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कितना कुछ सिखाती
है मेट्रो!
आज की तारीख में मेट्रो दिल्ली की लाइफलाइन है!
रोज़ाना लाखों लोग इससे सफ़र करते हैं। सिर्फ दिल्ली ही
नहीं एनसीआर से भी मेट्रो हमें पुकारती है,
आइये! मेरी
सवारी कीजिए...मैं आपको आपके गंतव्य तक
लेकर जाऊंगी। जल्दी भी और सुरक्षित भी। पूरे आराम,
पूरे कंफर्ट के साथ। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि आपको, आपके बच्चों को एजुकेट भी करते चलूंगी ताकि आप सब देश के
एक अच्छे नागरिक बन सकें। वे सारी बातें जो हमें सीखनी चाहिए। एक सच्चे भारतीय, एक अच्छे इंसान के नाते। वाकई,
कितने साल हो गए मेट्रो का सफ़र करते हुए। इस ओर कभी
ध्यान ही नहीं गया कि “कितना
कुछ सिखाती है मेट्रो..!” यहां
प्रस्तुत है मेट्रो की तीन बेहतरीन कहानियां...
दृश्य-1
वाकया कुछ दिन पहले का ही है। मैं अपने किसी काम से सीपी जा रहा था। दोपहर
का वक्त, मेट्रो सुबह की अपेक्षाकृत
खाली थी। मैंने वैशाली से मेट्रो का सफ़र शुरू किया था। मेरे साथ ही मेरी बाजू
वाली सीट पर एक बुजुर्ग महिला एक बच्चे को लिए बैठी थी। दादी थी वह उसकी। बच्चे की
उम्र यही कोई तकरीबन पांच या छह साल रही होगी। एकाएक मेट्रो के दरवाजे बंद हुए।
मेट्रो ने रफ्तार पकड़ी और साथ ही शुरु हुआ मेट्रो के भीतर उद्घोषणाओं का दौर। तभी
मैंने देखा कि वह बालक एकाएक मेट्रो में हो रही उद्घोषणाओं को दोहराने लगा। पहले
हिंदी फिर अंग्रेजी में। पूरे के पूरे वाक्य वह जस के तस बोल रहा था। जैसे ही वह
गलती करता उसकी दादी उसे सुधार कर फिर से उच्चारण करने को कहती। वह फिर उसी काम
में लग जाता।
उसका यह क्रम देख मुझसे रहा न गया। आख़िरकार मैं उस वृद्ध महिला से पूछ
बैठा, “ये बच्चा इस तरह बार-बार वाक्यों को दोहरा क्यों रहा है?”
सवाल सुन महिला के चेहरे पर एक हलका सा स्मित उभर आया। “ कुछ नहीं भैय्या!
बस यूं ही! मान लो कि वह प्रैक्टिस कर रहा है।”
वह बोली।
“प्रैक्टिस
मतलब..?”
“अंग्रेजी
सीख रहा है... इंग्लिश
स्पीकिंग..!” उसने कहा और मेरी ओर देखने
लगी।
इस बीच एक स्टेशन गुजरा। कुछ मुसाफिर चढ़े कुछ उतरे भी। मेट्रो के दरवाजे
बंद होते ही उस वृद्ध महिला के शब्द एक बार फिर फूट पड़े।
“अब दोपहर भर घर में बैठ कर करें भी क्या ये लड़के। मां-बाप तो चले जाते हैं दफ्तर। ऊपर से घर में बिजली की
दिक्कत। गर्मी इतनी लगती है कि पूछो मत। इसलिए मैं इसे दो-तीन दिन में एक बार मेट्रो में घुमाने ले आती हूं। दोपहर में भीड़ भी नहीं
होती और बैठने को जगह भी मिल जाती है।”
“...और यह
अंग्रेजी..?” मैने
पूछा।
मेरी उत्सुक्ता देख वह एक बार फिर हलका सा मुस्कुराई और बोली, “...इसलिए ही तो लाती हूं इसे मेट्रो में ताकि थोड़ी बहुत
अंग्रेजी बोलना सीख ले। रोज़ दस बार सुनेगा तो अपने आप बोलेगा।” इतना कहकर उसने अपने बेटे को कहा “बोल बेटा! दरवाज़ा
खुलते समय मेट्रो वाले अंकल-आंटी
क्या कहते हैं।”
लड़का तपाक से बोल पड़ा, “नेक्स्ट
स्टेशन इज़ आनंद विहार। डोर विल ओपन ऑन दि लेफ्ट…
प्लीज़ माइंड दि गैप..”
सुनते ही आस पास के सारे लोग हंस पड़े।
लेकिन लोगों का यूं एकाएक हंसना उस महिला को कुछ गंवारा न हुआ। वह बोल पड़ी, “इसमें हंसने की क्या बात है..वह चार बातें सीख ही रहा है न...”
एक कड़क सार्वजनिक टिप्पणी कर बाद में वह भद्र महिला पुनः मेरे साथ वार्ता
में मशगूल हो गई।
“वैशाली से
सीपी तक ले जाती हूं इसे। यहां से वहां तक इन्हीं वाक्यों को दोहरवाती हूं फिर
लौटते वक्त मेट्रो के दरवाज़ों पर,
साइनबोर्ड पर, लिफ्ट के सामने, टिकट
खिड़की पर जहां-जहां भी हिंदी का अंग्रेजी
लिखा होता है सारा कुछ इसे पढ़ कर सुनाती हूं। बहुत सी बातें तो अब खुद ही बता
देता है।”
सुनकर मैं हैरान था।
दृश्य- 2
यमुना बैंक मेट्रो स्टेशन की वह सीढ़ियां। कॉलेज के कुछ छात्र जिसमें दो
लड़के और एक लड़की न जाने कौन सा प्रश्नपत्र हल करने में जुटे थे। मैं वैशाली-द्वारका मेट्रो यमुना बैंक में छोड़ नोएडा जाने के लिए
दूसरे प्लेटफॉर्म पर आ रहा था। मेरे पास आते ही अचानक उन छात्रों में एक हलचल सी
हुई। वह लड़की एकाएक चीख उठी, “...ये... आय हैव डन!”
“रियली..?” उन दो लड़कों ने एक साथ उस लड़की से पूछा।
तभी उनमें से एक का मोबाइल अलार्म बज उठा और वे अपना सामान समेट कर निकास
द्वार कि ओर भाग पड़े। इसी हड़बड़ी में उनमें से एक की किताब ज़मीन पर गिर गई।
इससे पहले कि मैं उन्हें पुकारता वे जा चुके थे। मैंने वह उठाई और उनके पीछे-पीछे निकास द्वार से बाहर की ओर गया। पहले-पहल तो वे मुझे कहीं दिखाई न दिए। फिर एकाएक मैंने
उन्हें स्टैंड में खड़ी मोटरसाइकलों पर बैठा पाया। लगा जैसे वे किसी विषय पर बड़ी गंभीरता
से बहस कर रहे हों। जब मैंने उन्हें उनकी किताब दी तो वह लड़की आश्चर्य चकित हो
बोली। “अरे! सर! ये
आपको कहां मिली। थैंक्स..!”
मैंने किताब लौटाते हुए उस लड़की से पूछा,
“आख़िर इतनी जल्दी किस बात की थी। जो मोबाइल के बजते ही
आप सब भाग खड़े हुए?”
वे तीनों पहले तो मुस्कुराए फिर एक दूसरे की शक्ल देखने लगे। तभी उनमें से
एक बोला, “अंकल नहीं भागते तो पैसे
कट जाते।”
“...पैसे कट
जाते...किस बात के..?” मैंने पूछा।
फिर एक रहस्यमयी हंसी लिए तीनों एक दूसरे को ताकने लगे।
तभी उस लड़की ने कहा, “ये
फंडा हमारा रोज़ का है। हम तीनों अपने एक्ज़ाम की तैयारी इसी तरह करते हैं।”
मैं अचंभित था। कुछ समझा नहीं। इसलिए फिर पूछ बैठा,
“एक्ज़ाम की तैयारी...वो भी इस तरह..?”
“हां इसी
तरह...” तीनों एक साथ बोल पड़े।
फिर उनमें से एक ने कहा, “यू
नो सर! मेट्रो में टिकट लेने के
बाद 170 मिनट के पहले बाहर निकलना
होता है।”
“यस आय नो!” मैंने प्रतिउत्तर दिया।
“बस यही तो
लोचा है सर...! हम
तीनों में से कोई एक रोज़ टेस्ट पेपर तैयार करके लाता है और हम उसे इसी मेट्रो
स्टेशन के किसी कोने में बैठ कर हल करते हैं। तीन घंटे का पेपर वह भी 170 मिनट में। और जैसे ही टाइम खत्म होता है हम भाग आते हैं
वहां से। फिर बस क्या..! यहां
आकर चेक करते हैं कि किसने कितना किया। हमारा अलार्म ठीक
165 मिनट बाद बज उठता है ताकि हम समय से पहले बाहर आ सकें।”
“ग्रेट
आयडिया..!” मैंने कहा।
“ग्रेट नहीं
गेट आयडिया सर जी! थैंक्स..!” कहकर वे तीनों फिर एक बार आपस में चर्चारत हो गए। मैं
पुनः मैट्रो की तरफ लौट रहा था, उनके
आयडिया को मन ही मन दाद देता हुआ।
दृश्य-3
एकाएक मेट्रो स्टेशन गूंज उठा। किसी बच्चे के बेतहाशा रोने से। सभी
मुसाफिरों की निगाहें अचानक उस ओर मुड़ गई। मैं उसी वक्त एस्कलेटर से ऊपर पहुंचा
ही था। देखा, टिकट सेंसर मशीन के पास एक
छोटा सा लड़का ज़ोर-ज़ोर
से चीख रहा था। “मम्मी मेरा टिकट..!”
वह किसी कीमत पर उस सेंसर मशीन के पार जाने को तैयार न था।
बड़ी मशक्कत से मां उसे वहां तक खींच कर लाती। लेकिन वह फिर अपनी मां का
हाथ छुड़ा सिक्यूरिटी डेस्क पर आ पहुंचता। यह क्रम तकरीबन पांच मिनट तक चलता रहा।
कभी मां उसे प्यार से समझाती तो कभी गुस्से में डांट कर कहती। कभी मनाती तो कभी
पुचकारती, “बेटा! तेरा टिकट अभी नहीं लगता। तू इतना बड़ा नहीं हुआ।”
लेकिन वह था कि मां की सुनने को राज़ी न था। पास खड़े कई लोगों ने उसे
समझाया लेकिन वह किसी कि एक न सुनता। कोई प्रलोभन भी कारगर साबित नहीं हुआ। उसकी
तो बस एक ही जिद्द थी, “मां
मेरा भी टिकट ले लो...मैं
अब बड़ा हो गया हूं।”
वह अपना अलग टोकन चाहता था। वही उसे एंट्री मशीन पर लगाना था। उसकी मां ने
कई बार कहां कि, “ले तू मेरा टोकन लगा ले, मैं तेरे पीछे चलती हूं।”
लेकिन वह अड़ा तो अड़ा रहा।
तभी एक बुजुर्ग ने उस बच्चे को प्यार से मनाया और पूछा कि वह किसलिए जिद कर
रहा है। तब जाकर साहबजादे ने सिसकते, टूटते, तुतलाते शब्दों में कहा, “देखो न अंकल...मम्मी मेरा टिकट नहीं लेती।”
“वह इसलिए
कि बेटे अभी तुम छोटे हो।” उस
बुजुर्ग ने कहा।
“...नहीं
मैं छोटा नहीं हूं...” कहकर वह फिर ज़मीन पर लेट गया और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।
उसका यह बाल हठ सबकी समझ से परे था।
तभी वहां खड़ी एक महिला ने उसकी मां से कहा,
“इतना जिद करता है तो ले दो न एक टिकट?”
सुनते ही उसकी मां हत्थे से उखड़ गई,
“..आपको क्या लगता है जी बोलने में। क्यों लूं इसका टिकट? अभी तो साल भर इसे ऐसे ही ला-जा सकती हूं। इतने से बच्चे का कौन टिकट लेगा। पागल समझ रखा है क्या हमको?” इतना कहकर उसकी मां ने वहीं अपने बच्चे को एक तमाचा रसीद
कर दिया।
“अरे..अरे..यह
क्या कर रहीं हैं आप..?”उस
बुजुर्ग ने कहा।
“अब न मारूं
तो क्या करूं बाबूजी! सुनता
ही नहीं...एक दिन इसके पापा ने इसे
वह बोर्ड पढ़कर क्या सुना दिया यह ऐसा ही तमाशा करने लगा है।”
“कौन सा
बोर्ड..?”
“...वही जिस
पर लिखा है कि तीन फिट के ऊपर के बच्चे का टिकट लें।”
सुनकर वहां खड़े सभी तमाशबीन हंस पड़े। तभी एक पुलिस वाले को वहां आता देख
वह औरत कुछ सहमी। वह जान रही थी कि गलती उसी की है। अतः उसने अपने बेटे को वहीं
छोड़ा और जाकर उसका टिकट ले आई। अपना टिकट पाकर वह बालक खुशी से झूम उठा। नफरत भरी
निगाहों से उसकी मां ने कहा, “अब
तो चलेगा या नहीं..?”
वह महिला पुनः सिक्यूरिटी चेक करवाकर अंदर आयी। तभी वहां तैनात एक जवान ने
बच्चे को देख कहा, “...बड़ा
होकर केजरीवाल बनेगा के!”
सुनते ही महिला ने उस जवान को रोष भरी नज़रों से देखा और फिर एकाएक हलका सा
मुस्कराई और टिकट सेंसर मशीन की ओर बढ़ चली।
डिब्बे तक पहुंचते हुए वह उस बुजुर्ग से कह रही थी
“इसकी हाइट 3 फीट से ज़रा सी ऊपर है। 3 फीट 2 इंच ही समझिए...।”
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