ही किसी के बस की बात हो।
कार्टूनिंग में सर डेविड लो लक्ष्मण के आदर्श रहे। वे रोज़ सुबह सबसे पहले द हिन्दू में प्रकाशित सर डेविड लो का बनाया कार्टून ही देखा करते थे। तब भी जब वे पढ़ना-लिखना भी नहीं जानते थे। मजे की बात यह रही कि वे कई महीनों तक “LOW’  के हस्ताक्षर को ‘COW’ ही पढ़ते रहे। यदि आप लक्ष्मण की रेखाओं पर गौर करें तो पाएंगे कि उन्होंने सर डेविड लो को पूरी तरह आत्मसात कर लिया था। वे जब टाईम्स के दफ्तर में पहले पहल दाखिल हुए तब आर्ट डायरेक्टर वॉल्टर लेंगमार का पहला सवाल यही था, क्या आप डेविड लो को कॉपी करते हैं?’ लेकिन जल्द ही लक्ष्मण ने एक स्केज ड्रॉ कर खुद को साबित कर दिखाया।
लक्ष्मण ने अपनी आत्मकथा दि टनल ऑफ टाईम में लिखा है कि टाईम्स में पहुंचना उनके लिए सुखद एहसास की तरह था क्योंकि वे जिस कमरे में बैठा करते थे उसकी खिड़की सर जे जे स्कूल ऑफ आर्ट की तरफ ही खुलती थी। वही स्कूल ऑफ आर्ट जिसके डीन ने कभी उन्हें दाखिला देने से मना कर दिया था।
पहले-पहल जब लक्ष्मण ने कॉमन मैन की रचना की तो वह इतना आकर्षक नहीं था। वह कुछ जवान था। उसके चेहरे पर हिटलर की तरह छोटी और काली मूछे थी। वह बिल्कुल दुबला-पतला और सर पर काली टोपी लगाता था। देखकर ऐसा लगता था जैसे कोई स्कूल का टीचर हो। शायद यही वजह रही कि तब तक आम पाठक उससे इतना प्यार न करता हो। लेकिन समय के साथ लक्ष्मण की रेखाएं और सोच दोनों परिपक्व होते गए और कॉमन मैन की शक्ल भी बदलने लगी। 1950 से 60 के दशक में लक्ष्मण ने हर साल नए प्रयोग किए और कॉमन मैन को एक स्कूल टीचर से एक आम भारतीय बना दिया। वह एक साठ साल रिटायर्ड इंसान था। सफेद धोती और चौकड़ीदार जैकेट और नाक से सरकता चश्मा उसकी पहचान बन गई।
कॉमन मैन की पत्नी का उनसे विभिन्न मुद्दों पर सलाह करना या उस पर कमेंट करना भी लोगों को खूब भाया। मिसेस कॉमन मैन तेज नाक नक्श वाली परंपरागत भारतीय महिला थी। जिसकी हाईट कॉमन मैन से काफी ज्यादा थी। उसके सदृड शरीर के आगे कॉमन मैन काफी कमज़ोर सा लगता था। दोनों का सब्जी बाज़ार जाना, चाय पीना, खाना बनाना हो या अख़बार पढ़ते हुए समसामयिक विषयों पर चर्चा करना। सबकुछ एकदम आम भारतीय घरों की तरह ही लगता था। नतीजा यह हुआ कि अब लोग उससे जुड़ाव महसूस करने लगे।
आज विश्व में कार्टूनिंग को लेकर माहौल गरम है। कार्टून एक बहस का विषय है। आख़िर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लकीर कहां से खींजी जाए। किसे जायज और किसे गैर वाजिब माना जाए। कौन तय करें कि कौन सही और कौन गलत। वह जिस पर कार्टून बना या फिर वह जिसने कार्टून बनाया। मुझे लगता है ऐसे में लक्ष्मण के बनाए कार्टून मानक सिद्ध होंगे।
आज जरूरत इस बात की भी है कि लक्ष्मण को सामने रख कर हम वर्तमान भारतीय कार्टूनिंग का सिंहावलोकन करें। इस बात पर गौर करें कि क्या भारतीय कार्टूनिंग आज सही दिशा में है? लक्ष्मण भले ही अंग्रेजी के कार्टूनिस्ट रहे, लेकिन बात जब हिंदी कार्टूनिंग की हो तो सवाल उठता है कि आख़िर इतने ऊंचे कद का कार्टूनिस्ट हिंदी में क्यों नहीं?  क्या किसी भी हिंदी कार्टूनिस्ट ने इतनी मेहनत नहीं की या फिर उसे वैसा अवसर नहीं मिला जैसा लक्ष्मण को मिला?
मैं मानता हूं कि हिंदी कार्टूनिंग की इस दुर्दशा के लिए सिर्फ संपादक या मैनेजमैंट ही जिम्मेदार नहीं है। हिंदी के कार्टूनिस्ट भी उतने ही दोषी हैं। हिंदी में हमेशा से ही ऐसे कार्टूनिस्टों की भरमार रही है जिनकी स्केचिंग में दम नहीं। जरूर कमेंट का अपना महत्व है लेकिन फिर भी आपका इलस्ट्रेशन तो मजबूत होना ही चाहिए। उससे किसी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता। आप केवल कमेंट में महारत रखते हैं तो प्लीज़, आप ट्विटर पर जाइये मगर कार्टून को बक्शिए। आज भी, जब कभी अच्छे कार्टून्स का जिक्र होता है तो लोग पट से शंकर,  लक्ष्मण,  मारियो या नैनन का ही उदाहरण क्यों देते हैं? आज यह चिंतन का विषय होना चाहिए कि हिंदी कार्टूनिंग में कोई कार्टूनिस्ट उस मुकाम पर क्यों नहीं है जो आर के लक्ष्मण के समकक्ष खड़ा हो सके।
बीच में एक दौर जरूर धर्मयुग के आखिरी पन्ने पर आबिद सुरती का रहा। जब कार्टून कोना-ढब्बूजी छपा करता था। बेहद लोकप्रिय इस कोने के लाखों प्रशंसक थे। इसकी लोकप्रियता देख धर्मवीर भारती ने आबिद से कहा था, तुमने पाठकों को मुसलमान बना दिया। लोगों को धर्मयुग पीछे से देखने की आदत पड़ गई है। यहां कहने की जरूरत नहीं की कॉमिक्स के क्षेत्र में जरूर प्राण साहब ने हिंदी कार्टूनिंग की लाज रखी। 
आज भारतीय कार्टूनिंग में कुछ नए आयाम भी खुले हैं। कार्टून अब अखबारों से निकलकर एनिमेशन मोड में आते जा रहे हैं। प्रत्येक राजनीतिक घटना पर अमूल का विज्ञापन हो यागुस्ताखी माफ या फिर एनिमेटेड सो सॉरी कार्टूनिंग का ही प्रतिरूप है।
आज लक्ष्मण का कौवा मेरी चौखट पर आकर बैठा था। कल वह किसी और के दरवाजे पर होगा। वही कौआ जिसे लक्ष्मण कार्टूनिस्ट की सोच के बेहद करीब मानते थे। वही कौआ जिसे नीयति ने उसे कार्टून की तरह काला बनाया है। वही कौवा जिसका बार-बार गर्दन मोड़कर हर पहलु पर विचार करना एक कार्टूनिस्ट से मेल खाता है। लक्ष्मण कहा करते थे यही काक दष्टि एक बेहतरीन कार्टूनिस्ट बनने में अहम होती है। उन्हें पक्षियों में कौआ और जानवरों में कुत्ता सर्वाधिक प्रिय था।
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आर के लक्ष्मण -1

रेखाओं के बादशाह को आखिरी सलाम


आज की घटना मुझे सदैव अविस्मर्णीय रहेगी। क्योंकि आज सुबह मैं मुर्गे की बांग से नहीं जागा। रज़ाई से निकलकर बाहर झांका तो एक कौए को पाया। वह मेरी बालकनी की रेलिंग बैठा था कांव-कांव कर रहा था। मुझे लगा जैसे वह कह रहा हो उठो, अब यह ड्यूटी मेरे पास आ गई है। वह पहरेदार जो अब तक यह ड्यूटी कर रहा था अब वह नहीं रहा। उसकी जगह मुझे अनुकंपा नियुक्ति मिली है।
 वही कॉमन मैन जो हर सुबह घर के मेन डोअर के नीचे से सरक कर तुम्हारे घर में दाखिल होता था। वही, जिससे मिलकर तुम देश-दुनिया की अस्लियत जान पाते थे। जिसकी चंद लाईने पढ़कर तुम्हारे ओठों पर मुस्कान खिलती थी। जिस दिन वह न आता तो लगता कि आज हमें किसी ने गाईड नहीं किया। कुछ अधुरेपन के साथ जब तुम्हें चाय का प्याला थामना पड़ता था। वह कॉमन मैन जिसकी बातें अन कॉमन थीं।
रेखाओं का वही बादशाह जिसने कॉमन मैन का किरदार गढ़ा अब हमारे बीच नहीं रहा। एक ऐसा शक्स, जो अपने चश्मे से एक अलग ही दुनिया देखा करता था। समाज को देखने का जिसका नज़रिया सबसे जुदा था। उसकी नज़र आम नहीं बल्कि खास थी। वह न सिर्फ देखता था बल्कि चीजों को रेखांकित कर हमें बताता था कि देखो शायद तुम इसे देखना भूल गए हो। हमारी नज़रें इस चकाचौंध वाली दुनिया में धोखा खा सकती थीं मगर उसकी नहीं। क्योंकि उसकी तो आदत थी उजाले में असल अंधेरे को तलाशने की। वह देश का बेहतरीन कार्टूनिस्ट था। 
पुणे के एक अस्पताल में जाने-माने कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण ने कल अंतिम सांस ली2003 के बाद से ही लक्ष्मण की ब्रश पर पकड़ कमजोर हुईं। उनके शरीर का एक हिस्सा पैरालैसिस हो गया। हाथों में ब्रश पकड़ने की ताकत न रही। फिर भी उन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा। वे निरंतर काम करते रहे। कभी भी पाठकों को यह अहसास नहीं होने दिया कि उनका खबरनवीस शारीरिक रूप से अक्षम हो चुका है। वे निरंतर अपनी रेखाओं से देश-दुनिया कि खबरों का सच सामने रखते रहे। कहने वाले कहते रहे कि अब लक्ष्मण के काम में वो दम नहीं रहा। लाइन में शार्पनेस नहीं रही। लेकिन बिना इसकी परवाह किए वह अपने काम में लगे रहे। एक ऐसा कलाकार जिसने ताउम्र सिर्फ और सिर्फ वाहवाही लूटी हो, वह आलोचनाएं कैसे सहन कर सकता था। बावजूद इसके वह पूरी शिद्दत के साथ काम करते रहे।
2010 के बाद लक्ष्मण औऱ ब्रश का साथ पूरी तरह छूट गया। उन्हें मस्तिष्काघात का सामना करना पडाआज लक्ष्मण हमारे बीच  नहीं हैं। लेकिन उनके स्ट्रोक, उनका ह्यूमरस अंदाज, उनका कंपोजिशन, वो कॉमन मैन जिसने दशकों तक पाठकों के दिलों पर राज किया सदैव अमर रहेंगे। लक्ष्मण का कॉलमयू सैड इट आने वाली पीढ़ियों के लिए भी सदैव अध्ययन का विषय होगा।
आज विश्व में कार्टूनिंग को लेकर माहौल गरम है। कार्टून एक बहस का विषय है। आख़िर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लकीर कहां से खींजी जाए। किसे जायज और किसे गैर वाजिब माना जाए। कौन तय करें कि कौन सही और कौन गलत। वह जिस पर कार्टून बना या फिर वह जिसने कार्टून बनाया। मुझे लगता है ऐसे में लक्ष्मण के बनाए कार्टून मानक सिद्ध होंगे।
आज लक्ष्मण हमारे बीच नहीं तो क्या हुआ? वह कौवा तो है जो आज मेरी चौखट पर आकर बैठा था। कल वह किसी और के दरवाजे पर होगा। वही कौआ जिसे वह कार्टूनिस्ट की सोच के बेहद करीब मानते थे। वही कौआ जिसे नीयति ने लक्ष्मण के कार्टून की तरह काला बनाया है। उसका बार-बार गर्दन मोड़कर हर पहलु पर विचार करना एक कार्टूनिस्ट से मेल खाता है। शायद यही काक दष्टि एक बेहतरीन कार्टूनिस्ट बनने में अहम होती है। उन्हें पक्षियों में कौआ और जानवरों में कुत्ता सर्वाधिक प्रिय था।
जारी है....


आर के लक्ष्मण -2

रेखाओं के बादशाह को आखिरी सलाम

लक्ष्मण जब इस क्षेत्र में आए तो देश में कार्टूनिंग की शुरुआत हो चुकि थी। हलांकि शुरूआत नई थी। आसमान पूरा खुला था। व्यंग्य की अपार संभावनाओं के साथ कार्टून विधा आगे बढ़ रही थी। पठकों को इसका चसका लग चुका था। वे रोज़ अखबार का पहला पन्ना कार्टून देखने के बाद ही पलटा करते थे। चाय की चुस्कियों का मजा कार्टून के बिना आता नहीं था। कार्टून की गंभीरता लोगों के समझ आने लगी थी। देश में जब कार्टून कला की शुरूआत हुई तो पहले-पहल लोगों ने शंकर, अबु अब्राहम और बाल ठाकरे का नाम सुना। जिनमें शंकर प्रमुखता से उभरे। वे इस कला को स्थापित कर चुके थे। यही वजह थी की नेहरू भी उनके दिवाने हो गए थे। पं. नेहरु जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने शंकर से मिलते ही कहा, मुझे मत बक्शना। इतनी साफगोई और आलोचना से दूर न भागने का साहस  पं. नेहरू में दिखा। जो बेहद कम लोगों में ही होता है। लेकिन उनके यह शब्द कार्टून की जीत थी।
लोग इस बात को समझने लगे थे कि जीवन की मूक आलोचनाओं का दूसरा नाम ही कार्टूनिंग है। वैसे भी एक कार्टून दस हजार शब्दों के बराबर होता है। एक सफल कार्टूनकार की योग्यता इसी में है कि वह समाज की कड़वी आलोचनाओं को अपने ब्रश से सहज रूप दे। ताकि राजनैतिक निरसता को सरसता में बदला जा सके। जो काम एक कार्टूनिस्ट ही कर सकता है।
चंद सालों बाद लक्ष्मण इस दुनिया मे आए। देखते ही देखते उनका भी जादू आम पाठकों के सिर चढ़कर बोलने लगा। वजह, लक्षमण की रेखाएं शंकर से और अधिक परिपक्व व सशक्त थी। लाईनों का फ्लो, उसकी एनॉटॉमी, उसका ह्यूमरस अंदाज, चित्र की लैंडस्केपिंग सबकुछ बेजोड़ था। मजाल किसी कि जो उनके कॉमिक इलस्ट्रेशन में भी एनॉटॉमी का नुक्स निकाल दे। लक्ष्मण की लाईनों की विशेषता यही थी कि कैरेकटर कार्टूननुमा होने पर भी वह पूरी तरह प्रपोर्शनेट थे। लक्ष्मण सीधी और सरल रेखाओं में काम करते थे। कार्टूनों में लक्ष्मण का ऑबझर्वेशन देखते ही बनता था। उस पर शब्दों की तीखी मार ऐसी की पढ़नें वाले के ओठों से मुस्कान खींच कर ही लौटती थी। भाषा का चुटिलापन और उस पर विनम्रता की चाशनी लक्ष्मण की विशेषता थी। यही वजह थी कि लक्ष्मण के कार्टूनों ने कभी किसी को ठेस नहीं पहुंचाई। उसका रस हर किसी ने लिया। एक कार्टूनिस्ट की सफलता इसी में है कि वह जटिल से जटिल बातों को सहजता से कह सके। पढ़ने वाले को केवल यह एहसास कराए कि कुछ गड़बड़ है। चिकोटी भी इस तरह काटी जाए जिसमें मजा आए। यही वजह रही कि लक्ष्मण ता उम्र बेदाग रहे।
देश में आपातकाल के दौरान भी लक्ष्मण प्रकाशित होते रहे। लक्ष्मण ने अपने लंबे करियर में व्यंग्य की ऐसी रेखा खींच गए जिसे पार पाना अब शायद ही किसी के बस की बात हो। लक्ष्मण के कैरिकेचर सबसे जुदा थे। उनकी लाईकनेस, उनकी भंगिमा दोनों ही बेजोड़ थी। वे जब भी किसी व्यक्ति विशेष का कैरिकेचर बनाते थे तो उसमें से उस व्यक्ति का स्वभाव झलकता था। उसकी उम्र का प्रमाण पत्र लक्ष्मण के ब्रश स्ट्रोक लिखा करते थे। लक्ष्मण के अधिकांश कैरिकेचर कैमरा फेसिंग हुआ करते थे ताकि वे देखने में अधिक जीवंत और ह्रदयस्पर्शी लग सके।
समय के साथ-साथ कार्टूनिंग विकसित होती गई। कार्टून ब्लैक एंड व्हाईट से कलर और मैनुअल से कम्प्यूटरीकृत भी हो गए। लेकिन लक्ष्मण रेखाएं एक मील के पत्थर की तरह अडिग रही। जहां देश के अन्य कार्टूनिस्टों पर कार्टून को कलर करने का दबाव बढ़ रहा था वहीं लक्ष्मण अपने पुराने अंदाज में ही पाठकों को लुभाते रहे। राजनैतिक कार्टूनों से साथ समसामयिक कार्टून भी खूब पसंद किए जाने लगे। आर के लक्ष्मण का क्रेज बढ़ता ही गया। वे अब तक कार्टूनिंग के पितामह कहे जाने लगे थे।
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आर के लक्ष्मण -3

रेखाओं के बादशाह को आखिरी सलाम


रासीपुरम कृष्णस्वामी लक्ष्मण जिसे सारी दुनिया आज आर के लक्ष्मण के नाम से जानती है का जन्म 24 अक्तूबर 1921 को भारत के मैसूर, कर्नाटक में हुआ था। उनके पिता प्राध्यापक थे। छःह भाई बहनों में सबसे छोटे थे।
लक्ष्मण का बचपन भी आम बच्चों की तरह था। सुबह से शाम तक बस क्रिकेट, क्रिकेट और बस क्रिकेट। दिवानगी ऐसी कि मोहल्ले में अपनी एक टीम भी बनाई और नाम दियारफ एण्ड टफ एण्ड जॉली टीम। अंततः एक दिन क्रिकेट के रंग में भंग पड़ ही गया। एक वृद्ध महिला ने एकाएक सारे स्टंप उखाड़कर फेंक दिए और ज़ोर से चिल्ला पड़ी, बंद करो यह तमाशा उसकी दहाड़ सुन सारे खिलाड़ी भाग खड़े हुए लेकिन लक्ष्मण वहीं डटे बहस करने लगे। उस महिला ने एक न सुनी। निराश लक्ष्मण घर लौटे और सारा वाकया उन्होंने अपने बड़े भाई को सुनाया। बस फिर क्या था, आर के नारायण को उनकी बात भा गई और उन्होंने उस पर एक कहानी लिख दी। जिसका नाम दिया द रेगा क्रिकेट क्लब। इसके बाद तो घर में एक चलन सा हो गया, लक्ष्मण का शैतानी करना और उस पर उनके बड़े भाई का कहानी लिखना। "ोडू नी मेकर" भी इनमें से ही एक थी। 
लेकिन इन सब के बीच लक्ष्मण चित्रकला में गंभीर होते चले गए। उन्हें  जब भी समय मिलता वे चित्र बनाने बैठ जाते। घर को कोई कोना बाकि न रहा होगा जहां लक्ष्मण ने अपनी कलम न चलाई हो। खिड़की, दरवाजे या फिर घर की फर्श, उन्होंने किसी जगह को न छोड़ा। रोज़ सुबह साईकल लेकर दूर किसी बागीचे में जाकर बैठना और शाम तक जम कर स्केचिंग करना उनकी रोज़ की आदत बन चुकि थी। घर में आने वाली तमाम पत्र-पत्रिकाओं के चित्रों की वे नकल करते और उसे घर के सदस्यों को दिखाते। वे रोज़ सुबह सबसे पहले अखबार में प्रकाशित कार्टून देखा करते। द हिन्दू में प्रकाशित सर डेविड लो का बनाया कार्टून उनका खास पसंदीदा था। मजे की बात तो यह रही कि वे कई महीनों तक “LOW’  के हस्ताक्षर को ‘COW’ ही पढ़ते रहे।
हाई स्कूल करने के बाद, लक्ष्मण ने जेजे स्कूल ऑफ आर्ट, मुंबई में दाखिला चाहा। लेकिन कॉलेज के डीन ने उनके चित्रों को सामान्य से भी कमतर आंका और दाखिला देने से मना कर दिया। अतः निराश लक्ष्मण मैसूर विश्वविद्यालय पहुंचे और वहां से बीए(आर्ट) की डिग्री हासिल की। इसी दौरान वे कई जगह फ्रीलांस काम भी करते रहे। जिनमें स्वराज्य पत्रिका तथा एक एनिमेशन कंपनी से भी संबद्ध रहे। उम्र जवान हुई तो लक्ष्मण ने अपने पैर घर की दहलीज से बाहर खींचे और अखबारों के दफतरों की खाक छानी।
कुछ समय तक ब्लीडज़ में काम करने के बाद उन्होंने फ्री प्रेस जर्नल का रुख किय। जहां उनकी मुलाकात बाल ठाकरे से हुई। लक्ष्मण उनका काम देख दंग रह गए। बाल ठाकरे बिना पेंसिल इस्तेमाल किए सीधे ब्रश से काम करने में महारत रखते थे। बाल ठाकरे के पंच, उनकी ब्रश पर पकड़ और लाईनों पर कमांड बेजोड़ थी। लक्ष्मण ने खुद इस बात को स्वीकारा है कि उस वक्त बाल ठाकरे के रहते उनको समाचार पत्र में कोई बेहतर जगह मिल सकती थी। लेकिन जल्द ही बाल ठाकरे ने नौकरी छोड़ दी और वे अपने पिता के साथ राजनीति में कूद पड़े।
कुछ साल फ्री प्रेस जर्नल में काम करने के बाद लक्ष्मण टाईम्स ऑफ इंडिया में पहुंचे और फिर वहीं के होकर रह गए। लक्ष्मण ने अपनी आत्मकथा दि टनल ऑफ टाईम में लिखा है कि टाईम्स में पहुंचना उनके लिए सुखद एहसास की तरह था क्योंकि वे जिस कमरे में बैठा करते थे उसकी खिड़की बाजू में बने सर जे जे स्कूल ऑफ आर्ट की तरफ ही खुलती थी। वही स्कूल ऑफ आर्ट जिसके डीन ने कभी उन्हें दाखिला देने से मना कर दिया था।
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आर के लक्ष्मण -4

रेखाओं के बादशाह को आखिरी सलाम


शायद वो जमाना ही ‘R K’ नाम राशि वालों का था। फिर वह शो मैंन राज कपूर हो या जुबली स्टार राजेन्द्र कुमार या फिर भारतीय कार्टूनिंग के शहंशाह आर के लक्ष्मण। इस दौरान देश में न जाने कितने सितारे उदित हुए और कितने ढ़ल गए। राज कपूर से देवाआनंद, दिलिप कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, सलमान-शाहरुख से लेकर आमिर खान तक भारतीय सिने जगत आ पहुंचा। तो वहीं भारतीय क्रिकेट में एकनाथ सोलकर, अजीत वाड़ेकर, सुनील गावस्कर, कपिल देव, सचिन- सौरभ से धोनी बने। देश की राजनीति भी साठ सालों में कितनी बदली। पं. नेहरू से इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, वी पी सिंह, नर्सिंहराव, अटल-आडवाणी से मनमोहन सिंह तक आए गए लेकिन कार्टूनिंग में लक्ष्मण को कोई डिगा न सका।
टाईम्स ऑफ इंडिया में लक्ष्मण का कॉलम यू सैड इट नाम से शुरू हुआ। देखते ही देखते वह उसकी पहचान बन गया। लोग टाईम्स ऑफ इंडिया को लक्ष्मण के नाम से जानने लगे। लोग सहजता से कह जाते थे वही अखबार न जिसमें कॉमन मैन छपा करता है। दरअसल लक्ष्मण का कॉमन मैन आम पाठकों को इतना भाया कि वे उसमें अपनी छवि देखने लगे। ऐसा हो भी क्यों न आखिर कॉमन मैन उनके दिल की हर बात को समझता था और उनका प्रतिनिधित्व करता था। वह कभी कुछ बोलता नहीं था। लेकिन वह हर उस जगह मौजूद होता था जहां कोई न कोई समस्या रहती थी। उसकी उपस्थिति ही सामाजिक समस्या और बुराइयों की ओर इशारा करती थी। वह एक मूक रिपार्टर था।
पहले-पहल जब लक्ष्मण ने कॉमन मैन की रचना की तो वह इतना आकर्षक नहीं था। वह कुछ जवान था। उसके चेहरे पर हिटलर की तरह छोटी और काली मूछे थी। वह बिल्कुल दुबला-पतला और सर पर काली टोपी लगाता था। देखकर ऐसा लगता था जैसे कोई स्कूल का टीचर हो। शायद यही वजह रही कि तब तक आम पाठक उससे इतना प्यार न करता हो। लेकिन समय के साथ लक्ष्मण की रेखाएं और सोच दोनों परिपक्व होते गए और कॉमन मैन की शक्ल भी बदलने लगी। 1950 से 60 के दशक में लक्ष्मण ने हर साल नए प्रयोग किए और कॉमन मैन को एक स्कूल टीचर से एक आम भारतीय बना दिया। नतीजा यह हुआ कि अब लोग उससे जुड़ाव महसूस करने लगे। वह एक साठ साल रिटायर्ड इंसान था। सफेद धोती और चौकड़ीदार जैकेट और नाक से सरकता चश्मा उसकी पहचान बन गई। और फिर शुरू हुआ लक्ष्मण का सफर कभी नहीं रुका। 
लक्ष्मण की विशेषता यह थी कि वे हमेशा सीधी सरल रेखा और सीधे सरल शब्दों में ही अपनी बात कहा करते थे। लक्ष्मण के कार्टून के विषय हमेशा प्रमुख रूप से राजनैतिक व सामाजिक रहे। आजादी के पूर्व से अबतक लक्ष्मण ने अनेकों प्रमुख घटनाओं पर तीखे व्यंग्य किये। पिछले साठ-पैसठ सालों में ढ़ेरों ऐसे मौके आए जब लक्ष्मण ने यादगार कार्टून बनाए। खासतौर पर देश के पहले आम चुनाव में जब पंडित नेहरू जीत कर आए तो लक्ष्मण ने जमकर कटाक्क्ष किए थे। उसके बाद पाकिस्तान-चीन युद्ध में इंदिरा गांधी की भूमिका हो या राजीव गांधी का कार्यकाल, बाबरी विधवंस हो या मंडल कमीशन लक्ष्मण की कूची से कुछ नहीं बचा। भाजपा और कांग्रेस की कार्यप्रणाली पर उनके व्यंग्य बेहद रोचक हुआ करते थे। मुझे आज भी पूर्व संचार मंत्री सुखराम के घर सीबीआई के छापे पर लक्ष्मण का बनाया कार्टून याद है। जिसमें एक अधिकारी दूसरे से पूछ रहा है कि इन नोटों की गिनती किस पर लिखूं यहां तो एक भी कोरा कागज नहीं है, सारे नोट ही नोट हैं।
उस वक्त भाजपा में आडवाणी के बढ़ते कद का अंदाजा लक्ष्मण के कार्टूनों से लगाया जा सकता था। एक समय ऐसा आया जब वे आडवाणी को अटलजी से कहीं ज्यादा बड़ा दिखाने लगे थे। वे बाल ठाकरे का कार्टून हमेशा उनकी शेर की तरह पूंछ दिखाकर बनाते थे।   
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आर के लक्ष्मण -5

रेखाओं के बादशाह को आखिरी सलाम


इसे लिखने का मकसद सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण को सामने रखकर हिंदी कार्टूनिंग का सिहांवलोकन करना है। लक्ष्मण भले ही अंग्रेजी के कार्टूनिस्ट हों लेकिन उनके बनाए ढ़ेर सारे कार्टून्स और उनका कद हर कार्टूनिस्ट लिए प्रेरणादायी है। लेकिन बात जब भाषायी कार्टूनिंग की हो, तो सवाल उठता है कि इतने ऊंचे कद का कार्टूनिस्ट हिंदी में क्यों नहीं? आखिर हिंदी कार्टूनिंग की हालत ऐसी क्यों है?  इसके पीछे की सच्चाई क्या है? इसके लिए कौन जिम्मेदार है
यह विदित है कि कार्टूनिंग की विधा विदेशियों की देन है। लेकिन भारत में कार्टूनिंग की शुरूआत अंग्रेजी और हिंदी माध्यम में लगभग साथ-साथ हुई। फिर बीते साठ सालों में ऐसा क्या हुआ जो आज हिन्दी कार्टूनिंग  इस दशा में है। आख़िर हिंदी और अंग्रेजी कार्टूनिंग में इतनी असमानता क्यों? क्या केवल भाषा की वजह से? क्या भारत और इंडिया का फर्क हम कार्टूनिंग में भी देख रहे हैं? इसमे कोई नई बात नहीं होगी कि एक दिन हिंदी का कोई कार्टूनिस्ट सरकार से अपनी बदहाली के लिए मुआवजा मांग ले। रही-सही कसर अखबार को प्रॉडक्ट मान लेने की सोच ने पूरी कर दी है। अब अधिकांश हिंदी अखबारों के पहले पन्ने   से कार्टून गायब है। कार्टून की जगह विज्ञापनों ने ले ली है। कार्टून को एक फिलर की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा है। जबकि माना जाता है कि कार्टून अखबार की पहली हेडलाईन के बाद सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला आयटम होता है। फिर भी ऐसा क्यों?  ऐसी स्थिति अंग्रेजी अखबारों में क्यों नहीं? क्या वे अखबार को प्रोडक्ट नहीं मानते? या फिर फर्क सम्पादकीय सोच का है?
ऐसी बात नहीं है कि हिंदी कार्टूनिंग की इस दुर्दशा के लिए सिर्फ संपादक या मैनेजमैंट ही जिम्मेदार है। हिंदी के कार्टूनिस्ट भी उतने ही दोषी हैं। हिंदी में हमेशा से ही ऐसे कार्टूनिस्टों की भरमार रही है जिनकी स्केचिंग में दम नहीं। भाव लाना तो दूर वे एक गोल तक ठीक से नहीं बना सकते। लेकिन कोई इस बात को समझने के लिए राजी नहीं कि कार्टून का वास्तविक अर्थ व्यंग्यचित्र से है। जिसमें पहली प्राधानता चित्र को देनी चाहिए। इसमें कमेंट की कोई जगह नहीं होती। आपका चित्र ही इतना पावरफुल होना चाहिए कि कमेंट की आवश्यक्ता महसूस न हो।
मैं मानता हूं कि रोज़मर्रा के बनाए जाने वाले कार्टूनों में इतना संभव नहीं, कमेंट देना जरूरी हो जाता है। उसका अपना महत्व है। फिर भी आपका इलस्ट्रेशन तो मजबूत होना ही चाहिए। उससे किसी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता। आप केवल कमेंट में महारत रखते हैं तो प्लीज़, आप ट्विट का सहारा लीजिए मगर कार्टून को बक्शिए। 
आज भी, जब कभी अच्छे कार्टून्स का जिक्र होता है तो लोग पट से शंकर,  लक्ष्मण,  मारियो या नैनन का ही उदाहरण क्यों देते हैं? जाहिर सी बात है कि इन सब की स्केचिंग में दम है। और वहीं पाठकों पर पहला असर छोड़ती है। परिणाम हम सबके सामने है, आज पैंसठ सालों बाद भी हिंदी कार्टूनिंग उस मुकाम पर नहीं पहुंच सकी, जहां उसे पहुंचना चाहिए था। आज यह चिंतन का विषय होना चाहिए कि हिंदी कार्टूनिंग में कोई कार्टूनिस्ट उस मुकाम पर क्यों नहीं है जो आर के लक्ष्मण के समकक्ष खड़ा हो सके। आखिर इन अंग्रेजी कार्टूनिस्टों में ऐसी क्या बात है जो हिंदी कार्टूनिस्टों में नहीं?
बीच में एक दौर था जब धर्मयुग के आखिरी पन्ने पर आबिद सुरती का कार्टून कोना-ढब्बूजी छपा करता था। बेहद लोकप्रिय इस कोने के लाखों प्रशंसक थे। इसकी लोकप्रियता देख धर्मवीर भारती ने आबिद से कहा था, तुमने पाठकों को मुसलमान बना दिया। लोगों को धर्मयुग पीछे से देखने की आदत पड़ गई है। यहां कहने की जरूरत नहीं की कॉमिक्स के क्षेत्र में जरूर प्राण साहब ने हिंदी कार्टूनिंग की लाज रखी। 
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आर के लक्ष्मण -6

रेखाओं के बादशाह को आखिरी सलाम


मुंशी प्रेमचंद ने कभी कहा था कि कोई भी इंसान लेखक बन सकता है। बशर्ते उसके पास सोचने की शक्ति हो और पर्याप्त मात्रा में शब्द। बस शब्दों को एक बारगी पिरोना ही तो है। लेकिन यह बात कार्टूनिंग पर लागू नहीं होती। क्योंकि कार्टूनिंग सेंस ऑफ ह्यूमर का खेल है। और यह ह्यूमर का कीड़ा हर किसी में नहीं होता। इसके लिए आपकी छटी इंद्री का जागृत होना जरूरी है। इसी से आपका खबरों तथा सामाजिक हलचल को देखने का नज़रिया बदल जाता है।
कार्टून के लिए केवल आयडिया आना ही काफी नहीं। इसकी असल परीक्षा तो उस आयडिया को रेखाओं में ढ़ालते वक्त होती है। इससे भी बात न बने तो उस पर शब्दों के तीर चलाने पड़तो हैं। ..तब कहीं जाकर एक कार्टून पूर्ण आकार ले पाता है। लेकिन जरूरी नहीं की तब भी यह कार्टून जन-सामान्य को अच्छा लगे। क्योंकि कोरी आलोचना सुनना, देखना या पढ़ना किसी को पसंद नहीं आता। इसलिए कार्टूनिस्ट इस पर ह्यूमर का एक ऐसा अर्क चढ़ाते हैं जिससे इसकी रोचकता बढ़े। यह रेखांकित आलोचना एक सर्वमान्य रूप ले सके। ताकि जिस पर आप व्यंग्य कर रहे हैं उसे बुरा न लगे और आपकी बात उसके जहन में हू-ब-हू उतर जाए। यही कार्टूनिंग की सर्वमान्य परिभाषा है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या वर्तमान हिंदी कार्टूनिंग इस परिभाषा पर कितनी खरी उतर रही है?
सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे का कार्टूनिंग को लेकर अलग ही नज़रिया है। ठाकरे ने हमेशा कार्टूनिस्ट को एक प्रेगनेंट लेडी की तरह माना। उनका मानना है कि एक गर्भवती महिला साल में एक बार गर्भवती होती है लेकिन एक कार्टूनिस्ट तो रोज़ प्रेगनेंट होता है। एक कार्टून का निर्माण करते समय उसे भी वही प्रसव पीड़ा झेलनी पड़ती है जो एक गर्भवती महिला प्रसव के समय झेलती है।
लेकिन हिंदी के अमूमन कार्टूनिस्टों के पास आज इस पीड़ा को झेलने का वक्त नहीं है। वे समय से पहले ही एबॉरशन कर पीड़ा से मुक्त हो जाते हैं। इस प्री-मेच्योर डिलेवरी का नतीजा यह होता है कि बच्चा अस्वस्थ पैदा होता है जिसमें न व्यंग्य होता है और न ही चित्र। जिसका खामियाजा आज हिंदी कार्टूनिंग भुगत रही है।
सच्चाई यह है कि आज हिंदी में दशा एक सरकारी अस्पताल की तरह है। हिंदी अखबारों के दफ्तरों में कार्टूनिस्ट अमूमन ऐसी जगह बैठा होता है जहां भारी शोर-शराबा और कार्टून बनता देखने वाले दिवाने मौजूद होते हैं। आप खड़े होकर शांति से देखें तो भी कोई बात नहीं मगर बीच में सलाह दिए बिना या हंसे-मुस्कुराए बिना कुछ लोगों से रहा नहीं जाता। ऐसा क्रिएटिव वर्क जिसमें गहन सोच विचार और शांति की जरूरत होती है वहां एक कार्टूनिस्ट इनसे जूझ रहा होता है। नतीजा एक फीका कार्टून पाठकों को मिलता है।
आज जरूरत एक ऐसी इच्छा शक्ति की है, जिसके लिए हर स्तर पर प्रयास होना चाहिए। प्रबंधकों, सम्पादकों को चाहिए कि कार्टूनिस्टों को व्यंग्य में पूरी तरह डूबने का अवसर दें। कार्टून की गंभीरता को समझे। कार्टूनिस्ट से केवल कार्टून ही बनवाएं, अपराध या अन्य घटनाओं पर स्केच नहीं। उन्हें हर वह उपयुक्त माहौल दें जो एक अंग्रेजी के कार्टूनिस्ट को मिलता है। निरंतरता बनाएं रखें, उसे टूटने न दें। आज लक्ष्मण की पहचान बनी है तो उस समाचार पत्र का भी उतना ही योगदान है, जिसने उसे साठ सालों तक सहेजे रखा।
आज भारतीय कार्टूनिंग अपनी पूरी परिपक्वता के साथ आगे बढ़ रही है। कार्टून अब अखबारों से निकलकर एनिमेशन मोड में आते जा रहे हैं। ऐसे में सभी को कम समय में अपनी बात कहने का सबसे सशक्त माध्यम कार्टून ही लगता है। प्रत्येक राजनीतिक घटना पर अमूल का विज्ञापन हो यागुस्ताखी माफ या फिर एनिमेटेड सो सॉरी कार्टूनिंग का ही प्रतिरूप है।
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जब प्राण कॉमिक्स से निकले
भारत का वॉल्ट डिज़नी नहीं रहा। वॉल्ट डिज़नी मतलब वह कला पुंज जिसने अपनी कला से सारे संसार को मोह लिया हो। प्राण साहब, भारत देश के ऐसे ही महान कलाकार थे। एक तिलिस्म को तोड़ने का साहस था उनमें। आज भी याद आता है वह सत्तर-अस्सी का दशक। जब देश के बच्चों को फैंटम, सुपरमैन आदि विदेशी कार्टून कैरेक्टरों ने अपने मोहपाश में जकड़ रखा था। ऐसे में प्राण साहब ने चाचा चौधरी को यह जिम्मा सौंपा कि वह देश के बच्चों में अपनेपन की अलख जगाए। उन्हें इन विदेशी किरदारों के मोहपाश से मुक्त करे। कम्प्यूटर से भी तेज दिमाग वाले चाचा चौधरी ने वह काम बखूबी निभाया।      
यह मात्र कॉमिक्स का करियर नहीं, एक आंदोलन था। एक ऐसी कला क्रांति, जिसने सबको एकजुट किया। आजादी का ऐसा पैगाम जिसे सुबह बच्चों ने तो शाम को जवानों पढ़ा। वहीं रात को चोरी छिपे देश के बूढ़े भी इसे पढ़ने से अछूते नहीं रहे। वही बीज, आज साठ सालों बाद एक वट वृक्ष सा प्रतीत हो रहा है। कार्टून किंग प्राण साहब आज हमारे बीच भले ही न हो लेकिन उनकी कॉमिक्स हमें सदैव गुदगुदाती रहेगी। उनकी कॉमिक्स को एक ऐतिहासिक दस्तावेज भी कहें तो गलत न होगा। जिसके दम पर आज भारत का युवा अपना करिअर तलाशना चाहता है। वे युवा जो कैरेक्ट डिज़ाइनिंग, एनिमेशन, स्क्रिप्टिंग की फील्ड में किस्मत आज़माना चाहते हैं, उन्हें प्राण साहब की संघर्ष गाथा हमेशा याद रखनी होगी। जिसमें मौलिक्ता, नवीनता, सहजता कूट-कूट कर गढ़ी थी। यह उन्हीं रेखाओं का असर है कि आज भारत में विदेशी किरदारों को देसी किरदारों से दो-दो हाथ करने को मजबूर होना पड़ रहा है। आज जहां एक तरफ बैन10, चार्ली एण्ड लोला, नॉडी, डोरेमॉन, शिनचैन जैसे विदेशी किरदार हैं तो वहीं भीम, घटोत्कच, गणेशा, हनुमान, मोटू और पतलू जैसे देसी किरदार उनसे लोहा ले रहे हैं। हलांकि इन फेमस एनिमेटेड देसी किरदारों में प्राण साहब के कैरेक्टर भले ही न हो लेकिन इन किरदारों को गढ़ने का जस्बा उन्हीं की देन है।
एक वक्त था जब एक ऐसे ही देसी किरदारों की फौज चाचा चौधरी के साथ थी। बिल्लू, पिंकी, साबू, श्रीमती जी, चन्नी चाची, गोबर सिंह, राका, बजरंगी, गब्दू और झपटजी सब के सब एक से बढ़कर एक थे। हर कॉमिक्स की शुरुआत चाचा के नाक में होने वाली खुजली से ही होती थी। चाचा की नाक में खुली मची मतलब कोई समस्या आयी समझो। बिल्लू ऐसा आवारा जिसने कभी कंघी न की हो। किसी ने आज तक उसकी आखें नहीं देखी। चाची इतनी मोटी की चाचा को भी सबक सिखा दे। राका इतना खतरनाक की गब्बर सिंह भी कुछ न लगे। धरती के वासियों की समस्या खत्म न होता देख चाचा चौधरी साबू को भी ज्यूपिटर से ले आए। साबू भी ऐसा भीमकाय कि उसको गुस्सा आया तो कहीं न कहीं ज्वालामुखी फटा समझो। डायमंड कॉमिक्स, पराग, लोटपोट के हर अंक में उनके ये किरदार हमें आकर्षित करते थे। इतना ही नहीं सरिता में प्रकाशित श्रीमतीजी और तोशी की कार्टून स्ट्रिप भी हमें बरसों गुदगुदाती रही।
प्राण साहब एक जिंदादिल इंसान थे। कला के अहंकार से कोसो दूर उनका अस्तित्व था। मृदु भाषी, मिलनसार, समय के बेहद पाबंद। यही अनुशासन उनकी कला में भी झलकता रहा। बिना रुके, बिना थके वे अपने काम में मसरूफ रहे। बच्चों के लिए काम करना उनका पसंदीदा शगल था। अपनी विशिष्ठ शैली से उन्हें वे एज्युकेट करना चाहते थे। बच्चों को हंसाते, गुदगुदाते एक बेहतर इंसान बनाना चाहते थे वे। हममें से कोई ऐसा न होगा जिसने उन्हें न पढ़ा हो। पिता के कहा भी, कार्टून बनाओगे तो कोई शादी नहीं करेगा। लेकिन उन्होंने एक न मानी। यह सोचकर कि राजनीतिक कार्टून कुछ समय बाद पुराने पड़ जाते हैं इसलिए कार्टून के लिए सामाजिक राह चुनी। जैसा देश-वैसा भेष। वैसे ही कैरेक्टर गढ़े। जो आम भारतियों से लगे।
वर्ल्ड इनसाइकलोपीडिया के संपादक ने उन्हें भारत का वॉल डिज़नी कहा। वे पिछले पांच दशकों से सिर्फ और सिर्फ बच्चों के लिए काम करते रहे। कार्टून किंग के तमगे से उनकी कला निरंतर दमकती रही। 1960 में दैनिक मिलाप से अपना कैरिअर शुरू किया और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। प्राण साहब का नाम 1995 में लिम्‍का बुक ऑफ रिकार्ड में दर्ज किया गया। साथ ही उन्‍हें 1997 में राजधानी रत्न अवॉर्ड व 2001 में लाईफ टाईम अचीवमेंट अवार्ड मिला। 

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सिसकती हिंदी कार्टूनिंग-1
दरअसल इस लेख का मकसद सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण को सामने रखकर हिंदी कार्टूनिंग का सिहांवलोकन करना है। आज रखाओं का जादूगर बेहद अस्वस्थ है। लक्ष्मण भले ही अंग्रेजी के कार्टूनिस्ट हो लेकिन उनके बनाए ढ़ेर सारे कार्टून्स और उनका ऊंचा कद हर कार्टूनिस्ट लिए प्रेरणादायी है। लेकिन बात जब भाषायी कार्टूनिंग की हो, तो सवाल उठता है कि इतने ऊंचे कद का कार्टूनिस्ट हिंदी में क्यों नहीं? आखिर हिंदी कार्टूनिंग की हालत ऐसी क्यों है? इसके पीछे की सच्चाई क्या है? इसके लिए कौन जिम्मेदार है?   
कहना न होगा कि कार्टूनिंग की विधा विदेशियों की देन है। लेकिन भारत में कार्टूनिंग की शुरूआत अंग्रेजी और हिंदी माध्यम में लगभग साथ-साथ हुई। शुरूआत नई थी। आसमान पूरा खुला था। व्यंग्य की अपार संभावनाओं के साथ कार्टून विधा पूरी क्षमता से आगे बढ़ रही थी। पठकों को इसका चसका लग चुका था। वे रोज़ अखबार के पन्ने कार्टून देखने के बाद ही पलटा करते थे। चाय की चुस्कियों का मजा कार्टून के बिना आता नहीं था। कार्टून की गंभीरता अब लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगी थी। यही वजह थी की नेहरू भी इसके दिवाने हो गए थे। जब नेहरु पहली बार प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने शंकर से कहा कि मुझे मत बक्शना। इतनी साफगोई और आलोचना से दूर न भागने का साहस कम ही लोगों में होता है। लेकिन उनके यह शब्द कार्टून की जीत थी। ऐसा नहीं है कि ऐसी तारीफें केवल अंग्रेजी के कार्टूनिस्टों को ही मिली। हिन्दी के कार्टूनकार भी पीछे नहीं थे। धर्मयुग का वह दौर सभी को याद होगा। जिसके आखिरी पन्ने पर आबिद सुरती का कार्टून कोना-ढब्बूजी छपा करता था। बेहद लोकप्रिय इस कोने के लाखों प्रशंसक थे। इसी लोकप्रियता को देखकर धर्मवीर भारती ने आबिद से कहा था कि तुमने पाठकों को मुसलमान बना दिया। लोगों को धर्मयुग पीछे से देखने की आदत पड़ गई है।
भारत में कार्टून अब अपनी जगह बना चुका था। लोग इस बात को समझने लगे थे कि जीवन की मूक आलोचनाओं का दूसरा नाम ही कार्टूनिंग है। एक कार्टून दस हजार शब्दों के बराबर होता है। एक सफल कार्टूनकार की योग्यता इसी में है कि वह समाज की कड़वी आलोचनाओं को अपने ब्रश से सहज रूप में मानव-मन में उतारते। राजनैतिक निरसता को सरसता में बदलने का हुनर तो एक कार्टूनिस्ट ही जानता है। यह वह दौर था जब हिंदी और अंग्रेजी के कार्टूनों की विश्वसनियता बराबर थी। लोग दोनों को समान नज़रों से देखा करते थे। हलांकि हिंदी कार्टूनिस्टों की आर्थिक बदहाली शुरू से जगजाहिर थी मगर लोकप्रियता में अंग्रेजी से कम भी नहीं थे। अखबार के पहले पन्ने पर कार्टून का होना पत्रकारिता का धर्म बन चुका था। लोग कार्टूनिस्ट के नाम से अखबार या पत्रिकाओं को जानने लगे थे।
अब दौर बदल चुका है। इन साठ सालों में हिंदी और अंग्रेजी कार्टूनिंग में इतनी असमानता आ चुकी हैं जितनी कि हिंदी और अंग्रेजी भाषा में, गांवों और शहरों में। देश जब से भारत से इंडिया में तबदील हुआ है हिंदी कार्टूनिंग की दशा भी ग्रामीण जीवन से कम नहीं है। इसमे कोई नई बात नहीं होगी कि एक दिन हिंदी का कोई कार्टूनिस्ट सरकार से अपनी बदहाली के लिए मुआवजा मांग ले। महानगरों में तो हालात फिर भी काबू में हैं लेकिन बाकि शहरों में तो बुरी स्थिति है। इक्का-दुक्का अखबारों को छोड़ दें तो कोई दो से पांच हजार रुपया महीना भी देने को राजी नहीं। और रही-सही कसर अखबार को प्रॉडक्ट मान लेने की सोच ने पूरी कर दी है। अब अधिकांश हिंदी अखबारों के पहले पन्ने बिना कार्टून के ही सजते हैं। कार्टून की जगह सिंगल कालम विज्ञापनों ने ले ली है। कार्टून को एक फिलर की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा है। पहले पेज से तीन कालम कार्टून तो जैसे गायब ही हो गए हैं। आश्चर्य की बात है ऐसी स्थिति अंग्रेजी अखबारों में क्यों नहीं। क्या वे अखबार को प्राडक्ट नहीं मानते। फर्क सिर्फ सोच का है।
एक सर्वे के मुताबिक कार्टून अखबार की पहली हेडलाईन के बाद सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला आयटम होता है। ऐसी बात नहीं है कि हिंदी कार्टूनिंग की इस दुर्दशा के लिए सिर्फ संपादक या मैनेजमैंट ही जिम्मेदार है। हिंदी के कार्टूनिस्ट भी उतने ही दोषी हैं। हिंदी में हमेशा से ही ऐसे कार्टूनिस्टों की भरमार रही है जिनकी स्केचिंग में दम नहीं है। जो एक गोला तक ठीक से खींच नहीं सकते, एक्सप्रेशन तो दूर की बात है। लेकिन कोई इस बात को समझने के लिए राजी नहीं कि कार्टून का वास्तविक अर्थ व्यंग्यचित्र से है। जिसमें पहली प्राधान्यता चित्र को देनी चाहिए। इसमें कमेंट की कोई जगह नहीं होती। आपका चित्र ही इतना पावरफुल होना चाहिए कि कमेंट की आवश्यक्ता ही महसूस न हो। मैं मानता हूं कि रोज़-मर्रा के बनाए जाने वाले कार्टूनों में इतना संभव नहीं, कमेंट देना जरूरी हो जाता है फिर भी कार्टून का चित्र या इलस्ट्रेशन तो मजबूत होना ही चाहिए। उससे किसी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता। आप केवल कमेंट में महारत रखते हैं तो प्लीज़, आप ट्विट का सहारा लीजिए या व्यंग्य लिखिये मगर कार्टून को बक्शिये।
आज भी, जब कभी, अच्छे कार्टून्स का जिक्र होता है तो लोग पट से शंकर, लक्ष्मण, मारियो या नैनन का ही उदाहरण क्यों देते हैं। जाहिर सी बात है कि इन सब की स्केचिंग में दम है। और वहीं पाठकों पर पहला असर छोड़ती है। परिणाम हम सबके सामने है, आज साठ सालों बाद भी हिंदी कार्टूनिंग उस मुकाम पर नहीं पहुंच सकी, जहां उसे पहुंचना चाहिए था। आज यह चिंतन का विषय होना चाहिए कि हिंदी कार्टूनिंग में कोई कार्टूनिस्ट उस मुकाम पर क्यों नहीं है जो आर के लक्ष्मण के समकक्ष खड़ा हो सके। आखिर इन अंग्रेजी कार्टूनिस्टों में ऐसी क्या बात है जो हिंदी कार्टूनिस्टों में नहीं।
इसका यह मतलब भी नहीं कि अंग्रेजी में काम करने वाले सभी बेहतर हैं। लेकिन उनका प्रतिशत हिंदी जैसा काम करने वालों से काफी कम है। कभी लोग बेहतर काम के लिए राष्ट्रीय अखबारों को देखा करते थे। मगर आज राज्यों में ज्यादा बेहतर काम हो रहा है। क्षेत्रीय भाषाओं में कार्टूनिंग तो सबसे बेहतर हो रही है जिसमें दक्षिण भारत के राज्यों के साथ-साथ महाराष्ट्र और बंगाल भी पीछे नहीं है। बात केवल अखबारी कार्टूनों की ही क्यों, स्वतंत्र पत्रिकाओं व  कॉमिक्स आदि की करें तो भी अंग्रेजी के साथ-साथ अन्य भाषाएं हिंदी को पछाड़ रही हैं। अब तक हिंदी कॉमिक्स में अपना वर्चस्व रखने वाले चाचा चौधरी भी अब एनिमेशन उद्योग के बढ़ते प्रभाव से सकते में है। कहने की जरूरत नहीं की कॉमिक्स के क्षेत्र में ही सही प्राण साहब ने हिंदी कार्टूनिंग की लाज रखी।


सिसकती हिंदी कार्टूनिंग-2
मुंशी प्रेमचंद ने कभी कहा था कि कोई भी इंसान लेखक बन सकता है। बशर्ते उसके पास सोचने की शक्ति हो और पर्याप्त मात्रा में शब्द। बस शब्दों को एक बारगी पिरोना ही तो है। लेकिन यह बात कार्टूनिंग पर लागू नहीं होती। क्योंकि कार्टूनिंग सेंस ऑफ ह्यूमर का खेल है। और यह ह्यूमर का कीड़ा हर किसी में नहीं होता। इसके लिए आपकी छटी इंद्री का जागृत होना जरूरी है। इसी से आपका खबरों तथा सामाजिक हलचल को देखने का नज़रिया बदल जाता है। आपकी सोच एकदम अलग हो जाती है। आप हर चीज के बारे में वैसा नहीं सोचते जैसा कि आम इंसान सोचता है। जिसे ही व्यावसायिक भाषा में आयडिया कहते है। लेकिन कार्टून के लिए केवल आयडिया आना ही काफी नहीं होता। इसके बाद इसकी असली परीक्षा शुरू होती है। इस आयडिया को रेखाओं में ढ़ालने की और फिर इनसे भी बात न बने तो उस पर शब्दों के तीर चलाने की...तब कहीं जाकर एक कार्टून पूर्ण आकार ले पाता है। लेकिन जरूरी नहीं की अभी यह कार्टून जन-सामान्य को अच्छा लगे। क्योंकि कोरी आलोचना सुनना, देखना या पढ़ना किसी को पसंद नहीं आता। इसलिए कार्टूनिस्ट इस पर ह्यूमर का एक ऐसा अर्क चढ़ाते हैं जिससे इसकी रोचक्ता बढ़े और यह रेखांकित आलोचना एक सर्वमान्य रूप ले सके। ताकि जिस पर आप व्यंग्य कर रहे हैं उसे बुरा न लगे और आपकी बात उसके जहन में हू-ब-हू उतर जाए। यह कार्टूनिंग की सर्वमान्य परिभाषा है। जिस पर किसी को आपत्ति नहीं। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या वर्तमान हिंदी कार्टूनिंग इस परिभाषा पर खरी उतर रही है।
सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे का कार्टूनिंग को लेकर अलग ही नज़रिया है। ठाकरे ने हमेशा कार्टूनिस्ट को एक प्रेगनेंट लेडी की तरह माना। उनका मानना है कि एक गर्भवती महिला साल में एक बार गर्भवती होती है लेकिन एक कार्टूनिस्ट तो रोज़ प्रेगनेंट होता है। एक कार्टून का निर्माण करते समय उसे भी वही प्रसव पीड़ा झेलनी पड़ती है जो एक गर्भवती महिला प्रसव के समय झेलती है। लेकिन हिंदी के अमूमन कार्टूनिस्ट आज यह पीड़ा छेलना नहीं चाहते, और समय से पहले ही एबॉरशन कर पीड़ा से मुक्त हो जाते हैं। इस प्री-मैच्यौर डिलेवरी का नतीजा यह होता है कि बच्चा स्वस्थ होने के बजाए अस्वस्थ पैदा होता है जिसमें न व्यंग्य होता है और न ही चित्र। जिसका खामियाजा आज हिंदी कार्टूनिंग भुगत रही है। लेकिन यह केवल एक पक्ष है। दूसरे पक्ष की सच्चाई ठीक वैसी ही है जैसी एक सरकारी अस्पताल की होती है। हिंदी अखबारों के दफ्तरों में कार्टूनिस्ट अमूमन ऐसी जगह बैठा होता है जहां भारी शोर-शराबा और कार्टून बनता देखने वाले दिवाने मौजूद होते है। आप खड़े होकर शांति से देखें तो भी कोई बात नहीं मगर बीच में सलाह दिए बिना या हंसे-मुस्कुराए बिना कुछ लोगों से रहा नहीं जाता। ऐसा क्रिएटिव वर्क जिसमें गहन सोच विचार के लिए शांति की जरूरत होती है वहां एक कार्टूनिस्ट इनसे जूझ रहा होता है। नतीजा एक फीका कार्टून पाठकों को पढ़ने मिलता है। सुप्रसिद्ध अमेरिकन कार्टूनिस्ट रूबी गोल्डबर्ग कार्टूनिंग को कैरम की तरह एक खेल बताते हुए कहते हैं कि हमारे विचार एक स्ट्राइकर की तरह होते हैं जिसे हम लगातार मारते हैं, यदि स्ट्राइकर गोटी (जिस विषय पर हम कार्टून बनाना चाहते हैं) पर लगा और वह बराबर होल में गई तो आयडिया आया समझो। लेकिन इसके लिए वे कार्टूनिस्ट को हमेशा काम के वक्त एक बंद कमरे में बैठने की सलाह देते हैं। ताकि स्ट्राइकर रिबाऊंड लेकर वापस आयडिया दिमाग में डाल सके। सवाल यह है कि अंग्रेजी और हिंदी के वातावरण में इतना फर्क कैसे।
आज जरूरत एक ऐसी इच्छा शक्ति की है, जिसके लिए हर स्तर पर प्रयास होना चाहिए। प्रबंधकों, सम्पादकों को चाहिए कि कार्टूनिस्टों को व्यंग्य में पूरी तरह डूबने का अवसर दें। कार्टून की गंभीरता को समझे। कार्टूनिस्ट से केवल कार्टन ही बनवाएं, अपराध या अन्य घटनाओं पर स्केच नहीं। उन्हें हर वह उपयुक्त माहौल दें जो एक अंग्रेजी के कार्टूनिस्ट को मिलता है। निरंतरता बनाएं रखें, उसे टूटने न दें। आज लक्ष्मण की पहचान बनी है तो उसमें टाइम्स ऑफ इंडिया का भी उतना ही योगदान है, जिसने उसे साठ सालों तक पहले पेज पर सहेजे रखा। इन साठ सालों में कितने अभिनेता बदले, राजनेता बदले, समाज सेवक बदले यहां तक की खिलाड़ी भी बदल गए मगर लक्ष्मण नहीं बदले। मानाकि कार्टून सेंस ऑफ ह्यूमर पर आधारित एक कला है लेकिन उसके लिए भी पर्याप्त अध्ययन की आवश्यक्ता होती है। शहर के तमाम अखबार संपादक के साथ-साथ कार्टूनिस्टों को भी पढ़ने के लिए मिले तो बात बने। शायद इसी वजह से आज अधिकांश कार्टूनिस्ट अध्ययन में डूबने के बजाए पहले कार्टून के आयडिया की चिंता करते हैं। वे बिना विजुवलाईज किये ही कार्टून बना लेना चाहते हैं ताकि जल्द से जल्द आज का काम निपट सके। वे कार्टून में जीना ही नहीं चाहते। इक्कादुक्का कार्टनिस्ट को छोड़ दे क्या आपने किसी हिंदी कार्टून में लक्ष्मण जैसा दृश्य चित्रण देखा.. ? हिंदी कार्टूनों में दृश्य चित्रण तो होता ही नहीं। दो कैरेक्टर बनाए कि बस हो गया कार्टून। कुछ तो उतना भी बनाने की जहमत नहीं उठाते। रोज़ एक अखबार की कतरन चिपकाकर, गोले में कमेंट मार देना ही कार्टून नहीं होता। कार्टून एक मूक अभिव्यक्ति है जिसे रेखाओं प्रदर्शित करना है।
व्यंग्य में हिंदी कमजोर नहीं है, बल्कि अंग्रेजी से कहीं ज्यादा सटीक और कम शब्दों का इस्तेमाल इसमें कर सकते हैं। सैकड़ों लोकोक्तियां, मुहावरे, दंत कथाएं, क्षेत्रीय भाषाएं हमारे कार्टूनिंग की जान है। अंग्रेजी से ज्यादा हम आम आदमी के करीब हैं। बावजूद इसके, हम उनके आगे कहीं नहीं ठहरते। क्या हिंदी कार्टूनिस्टों को इस देश में वह मुकाम कभी हासिल नहीं होगा जो अंग्रेजी के कार्टूनिस्टों का है। हिंदी में काम करने का अभिशाप क्या हिंदी कार्टूनिंग को लील जाएगा। मानाकि अंग्रेजी धनाड्यों की भाषा है, इसलिए आप पीछे हैं..लेकिन क्या पीछे होने में आपकी मेहनत जिम्मेदार नहीं ? कोई तो वजह होगी जिसके डर से कुछ कार्टूनिस्ट, हिंदी से अंग्रेजी में  पलायन कर गए। हिंदी इतनी अभिशप्त होती तो आज हिंदी सिनेमा की भी वही स्थिति होनी चाहिए थी। बतौर कार्टूनिस्ट, दुख होता है जब हम एक अंग्रेजी कार्टून को हिंदी में अनुवादित छपा हुआ देखते हैं। आखिर हम क्यों इतने लाचार हो जाते हैं अंग्रेजी के कार्टूनों को लेकर। कभी किसी हिंदी कार्टून को अंग्रेजी में अनुवादित छपा देखा है आपने? जनाब अपने देश की तो छोड़िए, हम विदेशियों के कार्टून और कार्टून स्ट्रिप भी हिंदी में चिपका लेते हैं फिर उसमें हास्य हो या न हो। आखिर यह गुलामी कब तक....?
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अलविदा हुसैन ...
कलाकार को भी हो सर्वजन हिताय का बोध
अरे कलाकार हैं तो क्या हुआ, हैं तो देश का बाशिंदा। समाज का एक हिस्सा। कलाकार हैं तो नागरिक भी तो हैं। ऐसे कैसे कोई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी कर सकता है। इन दिनों मकबूल फिदा हुसैन फिर चर्चा में हैं। जब से यह खबर आई है कि उन्होंने कतर की नागरिक्ता स्वीकार कर ली है, भारत में हलचल है। वे रोज अखबारों में, पत्रिकाओं में लिखे जा रहे हैं। हलांकि अब सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार को यह निर्देश देने से इनकार कर दिया कि वह खाड़ी देश में रह रहे स्वनिर्वासित चित्रकार एमएफ हुसैन की वापसी सुनिश्चित करने और  उनके खिलाफ चल रहे मामले वापस लेने के लिए कदम उठाए।
इस लेख को लिखने का उद्देश्य कलाकार के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर ही है। इसी स्वतंत्रता के नाम पर कुछ लोगों नाम कमाया (बदनाम होकर भी)। मुझे आज भी मेरी इंदौर में लगी एक कार्टून प्रर्दशनी के दौरान सुप्रसिद्ध चित्रकार स्व. विष्णु चिंचालकर के शब्द याद हैं। उद्घाटन अवसर पर अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि कला में संयम की चौखट जरूरी है अन्यथा कला विकृत रूप धारण कर लेती है और कलाकार व समाज को उसका खामीयाजा भुगतना पड़ता है। यह बात पुरानी जरूर हो गई मगर हर कलाकार के लिए आज भी सौ फीसदी सच है। फिर वह चाहे जिस भी विधा में काम करता हो। यह बात आज भी मुझे हर उस वक्त याद आती है जब मैं कोई कार्टून या चित्र बनाने के लिए ब्रश उठाता हूं। आज उसी संयम की चौखट लांघने की सजा हुसैन कतर में रहकर गुजार रहे हैं। और वह भी इन्हीं कदरदानों के कारण जिन्होंने उन्हें चित्रकार से ब्रांड बनाया दिया।
सुप्रसिध्द गणितज्ञ रामानुजन के जीवन से जुड़ी एक विशेष बात यहां प्रासंगिक हो जाती है। बात तब की है जब रामानुजन किशोर थे। रामानुजन का गणित बहुत पक्का है। यह बात दूर-दूर तक गांव में मशहूर थी। वे जब भी सड़क से गुजरते हर कोई उसकी तारीफ करता। वाह रामानुजन वाह। क्या बात है सुना है तुम तो गणित में बड़े माहिर हो। जितने लोग मिलते उतने ही अलंकारों से उसे नवाजते। मगर रामानुजन पर उन बातों का कोई असर न होता। वह तो नाक की सीध में स्कूल जाता और वैसा ही आता। कई दिनों तक यह चलता रहा। एक दिन उसके मित्र ने उससे पूछ ही लिया। सब लोग तुम्हारी इतनी तारीफ करते हैं पर तुम पर उसका कोई असर नहीं होता। तुम खुश भी नहीं होते। यह सुन रामानुजन ने सरलता से जवाब दिया। दोस्त इन लोगों की तारीफ से मैं क्यों खुश होने लगा। इन्हें तो गणित में दस तक गिनती भी नहीं आती। मैं तो तब खुशी होगी जब एक अच्छा गणितज्ञ मेरी तारीफ करे।
एक कलाकार के लिए इससे ज्यादा सम्मान का विषय और क्या हो सकता है कि उसके पीछे कदरदानों की इतनी बड़ी फौज हो। एक कलाकार का सीना हुसैन का नाम पढ़कर भी गर्व से चौड़ा हो जाता है। सहसा ही वह कह उठता होगा कि कलाकार हो तो ऐसा। जो इतनी ख्याति अर्जित कर सके। एक चित्रकार होने के नाते मैं भी एसी ही महत्वाकांक्षाएं रखता हूं। लेकिन ऐसा मुकद्दर सबको नसीब नहीं होता। उसके लिए कुछ खास होना ही पड़ता है। लेकिन आश्चर्य इस बात पर होता है कि उनकी तारीफ में कसीदे वे लोग पढ़ते हैं जिन्हें चित्रकला की एबीसीडी तक नहीं आती। जिन्होंने कभी ब्रश नहीं पकड़ा। जो नहीं जानते कि कैनवास पर ब्रश रखने से पहले पेंटर का क्या उत्तरदायित्व होता है। वे तो सिर्फ लिखना चाहते हैं वो जो बिक सके। फिर भले ही उन्होंने हुसैन की कोई पेंटिंग समझ में आयी हो या नहीं। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। आखिरकार तारीफ के लिए रंगों की नहीं शब्दों की जरूरत होती है। जो उनके पास प्रचुर मात्रा में होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे पंडित जसराज के गायन में या जाकिर हुसैन के तबले की थाप पर वाह-वाह करने वालों की कमी नहीं होती। यह बात पंडित जसराज भी अच्छी तरह जानते हैं और जाकिर हुसैन भी, कि महफिल में उनके असली कदरदान कितने हैं।
हाल ही में अखबार में छपी एक एसी ही खबर पर ज़रा गौर कीजिए। खबर थी की इन दिनों एमएफ हुसैन कतर में अपने आलिशान बंगले में बैठकर मानव निर्मित ऊर्जा (कार) बनाम प्राकृतिक ऊर्जा (घोड़ा) को अपने चित्रों से उकेरने में व्यस्त हैं। और वे इस काम में पिछले तीन साल से लगे हुए हैं। मगर हास्यास्पद विषय यह है कि इस खबर को रिपोर्टर ने 'हुसैन की पेंटिंग में झलकेगी कतर की सांसकृतिक धरोहर' का शीर्षक के साथ परोसा है। अब इसे क्या कहा जाए। कला की समझ या हुसैन की चाटूकारिता। जिसमें कतर की संस्कृति का दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं था। लेकिन उन्हें तो खबर बेचनी है क्योंकि वे हुसैन को कलाकार कम प्रॉडक्ट ज्यादा मानते हैं। यही हाल लिखने वालों का भी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर वे हुसैन पर तारीफों के इतने लेबल चिपकाते चले जाते हैं कि असली प्रॉडक्ट किसी को नज़र नहीं आता। यह बात हुसैन भी भली-भांति जानते होंगे। हुसैन को ऐसे कदरदानों से सावधान रहना चाहिए।
देश में ही नहीं दुनिया में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात सभी करते हैं और चाहते भी हैं। किसी पर किसी प्रकार की रोक नहीं होनी चाहिए। मेरी नज़रों में अभिव्यक्ति सेक्स की तरह नितांत व्यक्तिगत चीज़ होती है जिसका सोच समझकर उपयोग करना चाहिए। आप एकांत में चाहे जो करें, किसी को कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन ऐसी अभिव्यक्ति जिससे समाज प्रदूषित हो किसी भी धर्म (सुप्रीम कोर्ट के मतानुसार) को मंजूर नहीं। आपकी कुशलता इसी में है कि आप समाज में कितना संतुलित व्यवहार करते हैं। और फिर ऐसे पब्लिक फिगर जिनको आम आदमी आपना आइडियल बनाने की सोचता हो उन्हें तो और भी सतर्क रहना चाहिए। क्योंकि आने वाली पीढ़ी तो उन्हीं का अनुसरण करती है। फिर वह बिल क्लिंटन हो या टाईगर वुड। या फिर मकबूल फिदा हुसैन।
मैं जानता हूं कि ऐसी कला का कोई अर्थ नहीं है जो सर्वजन हिताय न हो। मानाकि चित्र बनाते समय एक कलाकार होने के नाते हम कल्पनाओं में खोए रहते हैं। मगर पेंटिग पूरी होने पर एक आम आदमी की नज़र से उसे देखते भी हैं। उचित लगता है तभी उसे प्रदर्शित करते हैं।
शायद हुसैन ने यहीं गलती की है। उन्होंने अपना मूल्यांकन ठीक तरह से नहीं किया। जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। अन्यथा मां सरस्वती का नग्न चित्र वे नहीं बनाते। मां सरस्वती संपूर्ण वर्णित हैं। हांथ में वीणा, खुले केश, कमल पर विराजमान, श्वेत वस्त्र धारिणी। हुसैन ने अपनी सरस्वती नामक पेंटिंग में सब कुछ बनाया मगर केवल मां सरस्वती का शुभ्र सफेद आंचल बनाना भूल गए। उन्हें नग्न बनाया। आखिर क्यों। हुसैन यदि केवल न्यूड फार्म में काम करने वाले चित्रकार होते तो भी बात समझ में आती मगर उनका फार्म भी ऐसा नहीं है। वे खुली रेखाओं में कार्य करते हैं। जिसमें मां सरस्वती के वस्त्र बनाए जा सकते थे। फिर इसे क्या कहा जाए। हुसैन का यह हश्र होना लाज़मी था। हुसैन के पैरोकार तो आज भी कहते हैं कि यह तो कट्टरपंथियों का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। किंतु, मैं पूछना चाहता हूं उन सभी से की शिव की जटाओं बिना शिव पूर्ण नहीं हो सकते, नीला वर्ण दिखाए बिना राम पूर्ण नहीं होते, मुकुट पर मोर पंख दिखाए बिना कृष्ण का चित्र नहीं बनता और मदर टेरेसा की पेंटिंग सफेद साड़ी में नीले किनारे दिए बिना पूर्ण नहीं होती तो मां सरस्वती की पेंटिंग बिना श्वेत वस्त्र के कैसे पूर्ण हो सकती है। काली का चित्र नग्न बन सकता है मगर दुर्गा का नहीं। बात यहीं खत्म नहीं होती आखिर समाज के आदर्शों को वर्णित करने में एसी गलती क्यों हुई।

बिना माधुरी का वर्णन किए हुसैन की तारीफ पूरी नही होती। माधुरी पर मोहित होने वाले मकबूल फिदा हुसैन ने स्त्री के तमाम चित्रों पर तुलिका चलाई है पर अनगिनत प्रमाण है कि वहां अभिव्यक्ति सीमित क्यों रह गई। माधुरी पर बनाई श्रृंखला बेहद रोचक थी। हुसैन से एक पत्रकार ने सवाल किया तो हुसैन ने बेहद शुद्ध अंतःकरण से जवाब दिया। उन्होंने माधुरी को मां अधूरी की संज्ञा दी। मैं अख़बार में पढ़कर हुसैन के इन शब्दों का कायल हो गया था। लम्बे समय बाद हुसैन की एक किताब में उन पेंटिंग्स को देखने का मौका मिला। पेंटिंग्स पर हुसैन ने गजब का काम किया था। कलर कंपोजीशन जबरदस्त थी। लेकिन माधुरी के साथ सांड के रूप में मैकबूल के बलात्कार का चित्रण देख आश्चर्य हुआ। जो व्यक्ति माधुरी मे अपनी अधूरी मां खोज रहा था उसे ऐसा काम नहीं करना चाहिए था। ज़रा सोचिये यही पेंटिंग किसी छोटे-मोटे कलाकार ने बनाई होती तो माधुरी उस पर कितने मुकदमे ठोकती। यह एक विकृत मानसिकता नहीं तो और क्या है। हम हुसैन की हर पेंटिंग की तारीफ केवल उनके बड़े कद को देखकर नहीं कर सकते।
अभिव्यक्ति का ढोल पीटने वाले कहते हैं हिंदू समाज सहिष्णु है। हिन्दुओं को ऐसा नहीं करना चाहिए। मैं कहता हूं कि सहिष्णु है इसलिए दो चार पेंटिंग जलाकर अपना गुस्सा ठंडा कर लेते हैं। किसी के सर कलम करने का फतवा जारी नहीं करते। एक कलाकार के नाते हुसैन के लिए मेरे दिल में आज भी इज्जत है। मैं उनकी रेखाओं का फैन था, हूं और हमेशा रहूंगा। लेकिन ऐसी सोच की कीमत पर नहीं। आप जहां भी रहें खुश रहें। मगर, अब संयमित रहें। अन्यथा सलमान रुश्दी और तस्लीमा नसरीन की तरह आपको पुनः भारत की शरण में न आना पड़े। तब तक के लिए अलविदा हुसैन...

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